Sunday, 29 May 2011

दिल्ली चलें

मू.वी का कथानक बहुत ही सीदा-सादा,मुम्बई से दिल्ली तक की यात्रा का चित्रण है.
-कहानी में मुख्य-पात्र भी केवल दो ही हैं,एक महिला-पात्र जो किसी हाई-प्रोफ़ाइल बिजनेस की सर्वे-सर्वा है,जिनका बिजनेस अमेरिका तक फ़ैला हुआ है.जिस पद पर वे सम्भ्रांत महिला कार्यरत हैं उसी के अनरूप उनका एटीट्यूड है,लाइफ़-स्टाइल है.
उनके पति सेना में कार्य-रत हैं,उनका दिल्ली के पोश इलाके में बंगला है.
वे महिला किसी कार्यवश दिल्ली के लिए फ़्लाइट लेने के लिए,वह भी बिजनेस क्लास में,अपनी हजार व्यस्तता के कारण शायद ऐन समय पर ही एयर्पोर्ट के लिए निकल पाती हैं.
जैसा कि,भारतीय महानगरों का चरित्र है,जगह-जगह जाम,लाल बत्ती का अनावश्यक रूप से ट्रेफ़िक की रफ़्तार को जटिल बनाना,साथ चलते आटो,टेक्सिओं की मारा-मारीअऔर उनमें सफ़रक रने वालों का चम्तकारी रूप से स्वतन्त्र होना,देश की स्वतन्त्रता मेम चार चांद लगाना आदि कितने ही ऐसे ही अज़ीबोगरीब करेक्टर हैं,जिन्हें स्वम ही अनुभव किया जा सकता है.
यह एक अटूट सत्य है,ये अनुभव भारतक ी मिट्टी,हवा,पानी में ही निहित हैं.
स्वाभाविकह ै,उन महिला की फ़्लाइट छूट जाती है,उनका दिल्ली पहुंचना ज़रूरी है,अतःअ पने एट्टीट्यूड के बावजूद के उन्हें किसी इकनोमी फ़्लाइट में यात्रा करनी होती है,साथ उन सहयात्री के साथ जो टिपकल चांदनीचौक वाले हैं,निपट अनोपचारिक,चेहरे से दिल तक चांदनीचौक की च्मक लिये हुए.
यही सहयात्रीइ स कथानक के दूसरे मुख्य पात्र हैं.इनका नाम अनु गुप्ता है.
इस पात्र को जिन अभिनेता ने निभाया है,बखूबी निभाया है.
गुटका के पाउच को मुंह से फ़ाड कर मुंह मे खाली करना,जगह-जगह पीक मारना,कपडों का चुनाव उनके मस्त्मौला स्वभाव का प्रितिबिम्ब है,आत्मविश्यास से ओत-प्रोत बेफ़िक्री का आलम ऐसा कि जंगल में भी शेर समान,सुनसान रास्तों में निडरता के प्रतीक,त्रैन की जंजीर खीचने में बेधडक,बिना टिकट यात्रा करने में पुराने अनुभवी,रिश्वत देने में स्वाभाविक,खाना खाने में दिलदार,चाहे बाल ही न निकल आए,ज़ेब कट गई कोई गम नही(क्योंकि चोर ज़ेब पर भरोसा है)सामान छूट गया,जिन्दगी नही चली गई.
ऐसे करेक्टर शायद फ़िल्मों में ही मिलते हैं,लेकिन यह भी सत्य है फ़िल्मों की कहानिऒं के पात्र भी असली जीवन के हिस्से हैं.
ये दो विरोधी एट्टीटुऊड के पात्र मुम्बई से दिल्ली तक की यात्रा शुरू करते हैं,तकनीकी खराबी के कारंण विमान जयपुर लेंन्ड करता है.
अब, जयपुर से दिल्ली तक की यात्रा उन महिला की अनु गुप्ता के साथ पूरी होती है.
पूरी यात्रा में,अनु गुप्ता अपनी ,जमीन को छूती चारित्रिक ऊंचाइओं को छूते चले गये और महिला सह-यात्रि के अट्टीट्यूड को इस हद तकदधाराशाई करते गये,जहां पहुंच कर वे इन्सानियत की महक को सूंघ पाईं और ओढे हुए एट्टीट्यूड के लबादे को उन सज्जन के दरवाज़े पर जाकर उतार भी आईं.
अपनी निजी ज़िन्दगी की त्रासदिओं के बावज़ूद,वे इनसानियत के सातों रंगों से सरोबार,खुशिओं के इन्द्रधनुष को अपने साथ लिए जीवन यात्रा पर चल रहें हैं.
कोमा में पडी पत्नी के साथ भी जीवंतता के साथ गृहस्थ धर्म निभा रहें हैं.
ऐसा पात्रह में ढूंढते रहना चाहिए---जीने की कला के कुछ गुर तो हाथ लग जांए,अन्यथा जीवन बेबजह बोझ बना रहता है,समझ नहीं आता है,यह बोझ किसका है और कन्धों पर किस लिए टांगे हैं.
                                                                              मन के-मनके

Tuesday, 24 May 2011

याद,अभी ताजी है,छोटी सी एक हठ-हठीली की---

याद अभी ताजी है,
छोटी सी,हठ-हठीली की,
              जाने क्या वो सपना था
               जिसका कोई ओर-छोर न कोना था,
आंसू की बाढ जो छूटी
बांध कौन क्यों पाया था,
                 अपने ही आंसू का मतलब
                 अपने को ही समझ न आया था,
कभी-कभी,एक दिन होता था
एक हठीली हठ के नाम,
                 जिस दिन सारी दुनिया
                 छोटी सी मुट्ठी में आ जाती थी,
हर घर में,एक बाबूजी
एक माताजी होती थीं,
                   जिनकी ममता की छाया के नीचे
                   भविष्य-पीढियाम,वट सरीखी, बढती थीं,
अक्सर ही देर बहुत हो जाती है
उनकी सांसो की गर्माहट छूने में,
                    अपनी अभिलाषाओं के मेले मेम
                    दूर छिटक-भटक कहीं वे जाती हैं,
आज,अगर खिन्नी की छांव तले
इमली के खट्टे-बूटे गाल ---भरे,
                     तोंतो के कुतरे अमरूद-बेर
                     मुट्ठी,झोली मेंबभर जाये,पुनः,
तो गुरुओं के  ठोर निरे
जीवन के रहस्य---घिरे,
                      बहकावों के शब्द-जाल
                       गली-गली,दुकान धोंको की,
सब,राह उसी पर आ जांए
जिन राहों पर,खिन्नी-इमली के पेड खडे,
                       पाने का सीखा गणित बहुत
                       पर,खोया क्याय ह ना जाना है,
आएं,पाठ्शाला एक ऐसी गढें
जहां,सब कुछ पढ,सब बिसरा जांए.
                                                               मन के-मनके
   
     



                                                                                                          

Monday, 23 May 2011

Saturday, 21 May 2011

ओशो कहते हैं---जीवन का मूल्य उतना ही है,जितना मूल्यवान तुम उसे बना सको

जीवन तो एक शिला का तुकडा है-हमें ही मूर्तिकार बनना होगा,अपने पुरुषार्थ रूपी हथोडी व सपने रूपी छेनी से इसमें मूर्ति ढालनी होगी,तभी पत्थर के तुकडे की कीमत आंकी जा सकेगी.
क्राइस्ट,बुद्ध,महावीर आदि ऐसे ही मूर्तिकार थे जिन्होने अपने जीवन को स्वम आकार दिया और उसे मूल्यवान बनाया अन्यथा मानव इतिहास में ये मूर्तियां कहां देखन्पे कोप मिलतीं.
क्या कोई पत्थर के तुकडे की कीमत लगायेगा,हां यदि मूर्तिकार उसी तुकडे में कोई मूर्ति बना दे,तो जरूर कुछ लोग उसे खरीदने आजाएगें,और यदि मूर्तिकार उस पत्थर के तुकडे में कोई महावीर,बुद्ध,कोई क्राइस्फ्ट की मूर्ति बना दे तो सदियों तक उस मूर्ति के ग्राहक बांट जोहते रहेंगे,उसे खरीदने के लिये,किसी भी कीमत पर.

्जीवन का मूल्य

Thursday, 19 May 2011

किस्सा पोने पांच और सवा पांच रुपये का-------


बात कई दशक पहले की है,जब गर्मियों की छुट्टियां पूरे दो महीने की हुआ करती थीं.
तब पूरे दो महीने के लिए गांव जाना होता था.गांव की हवा,धूल भरी आंधियां,गोबर से लिपे-पुते घर,भिनभिनाती हुईं मक्खियां,हर घर से उठती अलग-अलग महक,कितनी यादें हैं,जिन्हें समेटना
ना-मुमकिन है.
उस समय, गांवो में माहौल इतना गुथा हुआ होता था कि घरों की सीमाएं समाप्त हो जातीं थीं.
दो घरों की दीवारें भी विलीन हो जाती थीं.दोपहर में घर की बुज़ुर्ग महिलाएं नाती-पोतों के साथ घर के बाहर बैठ कर दुपहरी गुज़ारा करतीं थी.
उस समय गलियों में फेरी वाले भी घूमा करते थे,कुछ न कुछ बेचने के लिये.
समय काटने का यह तरीका अच्छा होता था.चाहे कुछ खरीदा जाय या ना जाय हर फ़ेरी वाले को बुला कर बैठाया जरूर जाता था.
ऐसा ही एक संस्मरण मुझे याद आ रहा है.जब-जब भी यह याद आता है,अनायास ही होंठों पर मुस्कान फ़ैल जाती है.
एक कपडे बेचने वाला वहां से गुजर रहा था,सो परम्परा के मुताबिक,बुजुर्ग महिलायों ने उसे बिठा लिया और कपडों के थानों को खुलवा कर देखने लगीं. मोल-भाव शुरू हो गया.एक कपडे को करीदने के लिये बात आगे बढने लगी.कपडे बेचने वाला पोने पांच मे देने को राजी था,लेकिन एक बुजुर्ग महिला उसे सवा पांच में लेने को ही राजी थीं.
बहस चलती रही और कपडे वाला अपनी बात पर अडा रहा,बुजुर्ग महिला अपनी बात पर.
आखिर में,वहां से एक समझदार सज्जन वहां से गुज़रे,उन्होने माज़रा जानने की कोशिश की ,बात
उनकी समझ में तुरन्त आ गई.
उन्होंने,उन बुजुर्ग महिला को समझाया,’अम्मा,क्यों बावली हो रही है,यह तो तेरे से कम पैसे मांग रहा है,तू ज़्यादा देने पर उतारू हो रही है.,
देखिए, उस भोले-पन की हद और उस ईमानदारी की सीमा.
इस,बानगी क क्या कहना? अब कोई मिलती है,ऐसी मिसाल?
यही निश्चलता थी जो उस समय के जीवन को जीने योग्य बनाती थी.
आज का जीवन केक्टस की भांति विक्रतियों के हज़ारों काटें लिये हुए है.

Wednesday, 18 May 2011

एक चांद का आना--- याद है,आज भी मुझे

जब गर्मी से चटकी छत पर,
एक हाथ के तकिये पर लेटी,
                 तुम संग-चांदनी(अपनी महक) के,
                 धीरे से,छत पर उतर आए---थे,
मेरी मुंदी-मुंदी आंखों मे,
जगते सपनों के साथ बैठ,
                  धीरे से उंगली फ़ेरी थी,तुमने,
                  मेरी खुली लटों की टहनी पर,
तुम, गुप-चुप से,मुसकाये भी थे,
मेरे होंठो पर रख,उंगली अपनी,
                   धीरे से, मेरे फ़ैले आंचल पर,
                   यूं,लेट गये थे--मनुहारों से,
एक हाथ रख,सीने पर मेरे अपना,
मिचकी-मिचकी,आंखो से,देख रहे थे,तुम मुझको,
                    कहीं सपनों की डोर, टूट गई ना हो,
                    धडकन बन मेरी,मन को मेरे,थामे थे,तुम,
मैं भी बन्द किये आंखो को,
देख रही थी,तुम को पल-पल,
                     प्यार भरी झिडकी से चिहूक,
                     कभी झटक देती थी, मैं तुमको,
तो, कभी बहानों में बह,
भर बांहो में,समेट तुम्हें लेती थी,तुझको,
                      जिस आंचल पर,सिमटे थे तुम,
                      में भी सिमिट गई थी, उस आंचल में,
रार-रीतती,बात-बीतती जाती थी,
तुम भी,धीरे से,उठ उठ गये, दबे पांव थे,
                       मैं भी, आंख मूंद,सोई-जागी सी,
                       तेरे जाते पैरों तक,सिमट गई थी,मैं,
जैसे,हर रात गई, हर भोर हुई,
प्रिय के जाने की बेला आनी ही है,
                         फ़िर एक प्रतिक्छा की पाती में,
                         तेरे आने का सन्देश,भर लाई आंखो में पुनः,
एक चांद का आना--याद है,याद मुझे,
                                                                                                   मन के--मनके
                 
                                                                 

Monday, 16 May 2011

ओशो कहते हैं--समर्पण से बडी घोषणा अपनी मालिकियत की और दूसरी नहीं.

ओशो कहते हैम---
मैं,तभी समर्पित कर सकता हूं जब मैं अपना मालिक स्वम हूं.
इस सन्दर्भ में,ओशो ने डायनीज(जो एक गुलाम था) की कहानी कही है-----
डायनीज,एक गुलाम था,मस्त्मौला,नंगा,फ़कीर. कुछ लोगों ने उसे देखा(वे आठ थे) और उसे पकड कर गुलामों के बाज़ार में बेचने का इरादा बनाया.
प्रश्न यह था,उसे पकडा कैसे जाय,क्योंकि वह शारीरिक रूप से मज़बूत भी था.
इस सन्दर्भ में,ओशो ने एक और सत्य को उजागर किया है,वे कहते हैं----’ध्यान रखें,जो दूसरों को भयभीत करता है,वह भी भीतर से भयभीत होता ही है.,
जब दायोनीज ने देखा,वे आठों लोग उसे पकडने के लिये कितने उपक्रम कर रहें हैं,तब दायोनीज ने उनसे कहा,’इतना उछल-कूद करने की क्या जरूरत है, नासमझो,कह देते तो हम खुदह ी जंजीरों में बंध जाते,.
कुछ देर के बाद दायोनीज ने जंजीरें भी उतार कर फ़ेंक दी,और बडी शान से उन आठों लोगों के आगे चलने लगा.
रास्ते भर वह लोगों से कहता जा रहा था,’क्या देख रहे हो,ये मेरे गुलाम हैं.,
वह बाज़ार भी आ गया जहां गुलाम बेचे जाते थे.अब वे आठों आदमी फ़िर घबडा गये,यह सोच कर कि उसे वहां कैसे लेकर जाया जाय जहां बोली लगाई जाती है.
दायोनीज ने फ़ि उस आदमी को ललकारा,और चिल्लाकर कहा,’आज़ एक मालिक इस बाज़ार में बिकने आया है,जिसको खरीदना है,खरीदले.,
यही ’गीता, का ’कर्म-वाद,है,जो ’निमित-मात्र, पर टिका है,ऐसा निमित होना जो स्वम-स्वीकार्य, हो, जो थोपा गया न हो.
यही ओशो का--जीवन चुनाव नही है,स्वीकार्य-भाव है.
                                                                                       ओशो--सहस्त्र नमनः
                                                                                                                              मन के-मनके

अर्जुन का निमित-मात्र होना------------

महाभारत का घटित होना-भारत के मानवीय इतिहास का वह पृषठ है,जिसके माध्यम से’गीता, का प्रर्दुभाव हुआ,कर्मवाद आस्तित्व में आया,मानवीय धर्मिक-अध्यात्मिक प्रवन्चना को नया आयाम मिला,जीवन जीने की नई विधा ने जन्म लिया.
कृष्न का इन सब घटना-चक्र का सूत्रधार बनना--भी निमित-मात्र था,स्वम-स्वीकारीय्र.
स्थूल-सूछ्म,अध्यात्मिक्ता को,कृष्न ने अपने आलोकिक आयाम से,इस तरह,मानवीय जीवन के छितिज़ पर फ़ैला दिया जैसे कि काले बादलों के बीच ग्यान का इन्द्रधनुष फ़ैल गया हो-पूर्व से पश्चिम तक.
ओशो ने इस अवधारणा को,कि,मानव जीवन में जो भी घटित होता है-क्या उसके लिये मानव निमित-मात्र है--निम्न प्रष्नों के माध्यम से समझाने का प्रयत्न किया है.
पहला प्रष्न--मानव-जीवन में घटित घटनायों के लिये वह निमित मात्र है?
दूसरा प्रष्न--कि जब मनुष्य-जीवन पूर्व-निर्धारित योजना के अधीन चल रहा है तो इस स्थित में मनुष्य को उन घटनाओ का निमित-मात्र मान लेना चाहिये?
तीसरा प्रष्न--जो घट रहा है,वह सब पूर्व नियोजित है तो मनुष्य के लियेश्रेश्ठ विकल्प क्या हो सकता है?
ओशो ने कहा है----इसे,ऐसे समझने की कोशिश करेगें तो बडी सरलता से कुछ सत्य दिखाई पडेगें.
यदि किसी को निमित बनाया जाये त्रो उसका व्यक्तित्व नष्ट हो जाता है. यदि कोई व्यक्ति स्वम निमित बन जाये,तो उसका व्यक्तित्व,खिल उठता है,पूर्ण हो जाता है.
इसी सन्द्भ्र में,ओशो ने,निमित बनाने और निमित बनने में--के अन्तर को--कृष्न के द्वारा अर्जुन को,युध्य के लिये तैयार करना यह कह कर नहीं कि-तुझे युध्य करना ही होगा-वरन यह कह कर कि ’तू जीवन की धारा को समझ, इस जगत की धारा में व्यर्थ उलझ मत, इसमें बह.तब तू पूरा ही खिल जाएगा.
ओशो कहतें हैं--समपर्ण से बडी घोषणा,इस जगत मेम अपनी मालकियत की और दूसरी नहीं.
में तभी समर्पित कर सकता हूं,जब मेम अपना मालिक स्वम हूं, तो इस प्रकार--अर्जुन यन्त्रवत नहीं हो जाता,वरन वह आत्म्सात हो जाता है.
                                                                         ओशो--सहस्त्र नमनः
                                                                                                                 मन के-मनके

Sunday, 15 May 2011

बिना शीर्षक------

सिर को अपने कंधों पर,टिकाये रहिये,
नज़रों को, दूर छितिज तलक,लगाये रहिये,
                          हाथों की कसी मुट्ठियां,ढीली होने न पायें,
                          दगमगाने न पायें पेरों के----------कदम,
ज़िन्दगी के पडाव बाकी हैं ,काफ़ी,
कोई ज़ाम,हाथॊं से छलकने न पाये,
                           हर ज़ाम मे साकी(जीवन)की,
                           थोडी सी,मधुशाला है बाकी,
जीवन की सूखी रेत को,
आशायों की ओस से,नम करना है बाकी
                           सपनों के कुछ बीज जोहैं शेष अभी,
                          उनको भी तो,अंकुरित करना है ,बाकी,
इस बाग के माली हैं, हम,
पतझड के झोकों से, उसे बचाना है बाकी,
                           कोयल की कू-कू को अभी,जी भर जी न पाये,
                           उसे भी तो अभी,जीना है बाकी-------------,
भंवरों की गुन-गुन को अभी जी भर पी न पाये,
उसे भी तो अभी पीना है बाकी,
                             तितलियों के पंखो की रंगीनियत को भी,
                             उंगलियों की पोरों से छूना है बाकी---
माथे पर आईं, वक्त की---लकीरों को,
पढ कर------------जीना है, बाकी,
                              साल-दर-साल, बढती झुर्रियों में,
                              ज़िन्दगी की इबारत को अभी,पढना है,बाकी,
अब तलक जीते रहे,बहानों को, जीने के लिये,
मकसदों के रात-दिन-----------जीना है बाकी,
                              अक्सर, राह चलते कहते हैं लोग,
                               हाथों के ज़ाम हो गये हैं खाली,

रीती ज़िन्दगी की मधु की बूंदो को झटक,
रीत क्यों नही देते, हाथों से इनको,           
                               अब तक जो  भी पी,
                                पी वो औरों की मधुशाला की मधु,
मेरी मधुशाला तो यूं ही रही,
मेरे हाथों के ज़ामॊ में,खाली-खाली,
                               अब तलक उसको होठों तक लाया ही नहीं,
                               सुरूर उसका---------पलकों तक छाया ही नहीं,
हर नुक्कड पर खुले हैं,दरवाज़े,मधुशालाओं के,
दरवाजों के अंदर अभी---झांका ही नहीं,
                                जब-तलक,सांसो का तार,जग्मग है,पास मेरे,
                                तब-तलक,मेरी साकी का,ज़ाम बाकी है,भरा-भरा,
                                                                                                                 मन के-मनके
                               

                  

Wednesday, 11 May 2011

रास्ते चल रहे थे

रास्ते चल रहे थे----
             रास्ते चल रहे थे,
             हम भी हो लिये,साथ उनके
             कुछ,हसरतें थी,साथ मेरे
             कुछ,पलकों पर साधॆ हुए थे हम
                        कुछ,हसरतें मुट्ठी में भी थीं बंद
                        तॊ,कुछ फ़िसलकर,अपने ही ,                                    
                        पैरों तले,धूल हो गईं
                      सपनों के दरमियां,तुम भी साथ चल पडॆ
                                        कोई बात नहीं,गर दो कदम ही थे,
                                        तुम---------साथ मेरे,
                        तुम्हारी हथेलियों सॆ उठती हुई सांसे,
                        मेरी सांसॊं में,यूं घुल रही है,
                   जैसे कहीं से उठ रही है, महक
                    चंदन के दरख्त
                       मुझे,मालूम है
                       इस साथ की हकीकत,
                                         फिर भी,चन्द रातों की खुशबुएं
                                         महकाती रहेंगी,मेरे राहे गुज़र के
                                          क्या-क्या,और किस-किस का,
                                          करें गम और किससे करें शिकायत                               
            हम तो, फूलों के साथ
            चंद कांटॊं की भी रखते हैं,हसरतें.    


                                                                              मन के--मनके                            
                                                                                             

Sunday, 8 May 2011

जीवन, चुनाव-भाव नहीं है---स्वीकार-भाव है---

ओशो कहतें हैं-चुनने की ज़रूरत नहीं,बनो तो,’ज़ोरबा द बुद्धा बनो,.
जीवन में दोनों ही रंग होने चाहिये,अध्यात्मिकता का और भौतिक्वादिता का भी.
भौतिक्वाद तो हमारे शरीर का आधार है,उसे हम कैसे त्याग सकते हैं.
शरीर ही तो वह द्वार है,जहां के प्रवेश द्वार से हम अध्यात्म-भवन तक पहुंचते हैं.
सीधी सी बात-----
                                   भूखे पेट न होये गोपाला,
                                   ले लो,अपनी कंठी-माला,
शरीर के आयाम से भी उठना आवश्यक है,मनुष्यता को पाने के लिये,अन्यथा हम निम्न योनि की ओर उन्मुख होने  लंगेगे-परिणामतः इस योनि तक आने के लिये,जो हमने निम्न योनियों की पीडाओं की यात्राएं की हैं,वे सब व्यर्थ हो जायेंगी.
अतः,अध्यात्मिकता का मार्ग हमें परमान्द तक ले जाता है, अंतः मुक्ति-मार्ग से मोक्छ तक.
सब पीडाओं व यन्त्रणाओं से मुक्ति ही,परमात्मा से मिलन है.
अतः, ओशो- शरीर-आत्मा, दोनों आयामों को ऐक मार्ग मान कर,मुक्ति की यात्रा पर चलने के लिये आवाहन करते हैं.
                                          ओशो कहते हैं---ईश्वर के हर उपहारों को दोमों हाथों से थामों,माथे से लगाओ, और मुक्तहो  जाओ.

Friday, 6 May 2011

कौन है, तू

भोर-सुबह,बन-बनी,बयार
                तू
कलियों के,खोले है द्वार-द्वार
               होले से
दो पन्खडियों के पट उढ्काये से
               ड्योढी पर
आगुंतक-अनजाना साबन,खडा है,तू
                चुपके से
नीम तले---खडी हूं,मैं
               छुप कर
तुझे,देखती रहती हूं, मैं
                कान लगा
सुनती,विभोर सी,आहट तेरे कदमों की
                 तभी
नीम-निबोरी सा टपका
                मेरी
फ़ैली झोली में तू
             आंख मूंद
(नीम-निबोरी) मिश्री सी,मन आतुर है,मुंह में रखने को
                                 कभी
तितली बन,उड आया तू
            बैठ
मेरी खुली हथेली---पर
              शब्द मेरे
बे-अर्थ ,कर ---गया
          अविष्कार
अद्बभुत बन- रंगों का,तू
               बागों में
गुन-गुन सी,बन भंवरों की
                हरदम
ना जाने, कहां-कहां मडराता,तू
                 कभी
बन, ओस-भोर की
           भिगो गया
मेरे, तलुवों को तू
               तो
आसमान में
विहगों की बन उडान
बिन -डोर,पतंग सा
           ओझल
हो गया है, तू
            तो
स्निग्ध-सुवासित सा, हो
               कभी
घुल गया बयारों में,तू
                तो,कभी
मन मेम दबे,प्रेम-गीत सा
                बिखर गया
होंठो पर,मेरे---तू
बांट जोहती,प्रियतम की
               बन गया
विरह-गीत प्रेमी का,तू
                 तो
कभी,बिखर गया,पीला सा तू
                 फैले
सरसों के---मीलों, खेतों में,तू
                 चकित कर गया

समझ नहीं आता-मन को
                इतना
रंग-पीला, लाया कहां से,तू
                आग उगलता
अमलतास---में, तू
                   तो
गुल्मोहर के ठंडे शोले सा
                राहों पर
बिछ गया,दरी सा,स्वागत में,मेरे तू
                जैसे
ड्योढीपर,आया हो निज-कोई
                 जहां भी मेम
जाती हूं,दबे पांव,संग मेरे हो लेता है, तू
                  कब से
मित्र बना है, तू मेरा
                   याद
मुझे भी ना आता है,तू
                  फिर भी
हर-पल, गुम सा हो जाता,तू
                  कहां-कहां
ढूंढू मैं, तुझको-----
                  बस
अपने को,अपने में ही ढूंढू
                 आत्मसात
कर तुझको,स्वम में ही पा जाऊं मैं
                                                                                  मन के-मनके
                                                                                                                    
                                     

Monday, 2 May 2011

ओशो---परमात्मा की खोज

ऐक प्रश्न- परमात्मा को कैसे याद करें?
ओशो के अनुसार-- यह प्रश्न अपने-आप में बडा ही भारी-भरकम है.
इन्सान, अभी स्वम को ही नही जान पाया है.सदियां बीत गईं,खोजें जारी हैं. अब,भला जो दिखाई न दे,उसे कैसे जानें.
 मेंज पर्रखी पुस्तक को छूना सम्भव है,उसके पन्नों को पलटना भी सम्भव है,चाहे भाषा की जानकारी हो या न हो.कभी-कभी कुछ महानुभाव भाषा सीख कर उसे पढ भी लेते हैं
इस पढाई को भी ओशो ने सहज कर दिया,स्वाभाविक बना दिया,सर्व-प्राप्त कर दिया,बशर्ते ओशो के कहे को मान पायें और उस मार्ग पर चल पायें.
  ओशो तो अपना दायित्व निभा रहे हैं,जाने के बाद भी.अब हम कब अपना फ़र्ज़ पूरा करेंगे.
 उक्त ऐक प्रश्न ने और प्रश्नों को जन्म दे दिया.
इस दिशा में ओशो ने बडी सहजता से तीन मार्ग सुझाये हैं, साथ ही कुछ पूर्व स्वीकृत सडे,गले मार्गों पर जाने की मनाही भी की है.
ओशो के अनुसार,
पहला मार्ग--जीवन को मधुशाला समझो.प्रितिदिन आओ, छक कर पियो. भूल जाओ खुद को भी,ईश्वर को भी.
                       फूलों की जो गन्ध चुरा ले और भंवरों सा जो झूम रहा हो
                       गम से जिसका कोईन  नाता हो,खुशियां देने जो घूम रहा हो
                       देखी जो गैरों की खुशियां,अपनी किस्मत चूम रहा  हो
                       उसी प्याले में पैमाना भर-भरकर के,ढाला--------जाये
                                                                                              (समीर लाल-ब्लागर)
दूसरा रास्ता--ओशो के अनुसार
सीधे शब्दों में जीवन मिला है ,इसे दुख-सुख के साथ स्वीकार करें.
जीवन रूपी मधुशाला में मधुपान करते-करते हम सत्संग में लीन हो जांये.
                                      मैं भी पी रहा हूं, तू भी पी
                                      मैं भी जी रहा हूं,तू भी जी
                                                                                      मन के-मनके