Thursday, 25 September 2014

अहसास--शब्दों की लडी में




अह्सास
चार अक्ष्ररों के समूह का एक शब्द—जो मनुष्य-जीवन के भावात्मक संसार का आधार है.
अहसास-शब्द ही वह शब्द है, जो मनुष्य के भावात्मक संसार को समेटने की क्षमता रखता है.
    मेरे विचार से, यह शब्द हिन्दी भाषा की शब्दावली का नही है,इसे हमने उर्दू भाषा की शब्दावली 
से तोहफ़े के रूप में लिया है.वैसे तो हमारी रोज़मर्रा की बोलचाली भाषा में न जाने कितने शब्द उर्दू,
फारसी के शामिल हो गये हैं,जिन्हें अब हिदी भाषा से अलग करके समझना भी संभव नहीं है.
   एक और तथ्य है,जो मैं अनुभव कर पाती हूं, कि ज़िंदगी के कुछ रूप,कुछ खास शब्दों के माध्यम से ही समझ आते हैं, तब उन पर किसी खास भाषा का अधिकार नहीं रह जाता है.
सारी सीमाएं विलीन हो जाती हैं,बस,अह्सास सिर्फ़ अह्सास ही होता है,जैसे मुंह में घुली मिश्री की मिठास की तरह.
  अह्सास का दायरा बहुत बडा होता है,जिसमें रसों के नवरंग,रंगों के नवरंग,नौं कलाएं जीने की,नौं ढंग मरने के हो जाते हैं,क्षितिज की तरह जहां सीमाएं,सीमाएं न रह कर,क्षितिज हो जाती हैं,बस.
   अह्सासों से परे जीना संभव नहीं है और जब संभव नहीं है, तो सही अह्सासों के साथ जीने में
बुराई क्या है?
ईश्वर ने अह्सासों का पिटारा हमारे सामने खोल दिया है,अब चुनाव करने की जिम्मेदारी हमारी ही है.
एक दिन सुबह-सुबह बालकनी में खडी उगते को सांसों से छू रही थी---और हवा का एक झोंका आया---इतनी खुशबुओं ने मन को सरोबार कर दिया---लगा कि नहा रही हूं आस्तित्व की गंगोत्री में.
उन महकों के अहसास मुझे छू रहे थे.
जाना महसूस किया—अहसासों के अलावा—हम नहीं हैं यदि हम हैं तो.

एक छोटी सी लडी अहसासों की---शब्दों में पिरो कर लाई हूं.



एक अह्सास-जीवन का,जन्म लेने का,जन्म देने का
जीवन की उपजाउ धरती पर पडा जीवन रूपी नन्हा सा बीज , जब धरती मां की कोख मे पहली बार कुलबुलाता है तो वह अहसास है जिसे  पृथ्वी पर हर वह जीव जो जीवन देने की क्षमता रखता है, जिसे वह ईश्वर प्रद्त्त वरदान के रूप मे पाता है, एसा अहसास ,जो शब्दों से परे है , जिसने भी पाया ,निहाल हो गया .
कभी कभी , धरती मे दबा बीज जब कुछ घन्टे , कुछ दिन बाद ,अपने अन्दर छिपी जीवन की सम्भावनाओं के पंखो को खोलने लगता है तो अचानक जाने कहां से चमत्कारित करने वाली ,नन्ही- नन्ही , हरी- हरी कोमल सी दो पत्तियां बीज में से फूट पडती है, मन अजी्ब सी खुशियों  से

भर जाता है अरे! ये कहां से आ गयी , अनायास ही मुंह से निकल पडता है .
और ! सामने ईश्वर की छाया में दिखने लगती है . वह ईश्वर , वह भगवान , वह आधार जिसे सुनने , जानने , देखने व पाने के लिये हम भटकते रहते है अन्धे की तरह .
वह अहसास् हमे थोडी देर ठहर के महसूस करना चाहिये, भागना तो कब्र तक है, लेकिन ईश्वर  के दर्शन कर लें, ईश्वर को छू ले और उसे पा तो लें .
एक अहसास बीज को मिटटी मे दबाने का , उसे सींचने का, उसे सहेजने का और जीवन के स्पंदन को छूने का.
जरुरी नही जीवन को छूने के लिये बीज को ही बोया जाये , जहां जीवन की सम्भावनाएं हों तो उन सम्भावनाओं को हकीकती अहसास देना ही इस अहसास को छू लेने के समान है.
इसके विपरीत ,दूसरा अहसास जीवन की सम्भावनाओं को असंम्भव बनाना है यदि हमारे पास साधन हैं , वक्त है , योग्यता है--  इन संम्भावनाओं को असम्भव नही बनाना चाहिये.
एक बीज,जिसे हम नम मिट्टी में दबा देते हैं,उसमें फलदार पेड होने की क्षमता छुपी है,जो हमारे एक अह्सास से दुबारा हजारों बीजों के माध्यम से जीवन की हजारों संभावनाओं को, पृथ्वी पर
हमारे लिये बिखेर देगा.
     अह्सास का दूसरा पक्ष यह भी हो सकता है—जमीन में अंकुरित होते हुए बीज को निर्दयता से,
बाहर निकाल दें और इस तरह एक बीज की हत्या के अह्सास ने हजारों बीजों के जीवन के अह्सासों व संभावनाओं को कुचल दिया.
      ईश्वर ने हमें ’अह्सास’ दिये हैं,केवल शुद्ध रूप में,पवित्र रूप में—यह तो मनुष्य की मानसिकता है,उस अह्सास को वह किस रूप में सुंदर बनाये या विकृत करे.
     मां की कोख में,बीज-रूप में,जीवन-स्पंदन,फिर वही ईश्वर की परिकल्पना है,जिसे हम उस मृग की तरह ढूंढते हैं,जंगल-जंगल भटकते हैं,जो अपने सिर में छुपी कस्तूरी की महक के पीछे भटकता
रहता है.
जब पहली बार मां की कोख इस स्वर्गीय-स्पंदन के अह्सासों से भर जाती है,तो विचार बनने बंद हो जाते हैं,सब कुछ कहना चाह कर भी,कुछ नहीं कह पाते हैं,व्यक्त,अव्यक्त हो जाता है और,अव्यक्त,व्यक्त हो जाता है.अह्सास पहेली सी बन जाती है,विराट हो जाता है हर अह्सास.
   एक संपूर्ण जीवन,इस छोटे से स्पंदन में कैसे समा गया,कहां से आ गया,वह जीवन जो,धरती पर अपना पहला कदम रखते ही ना जाने दुनिया की चाल को कैसे मोड दे? इसी स्पंदन में यहां,बुद्ध,महावीर,कबीर,महायोद्धा सिकंदर,अकबर,शाहेजहां जिन्होंने जीवन की परिभाषाएं रचीं. दूसरी ओर ऐसे-ऐसे,धूर्त-पापी भी,इस स्पंदन में समां गए जिन्होंने मानवता को ज़लील किया और इसी मानवता का नाश भी किया.
    फिर,एक बार उस ईश्वर के आगे नतमस्तक होना चाहिए कि एक बूंद,एक स्पंदन में उसने अपनी कलाकारी दिखा दी,अपनी माया फैला दी.
    अपनी अनबूझ पहेली में हमें उलझा दिया और आगाह भी कर दिया कि जीवन का अर्थ समझो,अपने होने का मकसद समझो,जैसे कह रहा हो---मैंने तो एक अह्सास दिया है जीवन का,उसे पहचानों,उसे महसूस करो,छू कर देखो—जीवन का सार-यही अह्सास है.
   इसी मातृत्व के अह्सास का एक दूसरा पहलू यह भी है,जिसे सिर्फ़ मनुष्य ने ही गढा है,ईश्वर ने नहीं,उसने तो जीवन के अह्सास को धरती पर बिखेरा है.
   वह अह्सास है,जब हम स्पंदित अह्सास को,कोख में ही कत्ल कर देते हैं.
आज के परिवेश में ऐसा करना बहुत आसान हो गया है.वैग्यानिक अविष्कारों ने हमारे हाथों को इतना
सक्षम कर दिया है,कि ईश्वर के दिए इस अह्सास को एक पिल(गोली) से खत्म कर देते हैं,और दूसरी
सुबह हम फिर अपनी अंधी-आधुनिकता की चक्की के दो पाटों में पिसने के लिए तैयार हो जाते हैं.
    आज,लोगों में फैली अशांति,असंतोष,आपाधापी का मुख्य कारण यही है कि हम जीवन के इस
 अह्सास को मह्सूस नहीं कर पा रहे हैं या महसूस करने के लिए पल भर ठहर नहीं पाते हैं.
     बडे-बडे घर बनने लगे हैं,घरों में,बडे-बडे बागीचों को मालियों की देख-रेख में रख दिया जाता है. शायद ही,उन बगीचों के मालिक कभी अपने हाथों से नम मिट्टी में जीवन के दो बीज दबाते हों.
शायद ही उनके पास समय होता हो,यह देखने के लिए कि एक नन्हे से बीज में से जीवन की संभावनाओं वाली दो नन्हीं पत्तियां कब और कैसे फूट पडीं.वे तो एक बीज को पौधे के रूप में
विकसित होते हुए ही देख पाते हैं.
     बीज से पौधे तक की जीवन-यात्रा का जो अह्सास है,वे उससे वंचित रह जाते हैं.उनके लिये तो उनका बगीचा उनके घर की शान में चार-चांद लगाने का ज़रिया है. बगीचे में उगे पेड माली की
रोजी-रोटी के अलावा और कुछ भी नहीं है.
   क्या-कभी वे उस अह्सास को जी पाते हैं,जो जीवन का अधार है.यदि वे उसे जी लें तो वे जीवन की सार्थकता पा लें,तो उस ईश्वर को पा लें जिसकी रचना का हम हिस्सा हैं और उसे पाने के लिए
कहीं और ना भटका जाए.
   ईश्वर बार-बार यह कहता है,हे,मनुष्य,तुझे मैं और क्या दूं? इतना मैंने तुझे एक अह्सास में दे दिया,इसे समझने के लिए तुझे बुद्धि भी दी,जो मैंने किसी और जीव को नही दी. फिर भी तू,बुद्धि के
काले शीशे में ही जीवन की परिछाई क्यों देखता है? जीवन के उजले पक्ष को भी तो देख,फिर तू देखेगा कि स्वर्ग भी तो तेरे पास है,मेरे पास तो कुछ भी नही है,मै तो खाली हाथ ही हूं. मैं तो तुझे देख रहा हूं और सोचता हूं कि तुझे और क्या दूं—तू सुखी हो जाए,शांत हो जाए.
   काशः हम ईश्वर से वार्तालाप कर पाते,वो हमसे अधिक दुखी है क्योंकि हम सुखी नहीं है.
ऊपर कहीं कुछ बातें उस अह्सास की हैं,जो हमारे उस आस्तित्व से हैं,जिसके बिना हम,हम नहीं हो सकते,इस धरती पर जीवन की कुलबुलाहटें न हों और इन कुलबुलाहटों के स्पंदन के बिना जीवन के नज़ारे दिखाई न देंगे.
  काशः,ईश्वर हमारी उंगलिओं की पोरों में महसूस करने की वह शक्ति दे कि हम पत्थरों में भी स्पंदन महसूस कर सकें.सृष्टि की हर रचना में जीवन का एक अह्सास है,बेशक वह पत्थर ही क्यों न हो.
  सृष्टि की हर रचना में जीवन का एक अह्सास है,बेशक वह पत्थर ही क्यों न हो. यह तो हमारी दृष्टि है,जो हम उसे देख नहीं पाते हैं. चूंकि जीवन के अह्सास को देखने के लिए अंतर्दृष्टि की आवश्यकता है,तभी तो हम पत्थर के शिवलिंग में महादेव की विराटता का अनुभव कर पाते हैं.यही
अंतदृष्टि हमें हमारे आस-पास भी डालनी होगी,सृष्टिकार की सृष्टि को पाने के लिए,उसमें निहित
जीवन का अनुभव करने के लिए.
    कभी-कभी, शांत-भाव से,उगते हुए सूर्य को देखें,आंख मूंद कर उसे महसूस कर लें,हाथों को आकाश में फैला दें और मुट्ठियों में, करोडों मील दूर,असीमित फैलाव में चमकते पिंड को भर लें
पूरा-पूरा ब्रम्हांड मुट्टी में है,यही एक अह्सास ही है,जिससे हम इतना सब कुछ पा लेते हैं.यदि पा
लेने का अह्सास न हो तो,हमारे पास कुछ भी नहीं है,यदि है तो संपूर्ण ब्रम्हांड है.
    कभी-कभी,जिंदगी की भाग-दौड से परे कहीं,किसी नदी के तट पर खडे हो जाएं,पानी के बहाव को बस निहारते रहें, लहरों के थपेडों के संग,छोटे-छोटे अवशेषों को जो टहनियों के रूप में या पत्तियों
के रूप में भी हो सकते हैं,उन्हें शांत-भाव से,लहरों की इच्छा पर समर्पित होते देखते रहें----
अनायास ही,जीवन की गुत्थी सुलझने लगती है. मन समझने लगता है कि,कभी-कभी वक्त की
धारा के विपरीत कितना संघर्ष जरूरी है, कब,उसकी धारा में बह जाने में मुक्ति है,क्योंकि जीवन
का लक्ष्य मुक्ति ही है. यह भी एक अह्सास है, प्रकृति में अपने-आप को जानने का,अपने-आप को
पाने का.

                   

Monday, 22 September 2014

दग्ध मरु में---मरुद्धानों के पदचिन्ह ( पुनरावृति---बिखरे हैं स्वर्ग--चारों तरफ )



Life  is a gift, birth is a gift, love is gift, death is a gift---Be grateful to the Existence.
And without gratefulness---there is no prayer.
Without prayer---there is no religion. osho.
कुछ पुनरावृतियां जरूरी हो जाती हैं---दुबारा जुडने के लिये,बेहतर समझ के लिये,सुंदर कहने के लिये और----?
एक वर्ष पूर्व(क्षमा करें अब समय तीन वर्ष से अधिक)फरवरी माह,दिनांक २३,एक घटना घट गयी (मन के-मनके).
जो माध्यम मृगमरीचिका की भांति आस-पास था,वह कस्तूरी सा मुट्ठी में आ गया.
कुछ अंश—
हां यह सत्य है---जीवन के हर रंग ने मेरी उंगलियों की पोरों को छुआ अवश्य है.
उनमें से कुछ रंग चटकीले थे---कुछ इंद्रधनुष की छटा लिये हुए—कुछ बदरंग भी थे.
जीवन के केनवास को रंगा भी और भरपूर निहारा भी.
स्वाभाविक है,जब राह के---मील के पत्थर पार कर लेते हैं---सुस्ताने के लिये ठहर भी जाते हैं---
इसी प्रक्रिया में—स्वर्ग-नर्क,ईश्वर-अनीश्वर----उजागर होने लगते हैं.
’बिखरे हैं-स्वर्ग’---एक खोज,उस स्वर्ग की जो हमारी मुट्ठी में बंद है---
स्वर्ग क्या है???
ओशो की मीमांसा---जीवन एक उपहार है,जन्म एक उपहार है,म्रुत्यु एक उपहार है----
उस आस्तित्व को नमन—जिसने हमें पात्र माना और अनुगृहित किया.
सिर झुक गया—प्रार्थना स्वीकार हो गई.
और---ईश्वर मिल गया.
और---स्वर्ग बिखर गये----चारों ओर!!!
                                 तुम---
                                  कब आए?
                                      कोई आहट भी नहीं
                           तुमने---
                          दरवाजा भी
                         उढकाया नहीं
                 पैरों की आहट
               क्या कांठी में
              दबा ली थी?
                                   सांसो की गर्माहट
                                   क्या सांसों में
                                   पी ली थी?
                 तुमने---
                 मेरा तकिया
                 सरकाया तो होगा?
                                     तुमने---
                                    ओढी हुई चादर को
                                   थोडा हटाया तो होगा?
                सुबह जब—
                सूरज की किरणों ने
                दस्तक दी---
                                                                               चिडियों की स्वर-लहरी
                             मेरी बंद पलकों को
                             फढका गई—
                   और—
                   एक हाथ जब
                   तकिये के नीचे
                   अंगडाई ले रहा था
                                  मुट्ठी में---
                                  एक और पैगाम
                                  कागज की चिट्ठी में
                   मेरे नाम---
                   आ गया!!!
         मुझे पता है---
         कल भी---
         तुम---
         इस तरह ही
         आओगे—
                                  और---मेरी
                                  मुस्कुराहटों को
                                  गुलाबी कर जाओगे
         मैं---
         सोती रही हूं
         जागने के लिये!!!
पुनःश्चय:
तलाश एक स्वर्ग की
नदी की बहती धार सी
अतृप्त प्यास के
दो किनारों की तरह
निरंतर---
धार सी बह रही
किनारों को पाने की चाह में
विस्मृत किया---
इंसान को
और---
दो किनारों के बीच
छलकता स्वर्ग—
अंजुलि से छिटक कर
नजरों से ओझल हो रहा
स्वर्ग तो---
जन्म से—
निरंतर,
साथ बह रहा
अनवरत—
बस---
हाथों की अंजुलि में भर
होठों तक---
लाना है—
उसे,
मुंदी आंखों में---
देखे सपने की तरह
खुली आंखों से---
पाना है—
उसे,
                        बिखरे हैं—
                        स्वर्ग,
                       चारों तरफ!!!