Saturday, 31 December 2011

साल २०११,जाने को है----


तुम,आखरी रात,गुज़ारोगी
आज,मेरे सहन में---
                    जब,पहले दिन,ड्योढी पर,मेरे
                    पडे थे,महावरी,तुम्हारे कदम
                    तुमने,धान से भरे कलश को
                    सिंदूरी अंगूठे से उढकाया था,यूं
                                          जैसे कि,ब्याह कर लाया था
                                          वक्त,रख कर सेहरा-झूमरी
                                          भाल पर,आशाओं का लगाए तिलक
                                          ओंठो पर,छोटी सी,मुस्कान लिए
तुम,आखरी रात,गुज़ारोगी
आज,मेरे सहन में----
                     तुम,ड्योढी पर, खडी थीं,पलकों को झुकाए
                     आंखो मे,मोती की लडियां लिए—
                     मैंने भी,बांहो में भर,तुमको अपने---
                     दो कदम,साथ लेकर तुम्हे,सहन तक,आई थी,मैं
                                        चाबियों के गुछ्छे को,अपने आंचल से,खोल
                                        मेंहदी से महकती हथेलियों पर रख,चूमा था तु्म्हे
                                       क्योंकि,वक्त का तकाज़ा था,यही---
                                       चूंकि, मेरे भविष्य की,धाती थीं तुम
तुम,आखरी रात,गुजारोगी
आज,मेरे सहन में---
                         तुमने भी,उन चाबियों के गुछ्छे को
                         रखा था,बांधे,जतन से बडे------
                         सहेजे(वक्त के)खज़ाने को नज़रों तले
                         कुछ खनकते सिक्कों को भी,तुमने जोडा भी था
तुम,आखरी रात,गुज़ारोगी
आज,मेरे सहन में----
                                        बहुत कुछ और भी सहेजा था,वक्त से,तुमने
                                        परंतु,कुछ खोना भी था.तकाज़ा वक्त का
                                        कुछ आंसुऒं को,पीना भी था,सब्र से---
                                        कुछ आहों को भी,सांसों में,जीना भी था ज़रूरी
                    कुछ मिलन के,उत्सव भी लाईं थी,समेटे
                    आंगन में,मेरे,ढोलक की थापों पर सहेजे
                    तो,कुछ विछोह की पीडा को भी----
                    दे जाना था,तुम्हें,यह भी था तकाज़ा वक्त का
तुम,आखरी रात,गुजारोगी
आज,मेरे सहन में----
                                                    मन के--मनके                                                   

Sunday, 25 December 2011

क्या हमारा प्रारब्ध,कंप्यूटराइज्ड है?


कल अचानक,सोने से पूर्व,मष्तिस्क में एक विचार कोंधा—एक शक्ति,एक प्रोग्राम है,हम सब की जीवन-दिशा निश्चित करने के लिये.
  आस-पास बहती जीवन-धाराएं किस बहाव की ओर बह रहीं हैं,हर धारा पूर्व-नियोजित कार्यक्रम में बंधी सी लगती है.प्रयत्न किस दिशा में किये गये,परिणाम क्या मिले,किसी यत्रा पर जाते हुए कोई मिल गया और उसने आपकी यात्रा का प्रयोजन ही बदल दिया. जीवन के प्रयोजन भी,लगता है,कोई निश्चित कर रहा है,यही कारण है कि हर कोई बुद्ध नही हो पाया,हर कोई अंगुलिमाल नहीं.
  ये,जीवन-यात्राएं,एक गंतव्य से प्रारंभ होते हुए भी पहुंच कहां जाती हैं,यह जीवन का रहस्य है,जीवन का सत्य है,जीवन-दर्शन है.
  मैं,इन सभी जीवन-दर्शन को इन शब्दों में बांधती हूं—हमारा प्रारब्ध हमारे पिछले जन्मों का हिसाब-किताब है.
 प्रारब्ध की इसी पूर्व-नियोजित प्रोग्रामिंग को एक छोटी सी कहानी में पिरोने की कोशिश कर रही हूं.
  कहीं किसी टापू पर, तीन मित्र रहते थे.तीनों ही अपनी-अपनी छोटी सी दुनिया में खुश थे. अपने धान के खेतों मे मेहनत करके वे अपने-अपने परिवारों का भरण-पोषण करते थे.जहां वे रहते थे,वहां से कुछ दूरी पर एक छोटा सा टापू था जो चारों ओर से समुद्र के नीले पानी से घिरा हुआ था,समुंद्र के किनारे-किनारे नारियल के पेडो की कतारें फैली हुई थीं.इसके अलावा आस-पास फैले वनों में, भिविन्न प्रकार के पशु-पक्षी ,विचरण करते थे,जिनका वहां के निवासिओं के साथ सौहार्द-पूर्ण संबन्ध था.समुंद्र के किनारे,रेत की चादर बिछी हुई थी जो चांदनी रात में चांदी की तरह चमकती थी. लगता था,पृथ्वी पर स्वर्ग का छोटा सा टुकडा उतर आया हो.
   एक सुबह,जब तीनों अपने-अपने खेतों की ओर जा रहे थे तो उनमें से एक मित्र ने रात में देखे सपने के बारे में अन्य मित्रों को बताया.
  सपना यूं था----
   जब मैं गहरी नींद में सो रहा था,तब अचानक मेरी बंद आंखों में प्रकाश फैल गया,कुछ क्षण बाद उस प्रकाश में से दूधिया वस्त्रों में,सफ़ेद लहराती दाढी वाले महात्मा प्रकट हुए.वे मुस्कुरा रहे थे,उनकी आंखें मेरे चेहरे पर टिकी हुई थीं.
  कुछ क्षण के लिये मैं घबडा गया,तभी उन्होंने अपना हाथ मेरे कंधे पर रखते हुए मुझे आश्वत्व किया,और कहने लगे—घबराओ मत,मैं एक संदेश लेकर तुम्हारे पास आया हूं.यह संदेश केवल तुम्हारे लिये है. मैं चाहता हूं कि तुम और अमीर बनो,और अधिक खुशहाल हो.
  इसके लिये एक उपाय है—यदि तुम इस टापू की सीमा के पार जाओ तो तुम्हे एक दूसरा टापू मिलेगा, जो इस टापू से भी सुंदर है,वहां की मिट्टी यहां से भी अधिक उपजाऊ है,तुम यहां से अधिक धान उगा पाओगे.इसके अलावा,समुंद्र किनारे की रेत पर सुद्ध सोने के कण बिखरे पडे हैं,जिन्हे छान कर,तुम जितना चाहो सोना इक्क्ठा कर सकते हो.
   सपना इतना सुंदर व संभावनाओं से भरा था कि बाकी दोनों मित्रों के मन में भी इस सपने को साकार करने की लालसा जाग उठी.
  सपने को सुनते-सुनाते दिन बीत गया.धान के खेतों में कोई काम न हुआ.आठ-दस दिन इसी माथा-पच्ची में बीत गए कि उस टापू तक जाया कैसे जाय,किस साधन से जाया जाय.
   और इस तरह कुछ दिन और गुज़र गये,धान के खेत सूखने लगे,अब तीनों मित्रों को इन खेतों से कोई सरोकार नहीं रहा,वे तो मृग-मरीचिका की चकाचोंध में कुछ भी देख नही पा रहे थे.
  आखिरकार,तीनों मित्रों ने निर्णय लिया  कि वे अपनी पत्नियों के गहने बेच कर, एक नाव बनाएंगे और अनजाने टापू की यात्रा पर निकल जाएंगे.जब भी वे वहां से लौटेगे,उनके पास इतना धन होगा कि वे दुबारा गहने बनवा सकेगें,साथ ही उनके पास एक और टापू का खजाना भी हाथ लग जायेगा.
   नाव बनाने व अन्य तैयारियों में दो-तीन माह बीत गये.इस बीच धान के खेत घास बन गये,पत्नियों के गहने बिक गये. घर में बचा धान अपने परिवार की गुज़र-बसर के लिये छोड कर,वे तीनों मित्र,एक सुबह,अपनी उस यात्रा पर निकल लिये,जिसे उन तीनों के प्रारब्ध ने,उन तीनों के लिये तय कर रखा था.
कुछ दिनों तक,वे शांत समुंद्र में यात्रा करते रहे.यात्रा में कोई कष्ट नहीं था,लग रहा था,समुंद्र की लहरें व बहती हवाएं भी उनका साथ दे रहीं हैं. उन्हें भी लग रहा था कि स्वप्न में दिखे संत का आशीर्वाद भी उनके साथ है.
   हर सुबह वे तीनों,आने वाली मंजिल की ओर बढ रहे थे और अपनी-अपनी बंद मुट्ठियों में,अनजान खजाने को महसूस कर रहे थे.
      कुछ दिनों तक,वे शांत समुंद्र में यात्रा करते रहे.लगता था,समुंद्र की लहरें व बहती हवाएं,उनका साथ दे रहीं हैं और उन्हें लगा,स्वप्न में दिखे संत का भी आशीर्वाद भी उनके साथ है.
  हर सुबह,वे तीनों आने वाली मंजिल की ओर बढे जा रहे थे और अपनी-अपनी मुठ्ठियों में,अनजान खज़ाने को महसूस कर रहे थे.
  परंतु,दस दिन शांत समुंद्र में यात्रा करते हुए,एक रात,उनको मूसलाधार बारिश का सामना करना पडा.सुबह होते-होते,समुम्द्र की लहरें,उनको अह्सास कराने लगीं,जैसे,चीख-चीख कर कह रहीं हो---
अरे,मूर्खो,तुम तीनों ही अपने-अपने प्रारब्ध के षडयंत्र में फंस चुके हो.अब देखना है—कौन कहां,जाता है?
   दो दिनों तक,वे इस तूफान को झेलते रहे.अब तो वह सपना भी,उनके मस्तिष्क में, समुंद्र के खारे पानी जैसा खारा हो चला था,जिसके पीछे चलके वे बीच समुंद्र में आ गये थे,और केवल दो सत्य ही उनके साथ थे—जीवन और मृत्यु.
तीसरे दिन,वे तीनों केवल कुछ सांसों के साथ बह रहे रहे थे.
  अचानक,लहरों का तूफानी रेला आया और उनकी नाव पलट गई.कुछ क्षण के लिए, उनकी नाव समुंद्र की विकराल लहरों के साथ उलटी बहती रही,उन तीनों का वहां कोई आस्तित्व नज़र नहीं आ रहा था.
 अगले रोज़,अचानक,समुंद्र शांत हो गया कि—एक अदृश्य शक्ति ने इशारा कर दिया हो—शांत हो जाओ.
   तब तक,पूर्व दिशा से,उगते सूर्य ने,समुंद्र के ऊपर,अपनी लाल-नारंगी किरणें बिखेर दीं.चारों ओर नारंगी-लाल रंग की साडियां फैहराने लगीं—एक अद्भुभुत दृश्य—स्वप्न सरीखा.
जिस आदमी ने स्वप्न देखा था,वह लकडी के छोटे से तख्ते पर मरनासन्न लेटा हुआ बहता चला जा रहा था.उसकी सांसे चल रहीं थी—दूसरे छोर पर उनकी नाव अभी भी उलती बही चली जा रही थी.अन्य दो साथी,अपने-अपने प्रारब्ध के शिकार हो चुके थे.
  मेरी यह कहानी यहीं समाप्त होती है क्योंकि,मुझे पता नहीं,किनारे पहुचने वाले व्यक्ति ने वहां धान की खेती की या नहीं,समुंद्र के रेत को छान कर,सोना इक्कठा किया या नहीं?
  हां,मैंने यह अवश्य जाना कि स्वप्न में संत के भेष में,उन तीनों का प्रारब्ध आया था,जो उन्हें वहां ले गया,जहां पंहुचने की उनकी प्रोग्रामिंग हुई थी.
                                             मन के--मनके