नमस्कार
नमस्कार, आप सभी को जिनके साथ मेरा परिचय एक अकिंचित ब्लॉग लेखिका के रूप में २०१४ से जारी है बीच-बीच में अवरोधों के साथ.
क्षमा अनुरोध के साथ ,आज कई माह के बाद लेप टॉप के सामने बैठने का समय आया.
कहते हैं, हर समय का समय निन्श्चित है जीवन की किताब में,समय के साथ पन्ने पलटते रहते हैं ,हम उन्हें पढ़ें या कि ना पढ़ें .
२०१८ में मेरी दो पुस्तकों का अनावरण हुआ था ,एक स्मृति संसकरण के रूप में जिसका शीर्षक है---
खुशबुएँ सूखे फूलों की और दूसरी पुस्तक है काव्य संग्रह के रूप में --शीर्षक है--ए, नदी सुनो .
हम जो भी कहते हैं या लिखते हैं सब कुछ हमारा मन ही है .उसी की आँखों से इस संसार को देखते वा समझते हैं,जो हमारे अनुभवों में उतर आते हैं.
अब कुछ अनुभव हमें दुःख देकर गुजर जाते हैं ,कुछ सुख. प्रत्येक का नजरिया अलग-अलग है या कि, हम सभी की अपनी दुनिया है.
यह दुनिया एक तमाशा है,बहुत कुछ गुजर जाता है और कुछ भी नहीं गुजरता.
आज काव्य संग्रह ,ए, नदी सुनो, हाथों में आ गया और पन्ने पलटते हुए पृष्ठ संख्या १. पर नजरें ठहर गयीं---
क्या, फर्क पड़ता है---
बात शुरू होती है एक शब्द से,एकशब्द जिसने बहुत फर्क डाले हैं -सीधी सादी जिंदगियों पर .
सही है फर्क पड़ता है लेकिन फर्क को इतना वजन मिले कि जिन्दगी की रफ़्तार जिन्दगी से आगे ना निकल जाए .
क्या फर्क पड़ता है---
तुम पहुंचे वहां,और ,
यहाँ हम रह गए
कुछ देर बाद
हम भी होंगे वहां
तुम,पहुंचे हो,जहाँ .
जिंदगियों के
फर्क-फर्क
हलाफनामे हैं
कोइ लिख रहा
इबारत-ए-जिन्दगी
किसी के नसीब में
आईं हैं फकत
दो लाइनें.
क्या फर्क पड़ता है???
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