Monday, 27 August 2012

’टाइम्स ओफ इन्डिआ’ के ’सीक्रेड स्पेस’ कालम में प्रकाशित


’टाइम्स ओफ इन्डिआ’ के ’सीक्रेड स्पेस’ कालम में प्रकाशित

स्वामी चिनमय द्वारा उवाचित वचनों से प्रभावित होकर---

        ( दिनांक- २७.८.२०१२ )

१.    आपके पास दो विकल्प हैं—

अ.  चालाकी

ब.बुद्धिमतता

         आप किसे चुनेंगे?

२.    आपके पास दो लक्ष्य हैं—

अ.  दूसरों को बदलने का

ब.स्वंयम को बदलने का

         आप किसे चुनेंगे?

३.    आपके पास दो विकल्प हैं—

अ.  जैसे आए,वैसे ही चले जाना

ब.जो पास है,वह देकर जाना

         आप किसे चुनेंगे?

         ४.आपके पास दो लक्ष्य हैं—

                                  अ.खुशबू को, दुर्गंध बनाना

                                  ब.दुर्गंध को, खुशबू बनाना

         आप किसे चुनेंगे?

         ५.आपके पास दो विकल्प हैं—

                                 अ.सौ साल जीने का

                                 ब.भरपूर जीने का

         आप किसे चुनेंगे?

        ६.आपके पास दो लक्ष्य हैं—

                                 अ.निर्मित करने का

                                 ब.विद्ध्वंश करने का

          आप किसे चुनेंगे?   

      

 

 

    .

 

 

Monday, 20 August 2012

क्या तुम्हारे पास---


क्या तुम्हारे पास------

इतना बडा इंद्रधनुष नहीं,

जो, क्षितिज के इस छोर से—

उस छोर को, अपनी झिल-मिल में समेट ले

                        जहां----------- भूख है---

                        जहां बेनीदों की रातें हैं

                        जहां----अकाल हैं—किलकारियों के

                        जहां---गोद को तरसती—किलकारियां हैं

जहां---उम्मीदों के धागों से बिने

मोरपंखी------गलीचे----

बिछ नहीं पाते---घरों में

और,दुबारा बिने भी नहीं जाते

                       जहां---इंतजार निगल जाते हैं,जिंदगियों को

                       और,अपनों के कदमों की आहटें,बहुत-बहुत

                                          दूर चली जाती हैं---

जहां, मासूम बचपन-------

ढूंढते रहते हैं—ता-उम्र,पूरे घरों को

एक रात नसीब होता है—मां का आंचल

तो, अलसुबह,पिता की उंगली थाम लेते हैं

                              ये घर---- अधूरे से क्यों हो जाते हैं—

उम्र के सालों की गिनतियां

चेहरों पर आकर होती हैं पूरी

और, हाथ कांपने लगते हैं—गिनने के लिये

धुंधली आंखो में,रीतते सपने—

                 रोज-रीतते चले ही जाते हैं—

                              घरों से----- छिटकते बुढापे

                              देहरी के बाहर---चटकते चबूतरों पर—

                                              बैठ जाते हैं—

जहां,अपने ही हाथ झटक—दूर चले जाते हैं

और,चुके सपनों की डोरी को ,अपने ही

                       बे-डोर पतंग सी छोड देते हैं

                                               क्या तुम्हारे पास-------

                                               इतना बडा इंद्रधनुष नहीं है

                                               जो,क्षितिज के इस छोर से

                                               उस छोर को, अपनी झिलमिल में

                                                               समेट ले----

अब काफ़ी नहीं----

        तुम्हारा, अधा-अधूरा सा

                      इंद्रधनुष----                                               



                                                                  

Thursday, 9 August 2012

प्रिये, यह गागर,रीत-रीत क्यों जाती है !


प्रीत की यह गागर—

भरती क्यों नहीं---प्रिये

सपनों से लेकर----

फिर, रात घनेरी तक---

             रोज-रोज,रीत-रीत--

             क्यों जाती है,प्रिये!!!

सिंदूरी लाली ले----होठों पर

कली---रोज-रोज—सुबह—

पाती की झालर, टांक

नित-चूनर,उघाड-उघाड--

             क्यों,प्रतीक्षा सी—

             हो जाती है,प्रिये!!!

कली-कली,फूल-फूल पर

भंवरों की भटकन—

कौन प्यास बुझाने को

भोर-पहर, रात-बिछोही तक

               क्यों,अनबुझी प्यास—

               बन जाती है---प्रिये!!!

आली सी,नित छिटकती,शशिकला

और,रीते दीये में,बीती-बाती-सी

विरहन सी टिकी,सूनी देहरी पर

किस प्रियतम की राह देखती

                क्यों-----बुझ जाती है

                भोर-पहर-----प्रिये!!!

सात-अश्व का रथ हांके---

दहक-दहक,सदियों की राहों पर

हर-पल,क्लांत टपकता,मांथे से

पर,सांझ-ढले,सिंदूरी सागर में

                 क्यों,सो जाता है,दिनकर

                 मुंह ढक कर-----प्रिये!!!

                                        हर-एक खिलावट,मुस्कानों की

                                        ढलती है,अश्रु-बूंद-बन---यहां

                                        हर मिलन,यहां, विछोही है—

                                        हर प्रेम, यहां, विद्वेषी है—

                                        एक सांस यहां आती है—

                                        तो,एक चली भी जाती है—

                                        प्रिये,जब फूल खिले,मुरझाए ना

                                        खिलना भी,बेमानी है-----

                                        प्रत्युत्तर प्रश्नों के----

                                        पुनः-पुनः,प्रश्न बन जाते हैं

प्रिये,यह गागर,रीत-रीत---

यूं,जाती है-----                       

      

Tuesday, 7 August 2012

कहीं देर ना हो जाए-


गर्मी की उमस बढती ही जा रही थी. इस उमस से निजात पाना आसान नहीं था.पंखों की हवा उमस का साथ दे रही थी,कूलर भी कोयले के इंजन की तरह,भाप उगल रहे थे—अब रह गए ए.सी.महाशय,वो भी बेचारे कब तक ढोते रहें इस भार को.खैर,जैसे-तैसे कोशिश तो जारी थी.

सवाल तो उठता है,कितने भाग्यशाली हैं, जो, कूलर का सुख भोग सकते हैं और ए.सी. तक पहुंच कुछ ही लोगों तक है, जिनके संसाधनों में, काला-सफेद दोनों ही रंग शामिल हों.

ऐसी ही एक उमस भरी शाम---अचानक ईश्वर की अनुकंपा हुई और काले बादलों ने हमारे आंगनों में भी अपने चरण-कमल रखने की कृपा की. खुशी और भी चार गुनी हो गई,जब बादलों के बीच बिजली भी चांदनी सी चमकने लगी.

सोचा, ऐसे सुअवसर अब जीवन में कम ही आते हैं,जब कोई भूला-भटका पुण्य आडे आ जाय,सो कहीं देर ना हो जाए—एक कुर्सी बलकनी में रख कर बैठ गई,चलो बारिश ना भी हो उसके आने के संदेश-पत्र ही बांच लिए जांय.

अब तो ऐसे मौके-स्वर्ग की एक झलक ही हैं,वरना, वो भी क्या दिन थे-शाम को बारिश की झडी चूल्हों पर टिक गईं कढाई,गर्म-गर्म पकोडे-चीलों की महक से घर ही नहीं, आस-पडोस भी महक जाते थे.सिल-बट्टे पर चटनी की घिसाई और चायों से उठती गर्म-गर्म भाप.

क्या करें,ईश्वर जैसे रखे,उसकी मर्जी फिर मंहगाई-देवी की अनुकंपा भी तो दिन-दूनी,चार-चौगनी हम पर बरस रही है,सो कढाइयां भी ठंडी पडी हैं.

हां तो,बालकनी में बैठी,बादलों की भूली-बिसरी घड-घड सुनकर,मेघ-मल्हार का आनंद उठा रही थी,तभी सन्न से हवा का एक झोंका कानों में कुछ कहता हुआ निकल गया—सोचा अकेली ही हूं, फिर कौन था, क्या कह गया? कुछ शब्द कानों में अब भी गूंज रहे थे---

’मैं वही खि्न्नी का पेड-भूल गईं क्या?’

’हवा के झोंको को थामे,तुम तक अपनी बात पहुंचा रहा हूं-याद करो मैं तो अब भी तुम्हें याद करता हूं—हालांकि,खाफी बूढा हो चला हूं,फिर भी याददाश्त अभी तक ठीक-ठाक है’.

’ओहः खिन्नी के पेड, अब तो दिखते ही नहीं हैं,तुम अपने आस्तित्व को कैसे बचाये हुए हो?’

और, उन हवाओं की डोरी से, बातों के सिलसिले चलने लगे.

’मैं भूली कहां थी,सालों के बढते बोझ तले तुम्हरी यादें कहीं दब सी गईं थी.मुझे अब भी याद है-टीका-टीक दुपहरी में,तुम्हारे भारी-भरकम तने को छूते हुए,छुपा-छुपी खेला करते थे—इतना मोटा तना था तुम्हारा कि उसके पीछे हम दो-तीन तो छुप ही जाते थे,और तुम भी कनखनियों से देखते रहते थे, उस टोली को, जो हमें ढूढ रही होती थी.

होठों पर उंगलियां रख-हम तुम्हें इशारा करते थे चुप रहने का—और तुम्हारी खिलखिलाहट के साथ, सेर भर खिन्नियां, टपक पडती थीं.

हा—हा—हा--,हम बुद्धू बने खिन्नियों को झोली में भरने लगते थे-भूल ही जाते थे, कोई हमें ढूढ रहा है—लो और देखो, ढूंढने वाले भी खिन्नियां बटोरने लगते थे.

तुम भी क्या थे—तभी तुम्हें हंसना होता था-मालूम है,खेल भी तुम्हीं बिगाडते थे.

खेल खतम,खेल खतम के शोर के बीच,खिन्नियां गालों में दब जाती थीं-क्या मिठास थी-कुछ-कुछ कडुवी सी भी थीं- पीली-पीली, चिकनी-चिकनी—क्या नूर था!

और तुम सुनाओ,इतने वर्षों बाद,तुमने क्या-क्या बदलते देखा—क्या बच्चों की टोलियां अब भी आती हैं,क्या अब भी, छुआ-छुप का खेल किलकारियों से टपकता है?

क्या तुम,अब भी खिन्नी वाली हंसी हंसते हो?’

खिन्नी का पेड—’ दूंगा तुम्हारे प्रश्नों के उत्तर. तुम्हे दिल थाम कर सुनना होगा.

जीवन के सत्य, पत्थर से कठोर होते हैं, जिन्हें दिल पर रख जीना ही होता है.

वो, भाग-दौड,तुम्हारे नन्हें पैरों की आहटें,वो, तुम्हारी गर्म हथेलियों की छुअन,वो, तुम्हारा मुझसे लिपटना, वो कोशिशें, अपनी नन्हीं बांहो में मुझे समेटने की , मुझे आज भी याद है.

अब,खुले अहाते नहीं रहे,अहातों में कंकरीटों के जंगल से उग आए हैं. हम ही जानते हैं हम जैसे-तैसे खडे हो पाएं हैं उस जगह पर जो हमें मुअस्सर हुई.कोई भी-कभी भी मेरी डालियों को काट देता है—नहीं देखते उन आंसुओं को जिनसे हम रोते भी हैं. वो खिन्नियां जो मेरी खिलखिलाहटों में टपकती थीं और तुम्हारी नन्ही-नन्ही उंगलियों से बीनी जाती थीं-झोलियों में सहेजी जाती थीं, सौगातों की तरह-अब लोग पैरों से कुचल कर निकल जाते हैं.सच कहूं,अब तो हमारी सिसकियों में टपकती हैं, खिन्नियां.

बच्चे तो अब नज़र ही नहीं आते हैं—जाने इन घरों में कौन रहने लगा है—घरों के दरवाज़ों और खिडकियों को अब इंतज़ार नहीं खुली हवाओं का—अब तो २४ घंटे कूलर-पंखों की सांय-सांय सुनाई पडती है.

मेरी एक डाल से भूल हो गई.वो थोडा सा उचक कर पास वाले घर में झांकने लगी कि देखूं तो कोई धमा-चौकडी हो रही है बच्चों की-कहीं से कोई किलकारी ही सुनाई दे जाय---परंतु देख कर बडा दुख हुआ-एक बच्चा एक डिब्बे के सामने खामोश बैठा था-दूसरा एक और डिब्बे के सामने बैठा उंगलियों से कुछ लिख रहा था.समझ ही नहीं आया.

खैर,मेरी इस गुस्ताखी की सजा,मुझे अगले ही दिन मिल गयी और मेरी उस डाली को जासूसी के आरोप में काट डाला गया.

वक्त बदल गया है,किलकारियां भी खामोश हो गईं हैं.उनकी जगह बे-सुरे शोरों ने ले ली है.

काफ़ी बूढा हो गया हूं---कोशिश करना कभी मिलने की—अपने बे-सुरे शोरों में से,उन हंसी के शोरों को याद कर,मुझसे मिलने जरूर आना.

कोशिश करना मुझे अपनी बांहो में समेटने की---अब तो समेट ही लोगी.

वक्त तेजी से गुज़र रहा है----कहीं देर ना हो जाए.

                                            

संदर्भ में,कुछ शब्द----

वक्त तेजी से तो बदल रहा है,निसंदेह इस सृष्टि में कुछ भी स्थिर नहीं है,परंतु मन पीडा

से भर जाता है, जब, वक्त की चाल बे-ढंगी सी दिखने लगती है.

इस आस्तित्व की खूबसूरती, बदसूरत होती जा रही है,जिन्होंने उस खूबसूरत चेहरे को देखा

है,उनको व्यथित होना ही है.

हम, इस आसतित्व के हिस्से हैं और जब-जब इससे कटने की कोशिश की, घायल ही हुए हैं.

मेरी यादों में, व्यक्ति-विशेष ही नहीं हैं,कुछ स्थान भी हैं, जिनसे से भी मैं अब तक जुडाव महसूस करती हूं,

साथ ही, उन पेडों से भी, जिनकी छांव-तले,लंबी-लंबी दुपहरियों को भर-पूर जिया.

एक अहसासी श्रद्धांजलि उस खिन्नी के पेड को,जो, निःसंदेह अब नहीं होगा.

                                                            मन के-मनके