रिश्तों का कोई नाम नहीं होता,कोई पहचान नहीं होती.
हर रिश्ता, निजत्व के लिये होता है, निजत्व के लिये जिया जाता है.
कोई दो, एक रिश्ते को अपनी-अपनी अनुभूतियों में जीते हैं.
वही रिश्ता, दो में से,एक के लिये , फूल की महक बन , उम्र-भर को महकाता रहता है.
तो,वही रिश्ता, एक चुनौती बन, पत्थरों को तोड,आंसुओं की धार से,सूखी ज़मीन को नम कर देता है.
तो, वही रिश्ता ,कोई ईमानदारी से जीता है और पीडाओं को अपना प्रारब्ध समझ ,उसे आंसुओं में,पी लेता है.
तो, वही रिश्ता—कोई नाव बना,अपने झंझावत की नदी को पार कर लेता है और उस पार पंहुच,उसे तोड कर,अपनी ठंडी रातों को गर्म करने के लिये फूंक भी देता है.
आंए, सोचे,हम रिश्तों को कैसे जीते हैं,अपनी अंतरात्मा से रूबरू हो लें.
हम,पथ के राही से,
कभी मिले,अनजानों से,तो
विलग हुए,अपनों से भी हम
कभी आंचल में,सिमटे सपने
बिखर गए,अपनी ड्योढी पर—क्यों?
कभी धूल भरी पगडंडी को
अश्रुधारा से कर,सिंचित—
पछतावे के शूलों को भी
पलकों की कोरों पर,रख लिया है—क्यों?
कभी,राहों पर,खिले प्रेम-पुष्प
हृदय-शिराओं से कर,सिंचित
रोंद चले,पग-पग,दंभी कदमों से
ले,कांधों पर, पछतावों की रीती- गागर—क्यों?
कभी,रिश्ते,दौड रहे,रक्त-शिराओं में
कोरे दस्तावेज़ों में, कैद हुए—
कुछ रिश्ते, खाली गमलों में
फूट पडे, बालकनी के कोने में—क्यों?
मन के-मनके