Thursday, 2 July 2015
ओशो एक
कहानी अक्सर सुनाया करते थे—जब वे प्रेम को परिभाषित करने का प्रयत्न करते
थे—वास्तव में आज जो प्रेम हम देख रहे हैं—एक अधिकार की दूषित मनोवृत्ति के अलावा
कुछ नहीं है—जहां अधिकार है—वहां अहम के केक्ट्स उग ही आते हैं और प्रेम का फूल
इतना कोमल होता है कि छूना भी ऐसे हो कि देसी गुलाब की नाजुक पंखुडियां—जिन्हें
छूना ऐसे होता कि वे कहीं बिखर ना जांय—उनके पास से गुजर जाना और उन्हें उनके
परिवेश में विकिसित होने के लिये उनकी नैसर्गिक आजादी से छेड्छाड ना की जाय—वे
खुशुबू बिखेरते ही रहेगें—जब तक हैं---और हमें फूलों से क्या चाहिये—पूछिये अपने
दिल से—दिल भी यही कहेगा---केवल खुशबू.
अपनी
बात मैं शुरू करती हूं—ओशो की एक कहानी से—कहानी कम है—एक खुशबू है— वे आजाद करने
का मंत्र दे रहे है,प्रेम की महक को!
दो
प्रेमी एक-दूसरे से बहुत प्रेम करते थे और प्रेमिका चाहती थी कि वे दोनों को विवाह
कर लेना चाहिये.प्रेमी ने कहा वह एक शर्त पर विवाह कर सकता है—कि विशाल झील के किनारों पर अलग-अलग घरों में
रहेंगे—’अगर संयोगवश कभी हम मिलते हैं—सम्भव है नौका-विहार करते हमारा मिलन हो जाय
या हो सकता है कि किसी दिन टहलते हुए हमारा मिलन हो जाय—दोनों हाथ-में-हाथ लिये
हों—तब वह अत्यंत सुखद पल होगा’.
इस
कहानी को पढते-पढते—अचानक मेरी स्मृतियां मुझे दो-चार दशक पीछे ले गईं---प्रेम एक
प्रतीक्षा है—बात समझ में आने लगी—और उसकी गहनता की सार्थकता भी. आज के परिवेश में
उठ रही दुर्गंध जो इन सम्बंधों में उठती ,उस कूडेघर तक पहुंचना सम्भव हो जाता है,जहां
हम पल-पल घुट रहे हैं.
हालांकि,आज
समय बदल रहा है—बहुत ही तीव्र गति से—जो हमें हर-दिन भ्रमित कर रहा है—टेकनोलोजी
का भी अपना प्रभाव है---नाकारात्मक अधिक है—कारण—इनके प्रति अवेअरनेस की कमी और
कुछ सारभूत मूल्यों का अलोप हो जाना—अंधी नकल औरों की—पैसे की चमक—उसका
बाजीरीकरण—बेहूदा उद्घाटन—बहुत-बहुत सी बातें हमें—भटका रही हैं जो अब इतनी बेहूदी
खिचडी हो चुकी हैं कि बात कहां से शुरू हो कहना-समझना मुश्किल हो रहा है—एक पीढी
तो विकराल अंधकार में लग-भग गिर ही चुकी है—अब सभांलना कैसे हो--- कौन
सभांले--बहुत प्रश्न उठ खडे होते हैं—और हमारी पीढी मूक-दृष्टा बन कर रह गयी है.
खैर—तब
विवाह परंपरागत ही होते थे---जहां बहुत सी बातें इतनी दूर हो जाती थीं कि एक सहज
उत्सुकता को बनाए रखती थीं. दो लोगों में.बहुत भीनी-भीनी सहजता होती थी—महकी-महकी
होती थी प्रतीक्षा!!!
कितने
वर्ष गुजर जाते थे कि—एक-दूसरे को पूरी तरह देखने के लिये भी प्रतीक्षा करनी होती
थी—एक रिवाज बहुत ही खूबसूरत था—विवाह के बाद गौना—एक रीति थी—विवाह के बाद केवल
कुछ दिन ही वर-वधू साथ रहते थे वो भी रिश्ते-नातों से घिरे हुए—एक ऐसी प्रतीक्षा
सो मधुर सपनों से सुवासित होती रह्ती थी—सावन माह में वधुओं का अपने माता-पिता के
घर जाना—बेटियों का यहां आना—वो भी एक-दो माह के लिये---और प्रतीक्षा का फूल बारिश
की झडी में और भी महक उठता था—
हालाकि—आज
की परिस्थियों में ऐसा होना तो संभव नहीं है—लेकिन रिश्तों की खूबसूरती को
संवेदनाओं से छूना-- उसके प्रति प्रतिबद्ध होना—ये गूढ रहस्य को खोलना जरूरी
है—जिंदगी के गूगल पर जाइये—खोलिये उस साइट को जहां एक पेज खुलेगा—जो की-बर्ड
है—जीवन के सभी साइटों का—सीखिये—हम सीख सकते हैं.
इस
साइट पर भी कुछ समय बिताइये.
सौदा
महंगा नहीं है---एक दूसरे की स्वतंत्रता की गरिमा को कायम रखना और एक-दूसरे के ऊपर
आधिपत्य की भावना को तिरोहित करना—यही कुछ छोटी-छोटी बातें हैं जो जीवन में फैली कीचड में भी कमल के फूल खिला
सकती हैं.
जीवन
को सहजता से ना लेना—और—निर्थकता में अपने-आप को डुबो देना—जीवन के खिलने से पहले
ही जीवन को सडा रहा है.
शायद
ही कभी—हमारे हाथों में हाथ होते हैं.
असम्भव
है—किसी निर्जन झील में हम नौका-विहार कर सकें—बगैर इस विचार के-कि क्या मांगना
है—कि क्या नहीं देना है.
प्रेम
एक प्रतीक्षा है.
प्रेम
में लेन-देन है ही नहीं.
अहम की
जमीन बंजर होती है,जहां प्रेम का बीज पल्लवित हो ही नहीं सकता.
प्रेम
एक ओट है---झीनी सी.
पुनःश्चय:
यह पोस्ट मन के-मनके पर आ चुकी है जिसे पुनः पेश कर रही
हूं.
कुछ बातें पुरानी नहीं होती क्योंकि वे सार्व भौम होती हैं
और समायकालीन होती हैं.
ओशो के परिपेक्ष को मैं नकार नहीं सकती.
साभार धन्यवाद प्रेम के साथ.