सपनों की,कश्ती को बहने दो
उगते सूरज के सुर्ख लाल-रंग में
होली,फ़ाग की,खेलने दो---
धार जो,ठहर सी गई है,फ़ागों की
रंगों के चप्पू से
उसे जरा,भीगने तो दो
सुबह की बेला हो---
विहगों की परवाज़,थमे नहीं
कुछ दाने,आमंत्रण के,छितरा दो
सपनों के पंख लगा दो,परवाजों के
आशाओं के,झोकों से
उन्हें,जरा लहरा तो दो
कशी के घाटों पर-----
आरंभ-अंत,जीवन की धारा का
कहीं,मंदिर से उठती,ध्वनियों में,तो
चिताओं से उठती, लपटों में,कहीं
कश्ती में, धर पोटली जीवन की
उसे जरा,उस पार उतर जाने दो
धूप,चढी,अभिमानी सी
धर ललाट पर,टीका चंदन सा
गर,कुछ बूंद उभर आईं हो,संघर्शों की
आशाओं के आंचल से,पोंछ उन्हें
श्वांस-निःश्वास,छोड,अवसादों के
कंधों को,ढीला कर,उन्हें जरा,भार-मुक्त हो जाने दो
कहीं मिलेगीं,लहराती फसलें,गेहूं की
तो,बंजर के भी टीले होंगे,किनारों पर
कहीं,बीच-धार,जलता दीपक,दोने में
तो, शेष-देह,बह रही,बन,हम-राही सी
फिर भी,सपनों की कश्ती को
नव-जीवन-धार-बीच,ले आओ तो
हर स्वप्न,पूर्ण-सत्य है,तभी तलक
जब,गंगा,सागर-तट को,छू लेती है
हर सपने की कश्ती भी,गंतव्य है,तभी तलक
जब,मिल जाय,गंगा-सागर तक—
सपनों की कश्ती को बहने दो
आशाओं के चप्पू से,उसे जरा हिला तो दो
सपनों की कश्ती को,बहने दो----