Wednesday, 28 May 2014

प्रेम एक सेतु है---उससे होकर गुजर जाओ





        प्रेम एक सेतु है---उससे होकर गुजर जाओ
(ओशो---प्रेम है अहंकार की मृत्यु,साभार—सहज जीवन)
महान सम्राट अकबर ने भारत की एक छोटी सी पर बहुत सुंदर राजधानी बनवाई.उसका कभी भी उपयोग नहीं किया गया क्योंकि उसके पूरे होने से पूर्व ही अकबर मर गया. वह अभी तक योजनानुसार बनाए गये नगरों में से एक बहुत सुंदर नगर है---और वह कभी भी उपयोग में नहीं लाया गया. उस जगह का नाम फतहपुर सीकरी है
उसमें हर छोटी से छोटी चीज का विस्तृत रूप से ख्याल रखा गया. उन दिनों के महान वास्तुकारों और महान सद्गुरुओं से विचारविमर्श करते हुए उनके परामर्श लिये गये.
अकबर ने उन दिनों के सभी महान शिक्षकों से एक छोटा सा वाक्य देने को कहा,जिसे प्रवेश-द्वार पर लिखा जा सके.
फतेहपुर सीकरी जाने के लिये एक नदी पार करनी होती है,जिस पर बना पुल वहां ले जाता था और अकबर ने उस पुल के अंत में एक बहुत सुंदर और विशाल प्रवेश द्वार बनवाया था.किसी सूफ़ी ने जीसस की एक सू्क्ति को उस पर लिखने का सुझाव दिया. वह उस सूक्ति से बहुत प्रेम करता था.उसे बहुत सी सूक्तियों के सुझाव दिये गये थे,लेकिन उसे जीसस की सूक्ति ही बहुत प्यारी लगी और वही सूक्ति लिखी गई.वह वाक्य बहुत सुंदर है-----यह बताता है---
“ जीवन एक सेतु है—उससे होकर गुजरो,लेकिन उस पर अपना घर मत बनाओ.”
प्रेम भी एक सेतु है—उससे होकर गुजर जाओ.

Friday, 23 May 2014

मां मनीषा पुणे से कहती हैं--




Maa Maneesha from Pune---
In fact,reading His words is more like listening- to music---or wine-tasting---take a sip---smell the bouquet and allow the flavor  tickle your spiritual palate.
Here an humble approach,from my being as it always been taken into a state of trance, an ecstacy,a state of non-beingness whenever I take a dip into The Oshonic-Ocean----everytime trying to pick up some pearls of mysticism----and sometime could and sometime not.
                                                             Man ke-manke

कुछ शब्दों को ढूंढा है,ओशो महासागर में डुबकी लगाती रहती हूं---कुछ पा पाती हूं----अक्सर खुद को खो आती हूं.


. ये,नदियों के ऊपर
टिके हुए पुल---
पुलों से गुजरते हुए,
काफिले----
जिंदगियों के,
जरूरी तो हैं?
गर,बह्ती, नीचे ना होती, धार
जीवन की,
पुल---
सांसों की कब्रों पर,
लिखे हुए,कुछ हाशिये हैं
दफ़न हुई सांसों पर
बोझ हैं----
पत्थरों के.
Man is not a being but a bridge----when you become light,when light becomes your being---you become a being.
२.थामे उंगलियों को
मां की---
चलना तो, सीखना जरूरी है
पर---
जब ये उंगलियां बन जांय
मुट्ठियां----तो
कदमों की आहटें सहम जाती हैं
सपनों की स्याही से खीची लकीरें
छोटी हो जाती है
लेने-देने के आंचल से पुछ जाती हैं.
                   मां,अब हाथ छोड भी दो,मेरा
                   अब मुझे,चलना आ गया है
                   मां,अब फिक्र छोड भी दो,मे्री
                  मुझे,गिर कर संभलना आ गया है
                  अब,मुझे घोंसले के बाहर जाने दो
                  अपना दाना,चुनने दो, मुझे
                  इस घोंसले के बाहर,झांकने दो,मुझे
                  नीला आसमान----बुला रहा है,मुझे
                  मुझे,मेरे पंखों की पहचान करनी है
                  अपना घोंसला बनाना है,मुझे
                  पाती में, प्यार के----
                  भेजता रहूंगा,संदेश
                  हर एक इंद्रधनुष,नया है
                 रंग,बे-शक पुराने हों
                 उनमें से एक इंद्रधनुष,अब
                 मेरा भी है-----
People are miserable because they have decided to resist.From this moment,don’t resist,then bliss is as natural as breathing.


 
 

Sunday, 18 May 2014

स्मृतियों के भोजपत्रों पर----मातृत्व के फूल





प्रिय राजीव,
इतने वर्ष मुट्ठी से यूं सरक गये कि मुट्ठी को देखने का साहस नहीं हुआ,
सोचती हूं ,इतना लंबा वक्त रेत की नाईं कहां सरक गया!!!
यूं तो मैं तुम्हारी मां हूं,परंतु कभी-कभी ’मां’ शब्द बडा ही कन्फूजन वाला हो जाता है---मां,मां,मां----
जितनी बार कहो,हर बार अलग-अलग रूप में आकर सामने खडा हो जाता है.
मां यशोदा कान्हा की मां नहीं थी,धाती थीं,फिर भी उन्होंने जन्मदात्री से बडा स्थान पा लिया.
इसी प्रकार,छत्रपति शिवाजी की मां,जीजाबाई,जिन्होंने ’मा’ शब्द को अलग रूप से परिभाषित किया.
एक मां, कोमलता की सीमा को लांघ गयी तो दूसरी ने कठोरता की अभेद किलेबंदी की.
मैं समझती हूं ---’मां’ तो केवल ’मां’ होती है,इतनी विराट कि जैसे बाल कृष्ण ने अपने खुले मुख में,पूरी सृष्टि ही दिखा दी हो!!!
’मां’ की सार्थकता को ढूंढा नहीं जा सकता ना ही सिद्ध किया जा सकता है,ना ही उसकी सार्थकता के सामने प्रश्न चिन्ह लगाए जा सकते हैं.
मैं, आज भी उन क्षणों की व्याकुलता को,उतनी ही व्याकुलता से महसूस कर पा रही हूं,जितना कि करीब ४०-४५ वर्ष बाद.
घटना सन १९७२ की है,हम लोग कुछ समय पूर्व ही आगरा से दिल्ली शिफ्ट हुए थे.प्रगति मैदान में पहली बार एशियाड मेला लगा हुआ था.वहां जापान की टोय ट्रेन लगाई हुई थी जो बच्चों के लिये एक बहुत बडा आर्कषण था.
किसी लापरवाही के कारण,तुम ट्रेन से उतर कर गलत दिशा की ओर चले गये और हम लोग दूसरी ओर तुम्हारा इंतजार करते रहे.
कुछ देर इंतजार के बाद,जब तुम कहीं नजर नहीं आये तो मैं व्यकुल हो उठी और अपने को रोक नहीं पाई,तभी अंतर्मन में एक शंका ने जन्म लिया और मेरा मन संशकित हो उठा.
अचानक,कोई एक ऐसी शक्ति थी, जो मुझे उस ओर लेकर जा रही थी जिस ओर तुम रोते हुए,लोगों की भीड में ओझल होते जा रहे थे.
एक ऐसी शक्ति अवश्य होती है या कि एक डोर जो मां को उसके बच्चे से जोडती है.
उस क्षण जो व्याकुलता,बैचेनी और ना जाने कैसी-कैसी शंकाएं नित-पल जन्म ले रहीं थीं----लगता था मेरे आस्तित्व का एक अंश मुझसे कट रहा है ,और---दूर हो रहा है.
वो नीले रंग की जेकेट ,सही मायने में उसका रंग रोयल-ब्लू कहा जा सकता है,जो तुम उस समय पहने थे,वो रंग आज भी हजारों रंगों में से अलग से पहचान सकती हूं.
तुम्हारा---,मम्मी-मम्मी,कहते हुए---भीड में ओझल होते जाना---वो पुकार--- आज भी मेरे कानों में गूंजती रहती है---जब भी तुम भावात्मक डोर से मुझसे छिटकने लगते हो-----
इसके बाद,कितनी बार ऐसे क्षण आये---रातॊ की नींद चली गई,खाना बेस्वाद हो गया---एक कोशिश---कि जो कुछ भी मेरा है, वह तुम्हारा हो जाय और तुम सुकून में आ जाओ----कहीं खो ना जाओ----
इस ,मां, की अभिव्यक्ति कुछ अलग जरूर है----लेकिन, अनुभूति तो केवल एक ही है, जो सिर्फ एक मां की हो सकती है.
मेरा मानना है,मां की अपनी अभिव्यक्ति जो उसकी जन्मदात्री के रूप में होती है---जो उसके आस्तिव के बीज में विद्धमान है,वह कभी भी उससे टूटना नहीं चाहती है, क्योंकि वही उसका पूर्णता है.
उस घटना ने, दो स्मृतियां मेरे मानस-पटल पर ऐसे अंकित कर दी हैं, जैसे कि किसी शिला पर छपे दो पद-चिन्ह----एक,तुम्हारी जेकेट का रायल-ब्लू रंग और दूसरा ’मम्मी-मम्मी’ की दूर जाती तुम्हारी आवाज------
                                        तुम्हारी मम्मी