अमलतासी झूमरे देखी हैं,आपने?
वो,अमलतास की पीली,पीली झूमरे,लगता था जैसे सूरज फूट पडा हो अपनी धधक को लेकर,इतनी पीली कि, आंखे चुधिया जाएं.
दिखते हैं आज भी अमलतास,इक्का,दुक्का लेकिन वो बात नहीं जब वे कतारों में खड़े होते थे और उनकी लटकती लच्छेदार पीली,पीली झूमरे जैसे ज्येष्ठामासी बारहबजियाँ हों,कभी,कभी लटक कर इतनी नीचे आ जाती थीं कि,उचक,उचक कर छूते हुए चलते थे ,हम.
लगता था हाथ ना जल जांय कहीं, लेकिन, चंदन सी ठंडी थीं,पीली,पीली अमलतासी झूमरें.
जब मई,जून की पूरे दो माह की गर्मियों की छुट्टियां हो जाती थीं,घरों में बड़ों के हाथों में ताशों की गद्दियाँ आ जाती थीं और हम बच्चे निकल पड़ते थे,घरों से बाहर,अमलातासी दुपहरियों में,अमलतासी राहों पर.
देखिये,उन दिनों खेल कूद का चलन भी बदल जाता था,मौसम के मुताबिक़.
हम बच्चों के लिए सारी दुपहरी सोना भी मुमकिन नहीं था,सो बड़े लोग ताशों की गद्दियाँ चटकाया करते थे और हम बच्चे तुरुप की टांक ,झाँक करते रहते थे ,जब चाहें किसी की टोली में शामिल हो जाते थे,जब दुद्कारे जाते तो निकल पड़ते,और पहुँच जाते अमलतासी शरण में.
क्या आपने हरियलडनडा खेला है--मई,जून की गर्मियों की छुट्टियों में?
अगली बार,अगली पोस्ट पर इंतज़ार कीजिये,धन्यवाद.
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