टोटेलिटी बनाम--सम्रगता
आइये बात शुरू यूं करते हैं---
लाओत्से (चीनी दार्शनिक—और ओशो की मीमांसा—मेरी नजर में) ने पूरी की पूरी सुराही पी ली----और नाचने लगा---अदभुत
था जीवन-रस.
और यहीं से बात
निकलती है---टो्टेलिटी की,सम्रगता की.
अगर किसी कविता
का एक छोटा सा टुकडा किसी को दिया जाय---दो पंक्तियों का,तो उससे पूरी कविता के
संबन्ध में कुछ भी पता नहीं चलेगा.
एक उपन्यास का
पन्ना फाड कर पढने को दे दिया जाय तो उससे पूरे उपन्यास के विषय में कुछ भी पता
नहीं चलेगा.
कोई वीणा पर
संगीत बजाता हो,उसका एक स्वर किसी को सुनने को मिल जाय तो उससे उस को वीणाकार ने
क्या बजाया,कुछ भी पता नहीं चलेगा.
एक बडे चित्र का
टुकडा फाड कर किसी को दे दिया जाय तो उस चित्र के विषय में कुछ भी पता नहीं चलेगा.
कुछ चीजें
है,जिनके थोडे स्वाद से कुछ पता नहीं चलता,जिन्हें उनकी सम्रगता,टोटेलिटी में ही
पीना पडता है----और जीवन-रस भी एक सम्रगता है—एक टोटेलिटी
है.(ओशो )
परंतु आज चारों ओर जीवन की सडांध फैली हुई है---यदि हम अपनी
नजर को सभी पूर्वाग्रहों से मुक्त कर लें और अपनी नासापुटों से ओढी हुई अपनी समझदारी
का रूमाल हटा लें तो
हम निःसंदेह घुटन महसूस करेगें ही.
मैं एक छोटे अनुभव को कहना चाहूंगी---पिछले कुछ दिनों मै एक
बहुत पुरा्ने मुहल्ले में दो-तीन रोज के लियी,अपनी बडी बहन के पास ठहरी हुई थी---
एक चित्र—यूं खिचता है जिंदगी के केनवास पर---कि पास से
गुजरती हुई रेलगाडी की आवाज की आताताई स्वरलहरियों में---कभी खट-खट तो कभी छुक-छुक
तो कभी शटिंग की धडधडाहट, जो अक्सर रात भर चलती है---इन्हीं चिर-परिचित आवाजों की
पृष्ठभूमि में जिंदगियां बीतती रहती हैं—नवजातों के जन्म के साथ,गलिेयों में
बेहिसाब बच्चों के निर्बाध शोर-गुल, पुरुषों की आवाजाही-- वही दो जून रोटी की
जुगाड,महिलाओं के अधखुले पल्लुओं से झांकती कुचली आशाएं,अश्रु-सिक्त स्वप्न.कोखों
में अनचाहे जीवन--- जो निःसम्देह इस जीवन के अतिरिक्त बोझ ही होंगे, बुढापे जो पति-विहीन
हो गये---्गाहे-बगाहे पडोस में अपनी कहानियां कहने को झांकते हैं दूसरों की
खिडकि्यों में कुछ कहने के लिये और कुछ वे बुढापे जो पत्नि-विहीन हैं—औरों के
चबूतरों पर दोपहरियां गुजारने को मजबूर हैं क्योंकि घरों में दीवारें हर रोज सुकुड
रहीं हैं—अनचाहों के जन्मों से,अपनों के बेगानेपनों से---और कुछ स्वम की नपुंसुकता
के कारण कि उन्होंने खुद ही अपने को रीता हुआ मान लिया.
और कुछ और गहरे-बोझिल-बोझ जो ता-दोपहर औरों की चबूतरियों पर
मजबूर हैं—आंखो के पानी को चिथडे हुए पल्लुओं से पोंछने के लिए,मुंह पर भिनभिनाती
मक्खियों को बार-बार उडाने की नाकाम कोशिश में---
यही दिन-रात है,जीवन की--- अक्सर इस पृथ्वि की बहुत बडी
आबादी ऐसे ही जीती है,और ऐसे ही मरती है.
आइये इस सम्दर्भ में कुछ खूबसूरत लाइनों में उतरे जो ओशो ने
उद्घोषित कीं---एक गीता कृष्ण ने कही अर्जुन को झझकोरने के लिये---और समय-समय पर
हमारे बीच ऐसे ही अवतरण होते रहे हैं---ऊंघती हुई मानवता को झझकोरने के लिये.
----और ना ऐसा लगता है कि उनके जीवन में,उनके प्राणों में
उन शिखरों को छूने की कोई आकांक्षा है,जो जीवन के शिखर हैं.
----हमारी जडें ही जीवन के रस को नहीं खींचती हैं और ना
हमारी शाखाएं जीवन के आकाश में फैलती हैं और ना हमारी शाखाओं में जीवन के पक्षी
बसेरा करते हैं----सूखी शाखाएं खडी हैं---.
----एक-एक क्षण जिंदगी भागी जा रही है,उसे मुट्ठी में पकड
लेना पडेगा----.और जी केवल वे ही सकते हैं जो उसमें रस का दर्शन करते हैं.
(साभार—संभोग से समाधि की ओर. ओशो)