Wednesday, 6 April 2016

कली-कली ही चुनती रहती हूं



कली-कली ही चुनती रहती हूं
कांटों की बाडें हैं—बे-शक
उम्मीदों की डालों पर
फूलों की झालर-महकेगीं-
मौसम को अभी पलटना है बाकी
पीडाओं की कोख हरी है
स्नेहों के मौसम भी पलटेगें—बे-शक
अपने मेरे आए तो मेरे घर तक
कहने को शब्द नहीं थे—शायद
तिरस्कारों के मौसम में भी
स्नेहों के फूल चटक आते हैं—बे-शक
अपने हैं—तो ही तो आते हैं
कुछ देने-कुछ लेने—मुझ तक
गैरों को क्या गर्ज भला
लेन-देन होता है-अपनों में ही तो
पीडाओं की कोख कहारती है
आंचल में,अपनों को भरने को—
आशाओं का इंद्रधनुष बिखरता
काली रातों के हटने पर ही
स्नेहों का बसंत चटकता
जब होता मन सिंचित अश्रुओं से
जो सच है शेष वही रहता है
झूठ बिखरता वक्त के अंधियारों में.
अश्रु पिघलते हैं जब सिर टिक जाते
अपनों के कांधों पर ही
कली-कली ही चुनती रहती हूं
कांटों की हैं बाड बहुत हैं—बे-शक.