आइये एक कहानी कहते हैं----
मल्टीमीडिया के आने के बाद हमारे जीवन से कहानियां कहने व सुनाने का रिवाज ही लुप्त हो गया है
करीब ५,६ दशक पहले के ये किस्से हैं जो सुनाने जा रही हूँ--हममें से आज भी कई होंगे मेरे जैसे जिन्हें याद होगें वो किस्से कहानियां जो,उन्होंने सुने होंगे अपनों से ,जब घर के कामों से फुरसत हुई होगी और गर्मियों में छत पर बिस्तरों की कतारें बिछ गईं होंगी.
जाड़ों की लम्बी,लम्बी रातों में मोटी,मोटी रजाइयों में दुबके सुनते थे हम और ना जाने कब सो जाते थे ,कहानियां सुनाने वाले कहानियों में खो जाते थे.
छोटे थे बड़ों से किस्से सुना करते थे ,अब बड़े हो गए हैं , जो जीवन जिया वो ही कहानियों किस्सों जैसा लगने लगा है.
मन करता है सुनाऊँ उसी लहजे में जिस लहजे में सूना करते थे ,पर अब ना तो छतें रहीं ना ही बिस्तरों की कतारें ना ही मोटी,मोटी रजाइयां और जाड़ों की लम्बी,लम्बी रातें .
किस्से यूं कि---
जैसे किसी सुनहरे द्वीप की कहानी हो---
कि, हमारे जमाने में दो रूपए का एक सेर असली घी आ जाता था--
हमारे जमाने में दो रूपए का गाडी भर अनाज आ जाता था--
और ,इसी सन्दर्भ में कुछ किस्से तो हमने भी जिए हैं--
दस,बारह आने की एक सेर ,चीनी हम भी खरीद कर लाते थेअखबार की रद्दी से बने लिफ़ाफ़े में.
रोज दो,चार मेहमानों की थालियाँ हमने भी परोसी हैं,रसोई समेटने के बाद .
साल में आठ ,दस त्योहारों पर काढाइयां गर्म होती हमने भी देखींहैं . घर के कामगारों के लिए पकवानों के परोसे हमने भी निकाले हैं ,सम्मान के साथ .
आज परिवारों की परिभाषा ही बदल गयी है. बदल ही नहीं गयी है ,बल्कि ,चकनाचूर हो गयी है .
लगता था परिवार नहीं है रिश्तों का एक पिरामिड है--जहां,हरउम्र के रिश्ते अपनी, अपनी महक के साथ जीवंत थे .
जीवन में गति तो चाहिए परन्तु टकराहट नहीं . इससे जीवन का रस रीत जाता है .
प्रस्तुत संस्मरण मेरी पुस्तक---खुशबुएँ सूखे फूलों की से प्रस्तुत किया गया है.
धन्यवाद :
आगे भी--