Thursday, 29 January 2015

जब मुनीन्द्र आंखे मूंद कर सो गये


जब मुनीन्द्र आंखे मूंद कर सो गये

और मैं आज---रोते-रोते सो गयी

जब मुनीन्द्र आंखे मूंद कर सो गये

सीने पर गोलियां कर लीं दफन

और बेटी अलका को दे कल के स्वप्न

पत्नी-पिता और अपनों को कर विहल

जब मुनीन्द्र आंखे मूंद कर सो गये

हर बरस लगेंगे मेले

चिताओं पर शहीदों के

हर फूल जो,जब भी खिलेगा

चाहत लिये बस एक ही

मंदिरों की ड्योढी पर चढने से पहले

दुल्हन की डोली पर सजने से पहले

हजारों ’मुनीन्द्र’ की चिताओं पर

फेंक देना---राख होने के लिये

हमारी खुशबुएं---

हमारी रंगीनियां—

सब---बे-वजह हैं

गर,शहीदों के नाम ना हों.

रात ९ बजे----जी न्यूज पर प्रसारित शहीद मुनीन्द्र नाथ राय की अंत्येष्टि की प्रसारित झलकियां जो

 आंखों को नम कर गयीं और हमें गर्व से भी भर गयीं एक भरोसे के साथ---जब उनकी ११ वर्षीय बेटी अलका ने अश्रुपूर्ण नेत्रों से विदायी दी---वीर-गीत के उद्घोष के साथ---कि हमारा आज और कल भी सुरक्षित है----देश के शत्रु किसी भी रूप में हों----मिटते रहेंगे   और हम आगे बढते रहेंगे अमन की राह पर.

मेरा भी शतः शतः नमन,शहीद मुनीन्द्र नाथ राय को.

Wednesday, 28 January 2015

जोड-घटा तुम्हारी जिंदगी के


                         कुछ कहना चाहती हूं

मगर गटक लेती हूं

खामोशियां---कि

तुम कहीं बे-स्वाद

ना हो जाओ—

तुम्हें रोकना चाहती हूं---मगर

खुद ही खोल देती हूं

कुंडियां---दरवाजों की

कहीं तुम उलझ ना जाओ

और बिना पलटे—

रुखसत हो सको

अपनी राहों पर

हिसाब---इन

सहमी हुई रातों का

नाराज चढते हुए दिनों का

पुरानी होती हुई

उम्र की डायरी के पन्नों पर

जो पीले हो रहे हैं

ढलती हुई धूप से

एक दिन फुर्सत से बैठ कर

कुछ जोडों में से

कुछ घटा कर

चलते-चलते तुम्हें दे सकूं

मगर रोक लेती हूं

अपने-आप को—

सोच कर कि---

गैर-जरूरी मेरे हिसाब से

बेहद जरूरी हैं—

हिसाब---तुम्हारी जिंदगी के

कि कह गयीं---

खामोशियां मेरी

कुछ बात मेरी भी

और अब-तक ना कह कर

सजा-ए-खामोशी पी रही थी

      घूंट-घूंट----

     और जीने के लिये---कि

                 बहुत देर तक जीना चाहती हूं.

 

Wednesday, 21 January 2015

बस कुछ भी ना होना----कुछ भी असाधारण ना होना,बुद्धत्व है.


बाहर गली में दो बच्चे गुजर रहे थे---चहकते हुए,पैरों से रास्ते में पडे कंकडों को ठोकर मारते हुए.

अमरूद के पेड पर लदे अधपके फलों को चोरों की नजर डालते हुए---सहसा कुछ मेरे कानों तक आकर

रुक गया और जो सुना वह इतना मासूम था कि होठों पर मुस्कुराहठ बन कर फैल गया.

सुनिये---और सोचिये---जीवन की दालमखानी में गंभीरता का तडका कितना लगाया जाय???

एक कह रहा था----सुन,उस दिन अगर मां ना होती तो हमें तो चील ही उठा ले जाती---फिर क्या है,

चील के पेट से चिपके हम  हवा में इधर-उधर उड रहे होते---कभी किसी पेड पर रख देती तो वहीं बिलबिला

रहे होते---औेर चील का दूध  पी रहे होते.

दूसरा---बडे मनोयोग से सुन रहा था,हां में हां मिला रहा था.

क्या बानगी है झूठ की और झूठ को सच करने की.

लेकिन,आनंद तो है---इस झूठ में भी,जहां कोई चेष्ठा नहीं है झूठ को सच---झूठ को ’पाप’ में परिभाषित करने की---बस एक निश्च्छलता है---सहजता जो बगैर किसी ’बोध’ के बह रही है.

बुद्ध का वचन—--अपराध-बोध तुम्हारी छाती पर एक चट्टान की की तरह बैठ कर तुम्हें कुचल देता है,वह तुम्हें नृत्य करने की अनुमति नहीं देता है.

एक पापी उसे (आनंद को) अपराध-बोध के कारण खो देता है,संत अपने अहंकार के कारण.

हंसी बहुत तु्च्छ वह संसारिक चीज है,प्रसन्न रहना--- बहुत साधारण बात है.

आइये इस सहजता-सरलता को चरम पर पहुंचाया---झेन गुरुओं ने और इस संदर्भ में बुद्ध को लाना ही होता

है क्योंकि--

बुद्ध का धर्म एक धर्मरहित धर्म है,और झेन उसका चर्मोत्कर्ष.

झेन उसकी सुवास है.

बुद्ध में जो बीज था,झेन में वह खिल कर एक सुवास बन गया.

जीने के दो ढंग हो सकते हैं---स्वाभाविक रूप से जीना दूसरा अस्वाभाविक रूप से.

तर्क-्वितर्क एक अपरिभाषित भय को जन्म देते हैं और जीवन की स्वाभाविकता को चोट पहुंचाते हैं,उसे

नैसर्गिक नहीं रहने देते---जीवन एक अंग्रेजी उद्धान की तरह बन जाता है इतना सुव्यवस्थित कि कुरूप हो जाते हैं.

दूसरी ओर झेन का उद्धान---जहां वृक्षों की समरूपता नहीं होगी.

लेकिन यही सौंदर्य है.

एक बार एक महान सम्राट एक झेन सदगुरू से उद्धान के बारे में सीख रहा था.उसने तीन वर्ष सीखने के बाद

एक सुंदर और विशाल उद्धान बनवाया.

तीन वर्षों के बाद झेन गुरू उसे देखने आये.

सम्राट ने सभी नियम-कायदे के मुताबिक उद्धान को विकसित करवाया था.

वह पूरी तरह तर्क-वितर्क का पालन कर रहा था.

सद्गुरू आये,चारों तरफ अपनी कठोर नजरों से निरीक्षण किया,जरा भी मु्स्कुराये नहीं.

अंत में इतना ही बोले---मैंने उद्धान में एक भी सूखा पत्ता नहीं देखा.सारे सूखे पत्ते कहां चले गये?

बिना सूखे पत्तों के इतना बडा उद्धान कैसे हो सकता है.

सम्राट ने कहा---चूंकि आप यहां पधार रहे थे सो सारे सूख पत्ते यहां से हठवा दिये गये.

सद्गुरू ने कहा---अपने आदमियों से कहो---सारे सूखे पत्ते लाकर उद्धान में बिखेर दिये दें.

ऐसा ही किया गया.

सद्गुरू हंस पडे और कहा---अब ठीक है.लेकिन तुम असफल हुए.तीन वर्ष बाद फिर लौटूंगा.

जीवन भी झेन के उद्धान की नाईं होना चाहिये---स्वाभाविक---सरल—सतत---तर्क-वितर्क-विहीन.

गतिशील-ऊर्जा-आनंद---जैसे ये पंक्षी गीत गा रहे है—दूर कोयल कूक रही है---यह क्षण यहीं और अभी.

सो जो एक किस्सा यूं ही उग आया था जंगली फूल की तरह---अपनी खुशबू बिखरते हुए----और---दूर गली में विलीन हो गया---कुछ बे-वजह की हसीं दे कर---कु्छ ना सोचने के लिये कह कर.

( झेन गुरू की कहानी उद्धरि्त की गयी---सब कुछ अभी घट रहा है. ओशो—सहज जीवन से )

 

 

 

 

 

 

 

 

Tuesday, 13 January 2015

My Gods Are---With Me


 
Millions  of  Gods,

If One—has the Vision---wow!!!

Tired---with aching steps

Scaling the-----Hieghts

Of  sufferings---and

Slopes of---falling Hopes

And—a Hand with

Warmth holds---

Who is He?

One of my—

Millions of Gods

Still drowned---

Into the---

Tattered  dreams

Sun is there

But----

Who uncovers---

The curtains

A Hand—of Cares

Sliding down the Darkness

Of my----

Shining Sun

Other Hand---holding

The Cup of Hopes

Of my---

Tomorrows’ morning

Who is She?

One of My Millions of Gods

                                                      Just found---

                                                      Few of Them

                                                      Still to be found---

                                                      Thousands of Them.

My Gods are---

With me---
                                   Man ke-Manke

Thursday, 8 January 2015

एक पत्र माननीय समीरजी के नाम


                  
नमस्कार समीरजी,
आशा है,आप सपरिवार स्वस्थ व प्रसन्न्चित होंगे.
नव-वर्ष की बहुत-बहुत शुभकामनाएं.
जीवन के सत्य हैं ,जीवन के पडाव हैं---निःसंदेह कहीं खुशियां हैं,कहीं गम,कहीं दूरियां पट जाती हैं,तो कहीं दूरियां हो जाती हैं.
जीने के लिये बहुत कुछ चाहिये,रोटी-कपडा-मकान,जो निहायत जरूरी हैं---केवल स्थूल-स्तर पर और इनको किसी भी सीमा में बांधना असंभव है.मानवीय कमजोरी है,मृग-मरीचिका,मृग-तृष्णा---भगवान राम भी इससे अछूते नहीं रहे,भाग लिये स्वर्ण-हिरण के पीछे,और सीता-हरण हो गया,पूरी की पूरी रामायण ही रच गयी.
परंतु,मानवीय रचना का एक बेहद खूबसूरत पहलू भी है---उसकी संवेदनाएं,जो ईश्वर-प्रदत पांच इंद्रियों के कारण फलीभूत होती हैं.
इन्हीं संवेदनाओं के कारण,हम जीवन को खूबसूरती से जी पाते हैं,और जीना पूर्ण कब हो पाता है जब हम सम्वेदनशील बने रह पाएं,अन्यथा कोई भी खुशबू,कोई भी स्पर्श,प्रातः का सूरज,सांध्य की बेला,हवाओं की हिलोरें,सब चट्टानी हो जाएं,मूक हो जाएं.
क्यों नहीं हम ,डूबते सूरज की लालिमा भरी खूबसूरती को बरकरार रख पाते हैं,उसे उसी गरिमा के साथ,क्षितिज के उस पार ओझल नहीं होने दे पाते हैं—जैसे पश्चिम में डूबता सूरज,अपनी सम्पूर्ण गरिमा के साथ क्षितिज को लाल-नारंगी(ये दोनों ही रंग जीवन के पुनः उदय के हैं) करते हुए अलविदा कह सके,पुनः आने के वायदे के साथ(जीवन पुनरावृति है) जाती हुई लहरों को पुनः आने का निमंत्रण देते हुए.
२०१४ भी अवगत हो चला---कुछ देकर,कुछ लेकर---लेकिन लेने-देने की भी परिभाषाएं सापेक्षित होती हैं---यहां कुछ भी ’अंतिम’ नहीं है—कुछ भी बे-हद---बे-कम नहीं है---
जनवरी का माह कोहरे की चादर ओढे-ओढे सरक जाता है---कहीं-कहीं---कुनकुनी धूप का आंचल मां की कमी को कम कर देता है.नव-वर्ष के मौके पर मैं कुछ मित्रों के साथ डलहोजी की वादियों में थी---बर्फ़ से आक्षादित घाटियां कुनकुनी धूप में नहाई हुईं थी,सब कुछ शीशे सा पारदर्शी.
देखिये,कब बसंत दस्तक दे जाय----चारों तरफ पीली-पीली सी धरा---उगते सूरज की नारंगियत में अपना रंग बदलने लगे---और होली का गुलाल—कितने ही उत्सवी अवकाश---दीपावली की ज्योतिमय—ज्योतिगर्मय—तमसोमा---ईदी-अजानें,गुरुपर्वीय-शबद----लीजिये---सांताक्लाज का उपहारी मोजा---ईशा की किलकारियां—गायों के बछडों का रंभाना---और घंटियों की गूंजे---
कहीं कुछ रीता-रीता सा है ही नहीं.
ऐसे ही कब रुखसत हो जाएगा---२०१५ भी.
जीवन की रवानगी ऐसी ही है.
आएं हम सभी जीवन के साथ-साथ बहें---तटों से उठती महकों को ओढे हुए.
मेरे सभी सह-ब्लोगर एंव ’मन के- मनके’ की धारा के तटों पर कुछ पल गुजारने वाले सभी स्वजनों को---२०१५ मंगलमय हो—ऐसी कामना से मैं अनुगृहित हूं कि वे मुझे अपने व्यस्त जीवन से कुछ पल ’मुझे’ दे रहे है.
पुनःश्चय:
सुनहरी चाबुक----
सुंदर-सटीक-चाबुकीय व्यंग.
कई लाइनें व्यंग से पगी मीठी तो लगीं---लेकिन कुछ ज्यादा मीठी हो गयीं,जैसे हर मिठाई में मिठाई(चीनी) की मात्रा यदि सुनिश्चित न हो तो वह मिठाई ना रह कर कुछ और ही हो जाती है.
बात चाबुक या घोडे की नहीं है---बात घोडों से गधे बनने की भी नही है---बात है--- जो बन गये,क्या वो हरी घास चर पा रहे हैं या नहीं?
मेरा अपना विचार या छोटी सी सोच है---प्रवासी भारतीय जहां हैं वहां की हरियाली का तो भरपूर आनंद लेते ही हैं,साथ ही जहां के अस्तबलों से निकल कर चले गये वहां की घास की चिंता भी अपने साथ ले गये.
उनके इस कन्सर्न को धन्यवाद अवश्य ही है परंतु---?
तभी तो हम हर बरस (कुछ अंतराल के बाद,अंतराल लंबा हो जाता है.)
उनके स्वागत-सत्कार में,हम अप्रवासी तत्पर रहते हैं—जो यहां के धूल-धूसरित गोलअगप्पे,चाट,पकोडी,समोंसे,पूडी-हलुवा---और प्रांतीय व्यंजनों को चखे बगैर अपने हरे-भरे अस्तबलों की ओर लौट नहीं पाते.
कहावत ही नहीं—रिश्तों की कडुवी मि्ठास है---जो खीचती ही नहीं वरन पीछा भी करती है.
हां,शादियां वे यहीं आकर रचाते हैं---क्योंकि ऐसा धमाल यहां के ही अस्तबल झेल सकते हैं---क्योंकि उनके पास अहंम के पूर्वाग्रह नहीं हैं.
वहां के सलीकेदार,हरे-भरे अस्तबल बहुत नाजुक होते हैं और परायेपन की छूत
से भयभीत,अहं की मुडेरों से लटके हुए.
हजारों वर्षों के इतिहास को छाती में दबाए हुए,सदियों से आंक्राताओं से रुदे हुए इन सब के बाबजूद---अपनी सहज-सहनशीलता को लाछिंत देखते हुए,कठोर अतीत को समेटे हुए-----आज भी हम उन कतारों में खडे हैं,जहां गधों को घोडे बनाने की प्रक्रिया चालू है.
और---इससे ज्यादा क्या कहा जाए----उस अस्तबल के मठाधीश अपनी बेशकीमती चाबुक हाथ में थामें हमारे इस अस्तबल की घास को निहारने आ रहे हैं---२६ जनवरी,२०१५ के सुअवसर पर.
पूरा देश साक्षी होगा,विश्व अवलोकन करेगा----आंतरिक्ष से भी देखा जा सकेगा—इतिहास का यह क्षण,घटित होते.
गधों से घोडे बनने की परंपरा चालू आहे-----.
कुछ आपत्तिजनक कह दिया हो---क्षमाप्रार्थी हूं.
                                      मन के-मनके
 



                       
                       
                        

Tuesday, 6 January 2015

संयमी आदमी खतरनाक होते हैं


ओशो---एक कहानी यूं कहते हैं.

मुझे एक घटना याद आ रही है.

एक फकीर अपने एक मित्र से मिलने जा रहा था.घर से निक्ला जैसे ही घो्डे पर सवार हुआ,उसका बचपन का मित्र सामने खडा हो गया.

फकीर ने अपने उस मित्र से कहा---दोस्त,तुम घर पर रुको मैं शीघ्र ही अपने  मित्र से मिल कर आता हूं फिर हम तसल्ली से बैठेगें.

परंतु वह मित्र भी बहुत आतुर था उस मित्र(फकीर) से बातचीत करने के लिए सो उसने साथ चलने के लिये आग्रह किया.

चूंकि लम्बे सफर से आया था इसलिये उसके कपडे मैले थे—  उसने फकीर से कहा कि तुम कुछ समय के लिये अपने कपडे दे दो ताकि मै तुम्हारे साथ चल सकूं.

और दोनों मित्र शहर के मित्र से मिलने चल पडे.

किसी सम्राट के द्वारा भेंट की गयी कीमती पोशाक में वह मित्र किसी सम्राट से कम नहीं लग रहा था.

फकीर ने जब उस मित्र को उस पोशाक में अपने मित्र को देखा तो ईर्षा से भर उठा. पछताने लगा अपनी मूर्खता पर.

मन को बार-बार समझाता---मैं एक फकीर---मुझे इन कोट-पगडी से क्या लेना-देना---मै आत्मा-परमात्मा की खोज में निकला एक फकीर.

जितना मन को समझाता उतना ही उसका मन व्याकुल हो उठता.

पहले मित्र के घर पंहुचे--अपने मित्र का परिचय देने लगा---यह मेरे मित्र आज ही इस शहर में पहुंचे हैं---बहुत प्यारे इंसान है---आदि-आदि.

लेकिन मन में तो कोट और पगडी उन्हें बैचेन किये हुए थी सो मुंह से निकल गया---मगर ये जो कपडे पहने हुए हैं वह मेरे हैं.

मित्र हैरान हुआ सो उन्होंने उससे माफी भी मांग ली.

दूसरे मित्र के यहां पहुंचे---रास्ते भर मन को पक्का करता गया,फकीर कि कपडों की बात जबान तक नहीं लाऊंगा.

जैसे ही मित्र के दरवाजे तक पहुंचा---कोट-पगडी समाने ही लटक रही थी---सो कहने लगा---मेरा क्या है,कपडे-लत्ते क्या किसी के होते हैं,यह तो सब संसार है सब माया-जाल है.ये मेरे बचपन के मित्र हैं बहुत प्यारे इंसान हैं.ये कपडे-लत्ते भी इन्हीं के हैं.

बाहर आकर मित्र से फिर क्षमा मांग ली.

(आखिर दृढ संकल्प किया ही क्यो जाता है?)

गये तीसरे मित्र के यहां.

फकीर ने बिलकुल ही अपनी सांसोम को बांध लिया---

कहा---कि अब कसम खाता हूं.,इन कपडों की बात ही नहीं उठानी है.

संयमी बडे खतरनाक होते हैं.

मुठ्ठी जितनी जोर से बांधी जायगी उतनी ही जोर से खुलेगी भी.

मुठ्ठी चौबीस घंटे खुली रखी जा सकती है लेकिन बांध कर नहीं.

जो आज इस फकीर के साथ हो रहा है वह आज पूरी मनुष्य जाति के साथ हो रहा है.

सब विषाक्त हो गया है.

पुनःश्चय---

इस कहानी को चुनने का मेरा आशय आज तार्किक है.

आये दिन गुजर रही हूं इन वाकयों के तंग-बदबूदार गलियों से—

मैं वही हूं जो पहले थी वही व्यवहार,वही खुलापन,वही लीक से हट कर चलने की आदत या जीने की ललक---जो साथ है---और रोज ही उसे सींचती हूं उसे धन्यवाद देती हूं—अनुगृहित हूं---उस आस्तित्व के प्रति---कि उसने मुझे मौके दिये---दे रहा है---कि इस नियामत को भरपूर पी सकूं.

कितने प्रश्न-चिन्ह खिचते हैं---रोज पोंछ देती हूं.

क्योंकि—उत्तर नहीं होते ह्रर क्यों—कहां—किसके साथ के.

ये तूफान आज इतने विष्फोटक हो रहे हैं कि---शालीनता और मर्यादा के रंगमहल की नींव को हिला रहे हैं.

ओशो---मै तुम्हें प्यार करने लगी हूं.

दो पंक्तियों के साथ साभार---संभोग से समाधि की ओर से.

हाथ बांधे खडे हैं---

आतुर हैं—मिलने को गले

नहीं जानते---

कितने रंग हैं

कितनी भाषाएं हैं

जो कोई छू भर दे हमें.

                            मन के-मनके