Friday, 21 February 2014

कृष्ण---मल्टीडाईमेन्शनल




गीता—पर ओशो द्वारा बोले गये प्रवचनओं से उद्धरित कुछ पंक्तियां----भगवान कृष्ण
लेकिन कृष्ण ‘मल्टी डायमेंशनल’ हैं.ऐसा आदमी जमीन पर खोजना कठिन है,जो कृष्ण में प्रेम करने योग्य तत्व न पा ले.----कृष्ण एक आरकेस्ट्रा हैं.जिन्होंने भी प्रेम किया उन्होंने कृष्ण में चुनाव किया है’. (ओशो)
कृष्ण ने मानवीय अवधारणा को टोटेलिटी में उतारा है,इंद्रधनुष की छटा के साथ---और वही मुक्त है जो सभी आयामों में गुजरता हुआ,स्वम से भी गुजर जाय.
कृष्ण का बाल रूप---माटी से सनी काया,पैरों की रुन-झुन से गुंजायमान मातृत्व,मुख-मंडल पर दैवीय-दीप्ति,आंखों में आस्तित्व की सम्पूर्ण निश्चलता,अधरों पर क्रंदन भी और स्मित भी,जैसे धूप-छांव.
और मथुरा की वीथियों में अपने ग्वाल-बाल संग,बचपन की क्रीडाओं को बिखेरते जाना जैसे फूलों की पांखुरी.चोरी के माखन को मुंह पर लिपटाना,चोरी और सीनाजोरी.
मानवीय इतिहास की महभारती वीथियों में बिखरा पडा है सांवला-सलोना अबीर,उडाते जाइए,अपने को रंगते जाइये.
युवावस्था की नादान-नादानियां को सहजता-सरलता से जी लेना अब कहीं और मिलेंगी.अल्हड गोपियों के साथ अल्हद छेड-छाड और कहीं लंपटपन भी नहीं,केवल वही गले लगा सकता है,वही हाथ पकड सकता है,जो हृदय तलक अछूता हो---वहां प्रेम ही फूटेगा,ऐसी धारा जमुना में गंगा बहने लगे,सारे पाप विसर्जित हो जांय,आलिंगन भी मान्य हो जाय,चीर-हरण भी अबोध क्रीडा बन जाय---और---इन क्रीडाओं में निकल कर,उस राह पर चले जाना,जहां वह सब कुछ त्याग दिया जाय जिसे त्यागना असम्भव हो.
भारत का महाभारत रचना,अर्जुन को कर्म के पथ पर लौटा कर लाना---अपनों को अपनों से ही मरवाना,लौकिक-पारलौकिक,स्वर्ग-नरक,जीवन-मृत्यु इतना सूक्ष्म कर दिखलाना कि,पानी की धार सी सभी परिकल्पनाएं कहीं से भी अपनी राह बना लें और संसार-पर्मात्मा-स्वर्ग-नर्क-जीवन-मृत्यु के महासागर में विलीन हो---शून्य हो जांय---यही कर्म-योग का ग्यान-योग है----और सब कुछ है और कुछ भी नहीं---शून्य-शून्य-शून्य---
मथुरा की वीथियां वीरान हो गईं,गोपियां विरहन,मां यशोदा का आंचल,आंसुओं से सिक्त,जहां अब भीगनों को कुछ भी शेष नहीं,बाल सखा विभ्रमित-विक्षिप्त,पैरों के कदम जड हो गये,हाथों की बांहें सिमट गईं,आंखों का पानी पाषाड हो गया----और वो गये सो चले गये बगैर पीछे मुडे.
जीवन का सत्य,हर क्षण बदल रहा है,जो इस पल है वह अगले ही पल ना होगा.
केवल स्वीकार भाव से ही सत्य के दानावल को लांघा जा सकता है---और पार होना ही होगा,अन्यथा भस्म होना होगा.
द्वारिका के महल,राज-पाट,सोलह हजार रानिओं के पतित्व का निर्भाय---क्या आसान था,राधा के ना होने पर.
वंश-वृद्धि के साथ वंश नाश की पराकाष्ठा को स्वमसात करना,और जब पाया कि इस परिदृश्य में उनकी भूमिका निरर्थक-सरहीन हो गई है,तो शांत-मौन त्यागी की भांति,सरकंडों की वीरानियों में भटक गये---अंतिम पराकाष्ठा के निर्वाह के लिये.
और उनके पदम पैर के अंघूठे पर बहेलिये का विषाक्त तीर लगना,नियति का अंतिम संदेश----कृष्ण---शांत-भाव में लीन,होंठों पर चिर-परिचित स्मिता,और पलक उठा कर बंद कर ली---हां स्वीकार है.जाते-जाते म्रुत्युदाता को अपराधबोध से मुक्त कर,उसकी पीडाओं को क्षमा के शीतल जल से सिक्त करते हुए.
क्योंकि सब कुछ पूर्वनियोजित है यहां---केवल स्वीकार-भाव ही शेष है,शाश्वत है—यही होना ही चाहिये.
                                 मन के-मनके

Wednesday, 12 February 2014

बाबूजी नहीं रहे--

श्री धीरेंद्र सिंह भदोरिया द्वारा प्रकाशित कविता--’पिता’ (११.२.१४.चरचामंच)
को पढते हुए सहसा याद हो आया,एक स्मृति लेख---बाबूजी नहीं रहे--मेरे ब्लोग ’मन के- मनके’ पर प्रकाशित.
और अनायास ही बाबूजी याद आ गये.
उनके जाने के करीब २५ वर्ष बाद---जी चाहता है आज जी भर कर रो लूं.आत्मग्लानि जो अंर्तरमन में दबी है--फूट पडने को आतुर है,उसे रेचन करके बाहर फेंक दू,जरूरी है.
कुछ बोझ तो दिखाई देते हैं ,कुछ अंदर दबे पडे रहते हैं और हम उन पर भ्रमों की हरी घास के पेबंद लगाते रहते हैं.सोचते हैं हमारे घर के आगे बगीचा हरा-भरा है.ऐसा नहीं है यह हरियाली औरों को सुकून देती ही होगी लेकिन जिन्होंने इसे रोपा है उनके मन उपेक्षाओं के असीमित मरुस्थलों के असीमित दायरों में भटक जाते हैं.
आज ९०% जीवन दूसरों के लिये जिया जाता है---जहां हम ही नहीं,हमारे वे भी उपेक्षित हो जाते हैं जो न हों तो हम भी ना हों.
विडंबना है---आज वृद्धाश्रम निहायत जरूरी हो गये हैं.
बाबूजी नहीं रहे---इस स्मृति के पन्ने दुबारा पलट रही हूं.
एक ऐसा वजूद---चट्टान सा कठोर,सामने खडे होने पर उसकी तपिश हमेशा महसूस होती रही----चेहरे पर संघर्षों की आंच,आंखे मोटे चश्में के पीछे---मुझसे हमेशा दूर रहीं---कोशिश करती रही इन आंखों में खुद को देख पाऊं?
उनका एक स्पर्श मुझसे कोसों दूर रहा---पानी का गिलास हाथ में देने का सौभाग्य मुझे नहीं मिला--एक स्वभावगत,या परिस्थितिगत---पानी का गिलास दूर रख कर चले आना होता था.
उनका सानिद्ध्य कुछ माह का रहा होगा---बाकी समय तो मैं अपने को उनके द्वारा प्रेषित पत्रों में खुद को ढूंढती रही उन शब्दों जो अंतर्देशीय पत्र के बचे हुए कोने में पडे होते थे---उमा की पढाई--?
कभी-कभी अनुतरित प्रश्नों की कटीली झाडियों में----कुछ शिकायत---कुछ अघोषित अधिकारों के जंगली-बेखुशबू फूलों को ढूंढती रही.
परंतु जब बाबूजी नहीं रहे----
तब मुझे समझ आया---उनकी आंखे जो मोटे चश्में के पीछे होती थीं--उनमें प्यार था मैं ही नहीं देख पाई.पानी का गिलास जो दूर रख कर चली आती थी,उस पर उनके हाथों का स्पर्श होता था मैं ही नहीं छू पाई.उनकी चिट्ठियों में---मैं होती थी---उन शब्दों में जो अम्तरदेशीय पत्र के बचे हुए स्थान पर जैसे -तैसे,कोने में भटके से,छिटके से,भूले से---उमा की पढाई--?मैं ही उन शब्दों को नहीं पढ पाई.
वो बाबूजी,चार बच्चों के पिता,उनकी बाल्यकाल से वयस्क होने तक की जिम्मेदारी---दुनियादारी,पत्नि का साथ न होना,यदि वे चट्टान ना होते तो कैसे थामते इतनी आम्धियों को.
वो नितांतता,वो अकेलेपन की कोठरियां जो मनहूसियत से घिर गईं थीं--उन से पार जाना,बहुत-बहुत पीडादायक होगा.
एक और नई शुरूआत का विकल्प उनके पास नहीं था,मगर दो विकल्पों में से एक विकल्प का चुनाव ’आत्महंता" ही होना था क्योंकि आने वाले ’कल’ को सहेजना था और जाने वाले ’कल’ को जाने देना था.
आसान नहीं होगा कितना टूटेगे होंगे हमें सहजने के लिये,कितने बिखरे होंगे हमें समेंटने के लिये---
बाबूजी नहीं रहे---हम सब एक-एक करके अपनी-अपनी दुनिया में निकल आना और उनकी नितांतता की कटीली बाड का और घना हो जाना.
’आज’ हमेशा स्वार्थी होता है उसे अपने ’कल’ की परछाइयां तो नजर आती है लेकिन ’कल’ के दूर जाते कदमों की आहटें सुनाई नहीं पडतीं.
और चट्टान से बाबूजी छोटे होते चले गये---चौडे कांधें झुकते  चले गए---जिन हाथों को छूना मुमकिन नहीं था,वो कांपने लगे थे---जिनके कदमों की ठसक हम सब को कोनों में समेट देती थी,अब घिसटन भर रह गई थी---जिनकी आवाज भरी नींद को तोडने के लिये काफी थी,अब गले में ही रुंधने लगी थी---
बाबूजी नहीं रहे---सपने जब जीवित हो जाते हैं तो वे ही उन सपनों को तोड देते हैं,जिनकी आंखों में वे पले थे कभी.
बाबूजी नहीं रहे----कभी-कभी जी चाहता है----कि--?
                                                           जो हमने पाया---जाना है कभी
                                                          यदि,कभी जाना भी है---तो जताया है कभी
                                                          यदि नहीं---तो एक बार कह देना ही चाहिए
                                                         बाबूजी,याद आते हैं ,आप बहुत
                                                        हम नहीं दे पाए वो जो,आप कह ना पाये कभी.