नमस्कार समीरजी,
आशा है,आप सपरिवार स्वस्थ व प्रसन्न्चित
होंगे.
नव-वर्ष की बहुत-बहुत शुभकामनाएं.
जीवन के सत्य हैं ,जीवन के पडाव
हैं---निःसंदेह कहीं खुशियां हैं,कहीं गम,कहीं दूरियां पट जाती हैं,तो कहीं
दूरियां हो जाती हैं.
जीने के लिये बहुत कुछ चाहिये,रोटी-कपडा-मकान,जो
निहायत जरूरी हैं---केवल स्थूल-स्तर पर और इनको किसी भी सीमा में बांधना असंभव
है.मानवीय कमजोरी है,मृग-मरीचिका,मृग-तृष्णा---भगवान राम भी इससे अछूते नहीं
रहे,भाग लिये स्वर्ण-हिरण के पीछे,और सीता-हरण हो गया,पूरी की पूरी रामायण ही रच
गयी.
परंतु,मानवीय रचना का एक बेहद खूबसूरत पहलू
भी है---उसकी संवेदनाएं,जो ईश्वर-प्रदत पांच इंद्रियों के कारण फलीभूत होती हैं.
इन्हीं संवेदनाओं के कारण,हम जीवन को
खूबसूरती से जी पाते हैं,और जीना पूर्ण कब हो पाता है जब हम सम्वेदनशील बने रह
पाएं,अन्यथा कोई भी खुशबू,कोई भी स्पर्श,प्रातः का सूरज,सांध्य की बेला,हवाओं की
हिलोरें,सब चट्टानी हो जाएं,मूक हो जाएं.
क्यों नहीं हम ,डूबते सूरज की लालिमा भरी
खूबसूरती को बरकरार रख पाते हैं,उसे उसी गरिमा के साथ,क्षितिज के उस पार ओझल नहीं
होने दे पाते हैं—जैसे पश्चिम में डूबता सूरज,अपनी सम्पूर्ण गरिमा के साथ क्षितिज
को लाल-नारंगी(ये दोनों ही रंग जीवन के पुनः उदय के हैं) करते हुए अलविदा कह
सके,पुनः आने के वायदे के साथ(जीवन पुनरावृति है) जाती हुई लहरों को पुनः आने का निमंत्रण
देते हुए.
२०१४ भी अवगत हो चला---कुछ देकर,कुछ
लेकर---लेकिन लेने-देने की भी परिभाषाएं सापेक्षित होती हैं---यहां कुछ भी ’अंतिम’
नहीं है—कुछ भी बे-हद---बे-कम नहीं है---
जनवरी का माह कोहरे की चादर ओढे-ओढे सरक जाता
है---कहीं-कहीं---कुनकुनी धूप का आंचल मां की कमी को कम कर देता है.नव-वर्ष के
मौके पर मैं कुछ मित्रों के साथ डलहोजी की वादियों में थी---बर्फ़ से आक्षादित
घाटियां कुनकुनी धूप में नहाई हुईं थी,सब कुछ शीशे सा पारदर्शी.
देखिये,कब बसंत दस्तक दे जाय----चारों तरफ
पीली-पीली सी धरा---उगते सूरज की नारंगियत में अपना रंग बदलने लगे---और होली का
गुलाल—कितने ही उत्सवी अवकाश---दीपावली की ज्योतिमय—ज्योतिगर्मय—तमसोमा---ईदी-अजानें,गुरुपर्वीय-शबद----लीजिये---सांताक्लाज
का उपहारी मोजा---ईशा की किलकारियां—गायों के बछडों का रंभाना---और घंटियों की
गूंजे---
कहीं कुछ रीता-रीता सा है ही नहीं.
ऐसे ही कब रुखसत हो जाएगा---२०१५ भी.
जीवन की रवानगी ऐसी ही है.
आएं हम सभी जीवन के साथ-साथ बहें---तटों से
उठती महकों को ओढे हुए.
मेरे सभी सह-ब्लोगर एंव ’मन के- मनके’ की
धारा के तटों पर कुछ पल गुजारने वाले सभी स्वजनों को---२०१५ मंगलमय हो—ऐसी कामना
से मैं अनुगृहित हूं कि वे मुझे अपने व्यस्त जीवन से कुछ पल ’मुझे’ दे रहे है.
पुनःश्चय:
सुनहरी चाबुक----
सुंदर-सटीक-चाबुकीय व्यंग.
कई लाइनें व्यंग से पगी मीठी तो लगीं---लेकिन
कुछ ज्यादा मीठी हो गयीं,जैसे हर मिठाई में मिठाई(चीनी) की मात्रा यदि सुनिश्चित न
हो तो वह मिठाई ना रह कर कुछ और ही हो जाती है.
बात चाबुक या घोडे की नहीं है---बात घोडों से
गधे बनने की भी नही है---बात है--- जो बन गये,क्या वो हरी घास चर पा रहे हैं या
नहीं?
मेरा अपना विचार या छोटी सी सोच है---प्रवासी
भारतीय जहां हैं वहां की हरियाली का तो भरपूर आनंद लेते ही हैं,साथ ही जहां के
अस्तबलों से निकल कर चले गये वहां की घास की चिंता भी अपने साथ ले गये.
उनके इस कन्सर्न को धन्यवाद अवश्य ही है
परंतु---?
तभी तो हम हर बरस (कुछ अंतराल के बाद,अंतराल
लंबा हो जाता है.)
उनके स्वागत-सत्कार में,हम अप्रवासी तत्पर
रहते हैं—जो यहां के धूल-धूसरित गोलअगप्पे,चाट,पकोडी,समोंसे,पूडी-हलुवा---और प्रांतीय
व्यंजनों को चखे बगैर अपने हरे-भरे अस्तबलों की ओर लौट नहीं पाते.
कहावत ही नहीं—रिश्तों की कडुवी मि्ठास
है---जो खीचती ही नहीं वरन पीछा भी करती है.
हां,शादियां वे यहीं आकर रचाते हैं---क्योंकि
ऐसा धमाल यहां के ही अस्तबल झेल सकते हैं---क्योंकि उनके पास अहंम के पूर्वाग्रह
नहीं हैं.
वहां के सलीकेदार,हरे-भरे अस्तबल बहुत नाजुक
होते हैं और परायेपन की छूत
से भयभीत,अहं की मुडेरों से लटके हुए.
हजारों वर्षों के इतिहास को छाती में दबाए
हुए,सदियों से आंक्राताओं से रुदे हुए इन सब के बाबजूद---अपनी सहज-सहनशीलता को
लाछिंत देखते हुए,कठोर अतीत को समेटे हुए-----आज भी हम उन कतारों में खडे हैं,जहां
गधों को घोडे बनाने की प्रक्रिया चालू है.
और---इससे ज्यादा क्या कहा जाए----उस अस्तबल
के मठाधीश अपनी बेशकीमती चाबुक हाथ में थामें हमारे इस अस्तबल की घास को निहारने आ
रहे हैं---२६ जनवरी,२०१५ के सुअवसर पर.
पूरा देश साक्षी होगा,विश्व अवलोकन करेगा----आंतरिक्ष
से भी देखा जा सकेगा—इतिहास का यह क्षण,घटित होते.
गधों से घोडे बनने की परंपरा चालू आहे-----.
कुछ आपत्तिजनक कह दिया हो---क्षमाप्रार्थी
हूं.