अचानक फोन का रिसीवर रख दिया.लगा सब कुछ इतना शांत हो गया है. हां,जाना तो था ही,कोई बडी बात नहीं,बीमार थे.
बाबूजी,कितना भारी-भरकम अनुभव था,पता नहीं कौनसा झोंका था,जो उडा ले गया,सब कुछ अपने साथ.
पता नहीं,याद नहीं आ रहा,बाबूजी,कब-कैसे ज़हन में आते गये और जब ज़हन पर ज़ोर डाला तो बाबूजी एक ऐसे व्यक्तित्व के रूप में उभरे,जिनका पास होना भी हज़ारों मील की दूरी को लिये होता था.कभी जुडा हुया मह्सूस नहीं किया,एक ऐसा ज़रूरी सम्बंध,जो स्वाभाविक नहीं,ओढा हुया सा.
ऐसा नहीं,उनके वज़ूद को,मन ही मन सराहा न हो.जब कभी अकेले बैठी और गहराई से इस सम्बंध की परिभाषा को पढा और समझने की कोशिश की तो कहीं गहरी कडुवाहट में से भी ममतामयी और हृदय के अंतिम छोर तक भावुकता से भरी आंखों को निहारते पाया.
फिर भी,बाबूजी सदैव ही,मन के एक कौने में बैठे डर को उभारते रहे.कई बार सोचा,आखिर डर क्यों लगता है,आज तक इसका उत्तर नहीं मिला.
यही सब बातें मन में उमड-घुमड रहीं थीं,एक बार सोचा शायद जाना सम्भव ना हो पाये,लेकिन मन में एक दबी हुई इच्छा जाग उठी,कम से कम आख्र्री बार उस चेहरे को साहस से देख पाऊंगी जिसे उनके जीवित रहते ना देख पाई थी.
रास्ते भर यादों का सिलसिला किसी चलचित्र की तरह चलता रहा.बाबूजी की आवाज़ कानों में गूंजने लगी-----अरे! कोई है? और,पैर वहीं ठिठक जाते थे,हाथ काम करते-करते रुक जाते थे,शरीर मनों भारी हो जाता था,हाथ में पानी का गिलास संभाले नहीं संभलता था.अभी नज़दीक पहुंचे भी नहीं होते थे कि एक कडक आवाज़ कानों में ठुक जाती थी—वहीं रख दो.पता नहीं,आंखे देखना बंद कर देती थीं और देखने का काम भी कानों से ही करना होता था.
बाबूजी के खाने का समय,घर में कहर के रूप में आता था.खाना कौन खिलाएगा?इसके लिए बडी से बडी शर्त हारने में भी फ़ायदा नज़र आता था.और कभी सिर पर आफ़त आही जाती थी,तो रसोई से उनके कमरे तक,कम से कम २५ बार भाग-भाग कर कवायद पूरी करनी होती थी.
बीच में बिछे,लंबे-चौडे आंगन को,क्या गर्मी की तपती धूप हो या सर्दी की बर्फ़ीली रातें हो और घनघोर बारिश हो,नंगे पैर,उनकी आवाज़ के साथ दौडना पडता था.
एक-एक रोटी गर्म-गर्म,कभी एक कटोरी उठा ले जाओ,कभी दाल दे जाओ,चम्मच लाना,क्या चटनी बनी है,लाना जरा.अब कौन कहे,यदि बनी होती तो परोसी भी जाती.
खाने के बाद,हाथ में पीतल की दोसेर का लौटा थामें-कम से कम २५ बार हाथ धुलवाना,यदि गर्मी की चटकती धूप हो तो लगातार पैरों की कवायद भी करनी होती थी.
तीसरी आवाज़ कानों में टकराती—नीम की तीली लाओ,अब भागे जा रहें नीम के पेड के नीचे,ऐसा ज़ान पडता था जैसे संमुद्र की तह में से सच्चे मोती ढूंढ रहे हों.खैर,जैसे-तैसे यह मुहिम भी पूरा हो जाती और सांस भी पूरी नहीं आ पाती थी कि एक आवाज़ ने फिर पीछा किया- अरे,कोई है, दरवाज़ा भेड जाना.
दो प्रश्न बार-बार मन में उठा करते थे-वे खुद ही दरवाज़े से बिस्तर तक गयें हैं,तो खुद ही दरवाज़ा क्यों नहीं भेडा.
दूसरा प्रश्न-उन्हें पता है खाना कौन खिला रहा है तो उसे नाम से संबोधित क्यों नहीं करते.
आज,अचानक,अर्से के बाद,यह प्रकरण नज़रों के सामने से गुज़र गया,लगा कुछ अधूरा सा रह गया है,उसे पूरा कर दूं,उस स्मृति को ईमानदारी से आंक लूं.
कभी-कभी,हम कुछ रिश्तों के साथ ताउम्र न्याय नहीं कर पाते हैं,जो हमें कर लेना चाहिये.
अतः,इस संदर्भ में,मैं अपने पिता के प्रित नासमझी की कडुवाहट को एक ममतामई स्मृति में ढालने का प्रयत्न कर रही हूं,साथ ही जिस कडुवाहट को लेकर.अपने जीवन के एक बडे भाग को जीती रही उसे पश्चाताप के आंसुओं से तिरोहित कर देना चाहती हूं.
वे एक ऐसे पिता थे,जिन्होंने अपने बच्चों के उज्ज्वल भविष्य के लिये,अपने जीवन के ४५ वर्ष,नितांत अकेले गुज़ारे,जहां उनके दुख-सुख के साथ कोई नहीं था.
जीवन का इतना लंबा समय गुज़ारना असंभव तो नहीं है लेकिन आसान भी ना होगा.
उनके व्यक्तित्व में कडुहाट,सम्भवतः खुद की ओढी हुई होगी,अपनी मानवीय कमज़ोरियों को छुपाने के लिये.
खैर,आज़ जब भी बाबूजी याद आते हैं,मन नतमस्तक हो ही जाता है.
अक्सर,इन कर्तव्यों की आहुतियों की गर्माहट भी हम महसूस नहीं कर पाते हैं,क्योंकि अहसास मर रहें हैं,जीवन की भागमभाग में.
मन के-मनके