Friday, 16 December 2011
एक स्मृति-माणिक्य—हमारे विजय पाल मामा
कुछ यादें अमर होती है,यही नहीं,वे इतनी ताजी होती हैं कि मुंदी आंखो से,हम उन्हें ऐसे छू लेते हैं,
जैसे अभी-अभी खिला फूल हो,जैसे सुबह की धूप,जाडों की सुबह में, छू कर निकल गई----
ऐसी ही एक स्मृति,दशको बाद,मेरे जहन में है.मेरी हार्दिक इच्छा है,इस स्मृति को आप के साथ
बांट सकूं और इस माध्यम से उन्हें श्रंद्धाजलि के कुछ फूल अर्पित कर सकूं,जिन्होंने हमें,हमारी मां
के असमय देहांत के बाद,निस्वार्थ प्यार दिया,हमारे बचपन को और बिखरने नहीं दिया.
मां के असमय देहांत के बाद,हम चारों भाई-बहनों की जिम्मेदारी बाबूजी के सामने एक समस्या के रूप में आ गई थी.
ऐसे हालातों में,बच्चों की देख-भाल कोई अपना ही कर सकता था.इस व्यवस्था को चलाने के लिये,
हमारे साथ हमारे विजय पाल मामा(इसी नाम से हम उन्हें संबोधित करते थे) ,मामी व उनके दो बच्चे,हमारे साथ करीब सात-आठ साल तक रहे.
मामा-मामी,हम बच्चों की देख-भाल अपने बच्चों की तरह करते थे.बाबूजी की सेवा-टहल में कोई कमी नहीं आने देते थे. मामा का,बाबूजी की सेवा-टहल में,हर समय हाथ बांधे खडे रहना,समय-समय
पर बाबूजी की डांट-फटकार को भी सुनना, समय-असमय हुक्का गरम करना और सबसे बडा संबल
हम बच्चों को मामा का तब मिलता था जब बाबूजी की डांट खाने की नौबत आ जाती थी.उस समय
केवल और केवल विजय पाल मामा ही होते थी जो हमें उस संकट से उबार पाते थे. वे हम बच्चॊं के संकट-मोचन थे.
मामी की एक धुंधली सी याद मेरे पास है,एक सीधी-सादी महिला जो हम बच्चों को हमेशा ही गर्म खाना खिलाती थीं.याद है,उनके हाथ की बनी मूंग की दाल,उसमें हींग-जीरे का छोंक.वैसी छोंक वाली दाल आज तक नहीं खाई,इस संदर्भ में,एक याद और भी है,वे जब चूल्हे पर खाना बनाती थीं तब सुलगे कोयले पर लहसुन भून कर,नमक के साथ हम बच्चों को दिया करती थीं,बहुत ही अच्छा स्वाद होता था.
ये स्वाद,स्मृति-पटल पर ऐसे अंकित हैं,जैसे कोई शाश्वत-सत्य.
विजय पाल मामा(उनको हम ऐसे ही बुलाते थे) हंसमुख,हसोड,मजाकियावाले स्वभाव के व्यक्ति थे.इससे से भी बडा गुण उनमें जो था,वह गप्पवाजी का था,जब भी बाहर से आते,रास्ते में घटित
कोई भी घटना को गप्प के पुट में लपेट कर ऐसे सुनाते थे कि हम सब उस किस्से को ७०-८० प्रितिशित सुनकर ही समझ पाते थे कि मामा गप्प हांक रहें हैं.
जब भी घर में आते थे,दरवाज़े से ही पुकारते थे,’राजकुमार नरेन्द्र कहां हैं(नरेन्द्र मेरे बडे भाईसाहब का नाम है),राजासाहब क्या फ़रमा रहें हैं,आदि-आदि.
मुझे तो हमेशा ’ओम बेटा’ के नाम से सम्बोधित किया.
बाबूजी के क्रोध का सामना करना केवल मामा के वश की ही बात थी और उसे शांत करने की कला भी मामा को ही आती थी.
पुनश्चः,उपरोक्त संस्मरण कोई विशेशता लिये नहीं है,हर एक के जीवन में ऐसी यादें होती ही हैं.
परंतु बहुत ही साधारण दिखने वाली ये यादें अपने अंतर्मन में कितने गहरे भावों को समेटे होती हैं कि उनकी गहराई को नापने के लिये अनुभूतियां ही चाहिये.
इसी संदर्भ में,मेरा अगला ब्लोग उनकी कुछ अनूठी टप्पों को के साथ होगा,बशर्ते उपरोक्त स्मृति-माणिक्य आप को भाये.
मन के-मनके
Wednesday, 7 December 2011
कभी-कभी
कभी-कभी,
ये यादें,उदास क्यों हो जाती हैं?
सूने तकिये पर,सिर रख कर—
छत,क्यों निहारती हैं,
और,घर से निकल, आ जाती हैं,सूनी पगडंडी पर
कभी-कभी,
ये यादें, उदास क्यों हो जाती हैं/
कमरे से,बाहर आकर---
खडी हो जाती हैं,
बालकनी की रेलिंग से टिक कर
और, आसमान के खालीपन में खो जाती हैं
कभी-कभी,
ये यादें,उदास क्यों हो जाती हैं?
अपनों की हथेलियों को थाम
उनकी गर्माहट में भी,
ठंडी सी हो जाती हैं—
और, आंखो की कोरों से टपकी
बूंदे बन जाती हैं—
कभी-कभी,
ये यादें-----
Wednesday, 30 November 2011
पीले फूलों वाला घर-----
मैं, पीले फूलों वाला घर हूं,
पूरब के कोने में,
तुलसी का विरबा है
विरबे में,दीये का साया है
साये में,जीवन की गाथा है
मैं,पीले फूलों वाला घर हूं,
घर की दीवारें पीली हैं
दीवारों पर लाल कंगूरे हैं
लाल कंगूरों से लिपटी
अंगूरों की बेले हैं---
मैं,पीले फूलों वाला घर हूं,
सांसों के अहसास भरे
घर में कुछ कमरे हैं
एक कमरा खाली है
खाली कमरे में अहसासी साया है,
मैं पीले फूलों वाला घर हूं,
दीवारों से सिमटे---
जाली के दरवाजे हैं
दरवाजों पर सिमटी आंखों में
कल की आशा है------
मैं,पीले फूलों वाला घर हू,
Wednesday, 23 November 2011
चाणक्य की शिखा
घन-घोर,घटाएं,घुमड-घुमड
घनानंद सी,दमित किये,उजियारे को
क्षितिज़-देश पर छाई है----
सूर्य-रथ के अश्वों को ,अंध किये
कहीं रोंदते, हाथी पथरीले
भविष्य,मूक-जनमानस के
कहीं,उलझ रहीं,सांसें अटकी सी
दिशा ढूढती,साइकिल के चाकों में
कहीं,दिशा-भ्रमित,ढोते अपनों के पुण्यों को
मूक-अंध-अश्व सा,किया जनमानस को—
कहीं,रथ पुनः हुए,अवतरित-----
भविष्य-दृष्टि-विहीन,उनके चाकों के
राजनीति के चोरों ने,सेंध लगाई
घर-घर के,कोने-कोने में-----
हर-दिन, झूटे-मंच, सजे हैं
नित-नए,झूठे वादों से---
समाचारों में भी,वही छपे नाट्य
वही,संवाद- वाद – विवादों के
नित-नये-मंच पर हो आसीत
नित-रोज, जुटाते, भीड खरीदी सी
ताली भी बजवाते हैं-----
नज़रों के छुपे इशारों से
हर-रोज, आंकडे रटते है
रट्टू – तोतों के पाठों से
बंटता ग्यान,रोज-रोज,सूखी रोटी सा
कितना खाएं उनको,चिपके पेट,भूखों से
कीचड,रोज उछल रही,औरों पर
जिस कीचड में,खुद सने हुये
योग-गुरू जो थे, अब-तक
स्वम, योग-गणित में,उलझे-उलझे से
एक बार,देश बंटा था—
गैरों के निष्ठुर हाथों से
अब, प्रितिदिन, बंट रहा,प्रांत-प्रांत
अपनों के निष्ठुर हाथों से---
बदले में,एक कुर्सी की, अतृप्त-प्यास
वह भी , केवल,पांच – वर्षों की---
इतना,स्वंम-स्वार्थ –लोभ,तुलता है
कल-आज-कल ,देश के सपनों से
अब,कब ,एक चाण्कय खोलेगा
बंधी – शिखा की गांठों को
खोजेगा , कब,धूल-भरी-बीथियों में
चंद्रगुप्त के बिखरे बचपन को—
अब, कब होगा ,भंग-दंभ
घनानंद की टेढी , भृकुटि का
अब,कब, बांधेगा ,पुनः शिखा(चाण्क्य कोई )
खोली थी,जो कभी, दिशा-भ्रमित-दंभ की,ढ्योढी पर.
मन के - मनके
Thursday, 17 November 2011
Rebuilding A House---
ज़िन्दगी की इमारत-मरम्मत की मुहताज़ है
कभी-कभी इसके नक्शे भी बदलने होते हैं
इसकी बुनियाद को खंडहर ना होने दिया जाय
और,खुद को,इन खंडहर की टूटी ईंट ना बनने दिया जाय---
यही जीवन-सत्य है.
कल मेरा,एक ऐसी खबर से सामना हुआ,जो आम-खबर थी.हर दिन,ऐसी खबरें,हमारे आगे-पीछे
अपनी गर्दिशों की धूल उडाती रहतीं हैं,जिन्हें हम कपडों पर पडी धूल की तरह झाड कर आगे निकल जाते हैं.
रोज़ सुबह,समाचार-पत्रों का एक बडा हिस्सा ऐसी ही खबरों के रंगों से रंगे जा रहें हैं.
मेरे पडोस में एक परिवार रह रहा था.उस परिवार में ,पति-पत्नि,उनका एक बेटा व एक बेटी,
साथ में उन सज्जन की मां भी साथ रहती थीं.
जब कभी,मेरा उनसे आमना-सामना हुआ,हमेशा ही उनकी पत्नि ने मुझे विश किया,और साथ ही
घर आने का छोटा सा आग्रह भी.
अक्सर,वे अपनी पत्नि के साथ,बालकनी की रेलिंग से लटके से खडे रहते थे,सिगरेट के लंबे-लंबे
कशः लेते हुए.
एक दिन,करीब सुबह दस बजे,उन सज्जन ने बाथ के रोशनदान से रस्सी का फ़ंदा लगा कर
आत्महत्या कर ली.
यह एक अप्रत्याशित खबर थी,जिस पर कोई भी,सहज विश्वास नहीं कर सकता था,क्योंकि कुछ देर पहले ही,कई लोगों ने उन्हें चिरपरिचित अवस्था में, बालकनी में खडे देखा था.
अविश्वास की स्थिति में,मैं पढे हुए समाचार-पत्र के पन्नों को दुबारा पलटने लगी.
उस समाचार-पत्र में,मुझे ऐसी कोई खबर नहीं मिली जिसे दुबारा पढा जाय.अतः पास पडी,
पालो कोल्हो की पुस्तक ’ लाइक द फ़्लोइन्ग रिवर ’ उठा ली और उसके पन्ने पलटने लगी.
अचानक,एक शीर्षक पर नज़र पड गई—री बिलडिन्ग ए हाउस.
यह एक-डेढ पेज का लेख था,जो संस्मरण के रूप में था.
जिसमें एक ऐसे आदमी की कहानी है.जो परिस्थितिवश कर्ज़ में डूब जाता है,और जीवन के लिए देखे सपनों को वह पूरा नहीं कर सकेगा.इन हालातों में उसने आत्महत्या करने की सोची.
ऐसी मनःस्थिति से घिरा,एक दोपहर ,वह कहीं किसी रास्ते से गुज़र रहा था,तभी उसकी नज़र
एक मकान पर पडी,जो खंढहर हो चुका था.उस खंढहर हुए मकान को देख कर,वह आदमी सोचने
लगा कि---मेरी हालत भी इस मकान जैसी है.
उसी क्षण एक विचार उसके मन में कोंधा—क्यों ना इस मकान की मरम्मत कर दी जाय.
उसने उस मकान के मालिक का पता लगाया व उसके सामने अपना प्रस्ताव रखा. उस मकान के मालिक ने उसके प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया और उस मकान को पुनःजीवन देने के लिये आवश्यक व्यवस्था कर दी,हालांकि,मकान-मालिक समझ नहीं पा रहा था कि इस जर्जर मकान की
मरम्मत करके इस आदमी को क्या हासिल होगा.
जैसे-जैसे,उस मकान की मरम्मत होती गई,वैसे-वैसे वह आदमी को लगने लगा,कि उसका जीवन भी इस जर्जर मकान की तरह सुधरने लगा है.
कहने का आशय है, उस मकान की मरमत्त करके, उसे जीवन की सच्चाई समझ आने लगी.
जीवन की इमारत भी,हमेशा मरमत्त मांगती है.
समय-समय पर,इसकी टूट-फूट को ठीक करते रहना चाहिए और मन से तैयार रहना चाहिए
कि ज़रूरत पडने पर,इसके नक्शे को भी बदलना पडे तो कोई हिचक ना हो.
क्योंकि,इमारत का महत्व तो है लेकिन उसमें रहने वाले अधिक महत्व्पूर्ण हैं.यदि रहने वालों का आस्तित्व नहीं है,तो इमारत तो खंडित होगी ही. रहने वाले जहां भी डेरा डाल लेते हैं,इमारत वहीं खडी
हो जाती है
परंतु,आत्महत्या जैसा कदम उठा कर,उन्होंने जीवन के,अन्य गंभीर मसलों की भी हत्या कर दी.
उन्होंने,अपने व्यापार,नफ़ा-नुकसानोम को इतनी अहमियत दे दी,कि अपनी पत्नि,बच्चों व विधवा मां
के आज को भूल गये,आने वाले भविष्य की आहट ना सुन सके.
वे आंसू,जो उनके ना होने पर बहेंगे,उनकी कीमत कैसे आंकी जाएगी,बच्चों की सूनी आंखे
जो अपने पिता की मौजूदगी को ढूंढेगी ,उनका खलीपन वे नाप नहीं सके.
यह तो इस त्रासदी का भावात्मक पक्ष है.एक दूसरा पक्ष भी है,जो हम ऐसी परिस्थियों का सामना
करते हुए भूल जाते हैं---वह यह,रास्ते बहुत हैं,जिन्हें ढूंढा व पाया जा सकता है,लेकिन हम केवल रास्तों की पगडंडी पर घिसटते ही रहते हैं.
होता यह है,अक्सर ही,संभावनाओं के दरवाजों को हम खोल नही पाते हैं,जो उढके होते हैं ,उनको हम और बंद कर देते है.
अतः,जीवन जीते ही रहना चाहिए,उसे छूते ही रहना चाहिए,उसकी चाल को समझते रहना चाहिए
कुछ भी तो स्थिर नहीं है,सब कुछ बदल रहा है,संभावनाएं-असंभावनाएं बन रहीं है.असंभावनाएम,संभावनाएं
ओशो कहते हैं---
आस्तित्व संभावनाओं से भरा पडा है,हर-पल आस्तित्व हमारी रक्षा कर रहा है..
मन के--मनके
Friday, 11 November 2011
एक अहसास-पछतापे का,पश्चाताप के आंसू,पलकों पर,सहेजने का
जीवन की पूरी परिभाषा करें और सरल-सहज शब्दों में करें,तो संबन्धों की डोरी में,अहसासों के मोतियों की लडी है,जब चमकती है,अपनी चमक की आभा चारों ओर बिखेर देती है,जब भी हम उन मोतियों को,समय-समय पर साफ करते हैं,उन्हें अपनी स्मृतियों के आंचल के कोमल स्पर्श से छूते रहे हैं.
इस अहसास से,मानव जीवन ही सिंचित नहीं होता,पशुओं में भी इस अहसास को महसूस किया जाता रहा है,बेशकः उनकी पशुता,कितनी ही पाशविक क्यों ना हो.
इन अहसासों की छांव तले,वे भी मानवता के गुणों से भर जाते हैं,तब मनुष्य-पशु के बीच की खाई की गहराई कम हो जाती है.लगने लगता है,ईश्वर ने,इन अहसासों को,सबको समानता के आधार पर बांटा है,भेद हमारी आंखों में रह जाता है,ईश्वर की निगाहें भेद रहित हैं.
जीवन में,कभी-कभी कुछ घटनाओं के घटित होने के कारण समझ में नहीं आते हैं,हांलाकि,कुछ समय बाद लगता है,यदि ऐसा ना होता तो ये ना होता या ऐसा नहीं होना चाहिये था.
अपने कुछ संबन्धों की विवेचना जब भी करती हूं,तो लगता है कि यदि ऐसा हो जाता या मैं ऐसा कर पाती तो इन घटनाओं की परिणिति कुछ और ही होती,परंतु बात लौट कर वहीं पर आ जाती है—नियति ने लिखा ही यही था तो ऐसा क्योंकर न होता?
खैर,प्रश्न-दर-प्रश्न,हमें कहीं नहीं पहुंचाते,या तो ,हम दार्शनिक प्रश्नों पर उलझे रहेंगे या फिर
दोषारोपण के चक्रव्यूह में घिर कर,अपराधबोधों के बाणों से धाराशायी हो जाएंगे.
जीवन का स्वभाव,पानी के स्वभाव जैसा जान पडता है—पानी को जिस पात्र में रखें,वह उस
पात्र की शक्ल में परिवर्तित हो जाता है,जीवन को,जितना ही हम उलझाते जांए,वह उलझता जाता है और उलझी हुई ऊन के गोले को सीधा लपेटना शुरू कर दें ,तो ,एक गोले की तरह हमारी मुठ्ठी में आ जाता है.
बात अह्सासों से शुरू की थी,एक अहसास-पश्चाताप का,उन अहसासों के लिये,जिनको हम वक्त रहते महसूस ना कर पाये और हमारे पास केवल पश्चाताप है,जिसे हृदय के पास थोडी सी जगह
देनी चाहिये,अपनी भूल को,अपने दंभ की तपिश पर,ठंडे पानी की छीटें देने के लिये,ताकि,यह तपिश
हमें भस्म ना कर दे और हम कहने का साहस कर पाएं कि हमें पछतावा है,हमने पश्चाताप के कुछ
आंसू,पलकों पर रख लिये हैं,जिनकी गर्माहट आगाह करती है कि जीवन की राह पर पडे अहसासों के फूलों को दंभ के पैरों से रोंदते हुए ना निकल जाना,कोशिश करना कि उन फूलों को उठा कर
अपनी मुठ्ठी में बंद करने की,ताकि कभी जब हम अकेले रह जाएं तो उन फूलों की महक साथ चल
सके.
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