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Sunday, 23 August 2015

दिन तो दिन होते हैं--


दिन तो दिन होते हैं--

करीब तीन सप्ताह होने को आ रहे हैं—अपने वतन से दूर—करीब दस हजार किलो मीटर

अपने छोटे बेटे व उनके परिवार के साथ जीवन के बेहतरीन पलों के साथ---एक नई मिट्टी की महक—नई वयार—आवाजों में एक बेगानी सी चहक—जीवन को कभी-कभी अनबूझ किनारों से भी देखना होता है—जरूरी है—बेहद खूबसूरत भी—बस, बात नजरिये की है—यदि चाबी घुमानी आ जाय?

पिछले दो सप्ताह, हम इस धरती के चक्कर लगा रहे थे—किलोमीटर की बात में करीब—दस-बीस हजार की बात हो सकती है—देशों के नाम व शहरों के कसीदे पढने से बात वहीं की वहीं आ जाती है-कि दिन तो दिन होते हैं—ऐसे ही देश-शहर-गांव-लोग तो लोग ही होते हैं—बात होती है-- कि हम कहां होते हैं???

फर्क नहीं पडता कि—इस दुनिया को हम कहां से देख रहे हैं—फर्क बस है तो केवल इतना ही कि—हम कहां खडे हैं—नदी के इस पार या उस पार---यानि कि हम दृश्य हैं या कि दृष्टा—इस नाटक को—देख रहे हैं—बस बालकनी की टिकट खरीद कर.

एक वृद्ध किसान अपने खेत की बाड पर बैठा हुआ—आनंद में सरोबार आती-जाती कारों को देख रहा था—और सामने की सडक पर लगातार कारों का रेला दौड रहा था.

तभी एक कार सवार ने उस किसान को इस स्तिथि में ध्यान से देखा और अपनी कार को किनारे रोक कर उस किसान के पास गया—उससे पूछा—बडी अजीब बात है—तुम इस तरह इस बाड पर बैठे हुए आती-जाती कारों को देख रहे हो—वह भी इतने आनंद में.मैं तो कभी भी इस तरह एक मिनिट से अधिक नहीं बैठ सकता.

मैं एक यात्री हूं और निरंतर यात्रा करता रहता हूं—इसी में मैं आनंदित रहता हूं.

उस वृद्ध किसान ने मुस्कुराते हुए कहा—कोई भी फ़र्क नहीं है मेरे व तुम्हारे आनद में.

मैं अपने खेत की बाड पर बैठ कर आती-जाती कारों को देख रहा हूं.तुम अपनी कार में बैठ कर आती-जाती मेंडों को देख रहे हो.

(साभार—जीने की कला से—द्वारा –ओशो)

सो बात इतनी सी है—दिन तो दिन होते हैं—देश-शहर-लोग तो सब जगह एक ही होते हैं—बात होती है—कभी समय था प्याज से रोटी खाने वाला—सर्वहारा समाज को प्रतिनिधित्व करता था—आज प्याज की मंहगाई पर हा-हा-कार है—चैनलों के पास कोई और खबर नहीं है—इतनी बडी दुनिया से उन्हें कुछ और नहीं मिलता कहने-सुनाने को—क्या फर्क पडता है—कि प्याज कम खाई जाय कि ना खाई जाय—हां आटा-दाल की बात होती तो आटे-दाल के भाव जरूर पता करने होते.

दूसरी खबर—पाकिस्तान हिंदुस्तान से बात करने से फिर मुकुर गया.

कोई अचंभा नहीं—कोई अनहोनी नही घटित हुई.

पिछले साठ साल यही हो रहा है और फिर भी हम हर बार चौंक कर जाग उठते है???

हमें तो बिना चौंके ही जगे रहने चाहिये.

सीमाओं पर गोले-बारूद फोडे ही जाएंगे—आखिर ये बनाए किस लिये जाते हैं?

क्या शबे-रात पर चलाने के लिये?

या कि दिवाली की रात में फोडने के लिये?

हम सभी जानते हैं—इन पटाखों से हम सब को क्या लेना-देना है?

लेना-देना किसको है---जो सियासत के आदी हैं.

छोडिये इन बातों को—आइये बैठते हैं,अपने-अपने खेतों की बाडों पर---

देखते हैं—आती-जाती कारों को!!!

वाह!!!