हम तो सुकड़ रहे हैं ,हमारे मन के आँगन कहाँ खो गए -----प्रभु
वैसे तो बदलाव जीवन की रीत है. दुनिया घूम रही है अपनी धुरी पर सूर्य भगवान को छोड़ सभी ग्रह घूम रहे हैं.पूरी कि पूरी कायनात घूम रही है फैल रही है,सुकड रही है?
हम हथियार बना रहे हैं,खरीद रहे हैं,बेच रहे हैं,लड़ रहे हैं, लडवा रहे हैं.
दो बरस पहले एक त्रासदी से गुजर कर जो लोग बच गए वे सामाजिक त्रादसी में फँस चुके हैं.
शायद हम ऐसे समय के मोड़ पर आ गए हैं जहां कोइ ना कोइ त्रासदी हमें घेरे रहेगी,ना जाने कब और कैसे कौन सी त्रासदी बिना आहट हमें सामूल निगल जाय,जिसे कहने और सुनाने को कोइ आसा,पास भी ना हो.
कोरोना के बाद तुरंत ही हम सामाजिक त्रादसी में घिर चुके हैं.स्वम पर विश्वास नहीं रहा,औरों पर विश्वास टूट गया और भगवान भी विश्वास के काबिल नहीं बचा.
जब भगवान ह्रदय के मंदिर से निकल कर बाजारों में भटकने लगे,जब वो इतना कमजोर हो जाएं कि वो अपनी साख को भी ना बचा पाए ,लोग उसके नाम पर अमानुष हो जाएं तो भगवान की धारणा भी खोखली है.
ऐसे ही जैसे भगवान कमजोर हुए वैसे ही मनुष्य भी रीढ़ की हड्डी के बगैर हो गया.
रिश्ते तो ऐसे धुल धूसिर हुए कि, उन्हें नाली में गिरी चवन्नी की तरह ढूँढने के सामान हालात हो गए.
अब अगर नाली में गिरी चवन्नी अगर ढूंढ भी ले तो नाली की बदबू तो बनी रहेगी. उस चवन्नी को ना तो मुट्ठी में रख पाएँगे ना ही जेब में.
रिश्ते नाते ना हुए गोया कैंची हो गयी कतरते रहो एक, दूसरे को.
मंहगाई तो सत्तर सालों से देख रहे हैं शायद ही कभी ऐसा हुआ हो जब हमने मंहगाई का रोना ना रोया हो,आज भी रो ही रहे हैं.
लेकिन मंहगाई,मंहगाई में फर्क जरूर है .दस,बीस बरस पहले की मंहगाई के दौर में जब कभी मेहमान या नाते,रिश्ते वाले आ जाते थे थाली में एक दो कटोरी का इजाफा हो ही जाता था. रोटियाँ गिन,चुन कर नहीं बनती थीं वरन गाय वा कुत्ते की रोटी भी याद से बनती थी.
धीरे,धीरे हमारे मन सुकडने लगे कटोरियों का इजाफा कम हो गया रोटियों की गिनती होने लगी घर की गृहणी के ललाट पर लाइनें दिखने लगीं.
बड़ी जल्दी वह दौर भी आ गया माथे की लकीरों ने होठों की मुस्कराहट भी समेट ली.
और,अब तो साहब अगर बुलाना बहुत ही सामाजिक हो जाए तो पहले तो बामुश्किल बुलावा आ जाता है मोबाइल से लेकिन दो घंटे बाद ही मोबाइल की घंटी बज उठती है---सोरी, बूआ जी ऐसा है हमारे पड़ोस वाले घर में मरम्मत का काम चल रहा है हमारी बालकनी घिरी पडी है,अब आप १०,१५ दिन का प्लान बना लीजिये.
पड़ोस के घर की मरम्मत से मेरे आने का मेलजोल,समझ के परे है.
दूसरी बात राखी का त्यौहार ४ दिन बाद है १०,१५ दिन बाद जाने का क्या प्रयोजन ?
खैर,आज की मंहगाई ने लोगों के दिलों को इतना सिकोड़ दिया है कि,हम आत्मविश्वास से रीत गए गए हैं.
यहाँ तो एक प्रकरण हैं ऐसे ही कई रूपरेखाएँ देखने को मिलती रहती हैं.
मुझे लगता है पहले लोगों के घरों के बजट में मेहमान और त्यौहार दौनों ही शामिल हुआ करते थे.
दूसरी बात पहले की गृहणियां ज्यादा समर्थ थीं घर,रसोई,और नाते रिश्तों को सहेजने में.
अब की मंहगाई में सोशल मीडिया का जहरीला स्वाद मिल रहा है और इस तड़के ने रिश्तों के स्वाद बिगाड़ दिए,.
अब रसोई पकती नहीं है,अब जोमोटो वाले दरवाजों की घंटियाँ बजाते है.
हमारे घरों के आँगन तो ना जाने कहाँ चले गए--
मनों के आँगन भी खो गए.
वाकई आज हम सब सिकुड़ गए हैं । शरीर से नहीं मन से ।।
ReplyDeleteनमस्कार संगीता जी,कैसी हैं बहुत दिनों बाद आपसे मिलना हो रहा है,धन्यवाद 'मन के मनके ' पर पधारने के लिए,शुभकामनाओं के साथ.
ReplyDeleteनमस्कार , कुछ समय से फिर से ब्लॉग पर सक्रियता प्रारम्भ की है । इसी लिए पुनः मिलना हो रहा है । आभार मुझे याद रखने के लिए ।
Deleteधन्यवाद निमंत्रण के लिए,यशोदा जी.
ReplyDeleteसही लिखा ,वो दिन्नतो हवा ही हो गए हैं अब बिल्कुल
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ReplyDeleteआदरणीय नमस्कार !
ReplyDeleteबेहतरीन ! मानों समाज , दुनिया कि सारी समस्याओं को इक धागें में पिरो दिया है . . .
शुभ प्रभात,धन्यवाद जी
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