मैं,
झंझावतों के----
पास से
गुजरी,
हर
खुशबू को,
समेटती रही,
आंचल से यूं---कि,
इन खुशबुओं में,
कुछ---
तुम्हारा भी वज़ूद होगा,
बेशकः---
कुछ फूलों को,
बिखरने से,
बचा
न पाई हूं,
पर—
खुशबुओं की बाती को,
बुझने
भी नहीं,
दिया है---
मैने,
आसुओं में रोज,
तर करती
रही हूं,
जलती पोरों से,
बातियों को,
समेटती भी
रही हूं---
मैं,
तुम्हरी दिवाली में,
दियों
की,
कतारें
हैं----
एक दिया---
बुझ भी गया,
तो क्या
है---
पर,मेरी देहरी पर,
फ़क्त,एक
ही दिया है---
इसलिये,
हर दिवाली को,
रोशन करने के लिये,
पलकों पर-----
ठहरे
आसुओं से,
बाती को---
भिगोती रहती हूं,
मैं,
हाथों की पकड----