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Saturday, 11 October 2014

एक अहसास—मां होने का





संसार की अनेक भाषाओं में,मां का संबोधन,करीब-करीब एक सा ही सुनाई देता है—मां,मातृ,मदर,अम्मा---
कितना नैसर्गिक सम्बोधन है,जब बच्चा जन्म लेता है,तो उसके मुंह से पहला शब्द ’मां,मां,मां-- निकलता है.संभवत,इस अक्षर से अधिकतर भाषाओं में, ’मां’ के संबोधन की शुरूआत हुई.
जब, मां शब्द का उच्चारण किया जाता है,तो उन शब्दों के स्वरों के स्पंदन से समस्त जीव-जगत में व्याप्त ’मां’ का अहसास पूरे आस्तित्व में बिखर जाता है.
’मां’, वह जो,जीवन के बीज को, अपने में समेटती है,उसे संरक्षित करती है, पोषती है,अपने पूरे आस्तित्व से, पूरी आत्मा से, पूरे भाव से, सम्पूर्ण भविष्य से और,उस जीवन को पृथ्वी पर लाने के लिये अपने आस्तित्व को दांव पर लगाती है क्योंकि यह वह अहसास है जो समस्त भावों का निचोड है.
दूसरे शब्दों में कह सकते हैं—मां होने का अह्सास ही,नये जीवन के लिये एक जीवन को दांव पर रखना है. ठीक उसी तरह,यदि एक लहर टूटेगी नहीं तो,नई लहर जन्म कैसे लेगी?
यही सृष्टि है ,और सृष्टि की निरंतरता का यही,अह्सास है.
मां होने का अह्सास—जीवन-भर,मां और उसकी संतान के बीच एक डोर है,जो दोनों को बांधे रखती है.
जीवन में,परिस्थितियां, नदी में,उठती लहरों की भांति हैं, कभी,शांत तो,कभी,ज्वार-भाटों की तरह हैं. एक का सुख-दुख,दूसरे का सुख-दुख हो जाता है.
लेकिन,यह अह्सास भी ईश्वर-प्रदत्त जब तक ही है—हम प्रकृति की इस नैर्सगिकता को मनुष्यता से दूषित ना करें अपनी नकारता से.

ईश्वर ने, हमें,हर अहसास, वरदान से पूर्ण कर के दिया है,परंतु अक्सर ही हम, उसकी इस अनुकंपा को पहचान नहीं पाते हैं और एक ऐसी पूर्णता से अपूर्ण रह जाते हैं जो हमारे आस्तित्व को छिन्न-भिन्न कर देती है.
एक खूबसूरत कोशिश करते रहनी चाहिये,घर के आस-पास फैली खुशबुओं को पहचान ने की जो इस हवा में सिक्त हैं जिसे हम सांस कहते हैं.
एक-एक अहसास हमारी एक-एक आती-जाती सांस है---सांस खीच कर तो महसूस करें---जीवन का स्पन्दन झझकोर देगा,हर सांस में लगेगा कि हम---जी रहे हैं