प्रिय राजीव,
इतने वर्ष मुट्ठी से यूं सरक गये कि मुट्ठी को देखने का
साहस नहीं हुआ,
सोचती हूं ,इतना लंबा वक्त रेत की नाईं कहां सरक गया!!!
यूं तो मैं तुम्हारी मां हूं,परंतु कभी-कभी ’मां’ शब्द बडा
ही कन्फूजन वाला हो जाता है---मां,मां,मां----
जितनी बार कहो,हर बार अलग-अलग रूप में आकर सामने खडा हो
जाता है.
मां यशोदा कान्हा की मां नहीं थी,धाती थीं,फिर भी उन्होंने जन्मदात्री
से बडा स्थान पा लिया.
इसी प्रकार,छत्रपति शिवाजी की मां,जीजाबाई,जिन्होंने ’मा’
शब्द को अलग रूप से परिभाषित किया.
एक मां, कोमलता की सीमा को लांघ गयी तो दूसरी ने कठोरता की
अभेद किलेबंदी की.
मैं समझती हूं ---’मां’ तो केवल ’मां’ होती है,इतनी विराट
कि जैसे बाल कृष्ण ने अपने खुले मुख में,पूरी सृष्टि ही दिखा दी हो!!!
’मां’ की सार्थकता को ढूंढा नहीं जा सकता ना ही सिद्ध किया
जा सकता है,ना ही उसकी सार्थकता के सामने प्रश्न चिन्ह लगाए जा सकते हैं.
मैं, आज भी उन क्षणों की व्याकुलता को,उतनी ही व्याकुलता से
महसूस कर पा रही हूं,जितना कि करीब ४०-४५ वर्ष बाद.
घटना सन १९७२ की है,हम लोग कुछ समय पूर्व ही आगरा से दिल्ली
शिफ्ट हुए थे.प्रगति मैदान में पहली बार एशियाड मेला लगा हुआ था.वहां जापान की टोय
ट्रेन लगाई हुई थी जो बच्चों के लिये एक बहुत बडा आर्कषण था.
किसी लापरवाही के कारण,तुम ट्रेन से उतर कर गलत दिशा की ओर
चले गये और हम लोग दूसरी ओर तुम्हारा इंतजार करते रहे.
कुछ देर इंतजार के बाद,जब तुम कहीं नजर नहीं आये तो मैं
व्यकुल हो उठी और अपने को रोक नहीं पाई,तभी अंतर्मन में एक शंका ने जन्म लिया और
मेरा मन संशकित हो उठा.
अचानक,कोई एक ऐसी शक्ति थी, जो मुझे उस ओर लेकर जा रही थी
जिस ओर तुम रोते हुए,लोगों की भीड में ओझल होते जा रहे थे.
एक ऐसी शक्ति अवश्य होती है या कि एक डोर जो मां को उसके
बच्चे से जोडती है.
उस क्षण जो व्याकुलता,बैचेनी और ना जाने कैसी-कैसी शंकाएं
नित-पल जन्म ले रहीं थीं----लगता था मेरे आस्तित्व का एक अंश मुझसे कट रहा है ,और---दूर
हो रहा है.
वो नीले रंग की जेकेट ,सही मायने में उसका रंग रोयल-ब्लू
कहा जा सकता है,जो तुम उस समय पहने थे,वो रंग आज भी हजारों रंगों में से अलग से
पहचान सकती हूं.
तुम्हारा---,मम्मी-मम्मी,कहते हुए---भीड में ओझल होते
जाना---वो पुकार--- आज भी मेरे कानों में गूंजती रहती है---जब भी तुम भावात्मक डोर
से मुझसे छिटकने लगते हो-----
इसके बाद,कितनी बार ऐसे क्षण आये---रातॊ की नींद चली
गई,खाना बेस्वाद हो गया---एक कोशिश---कि जो कुछ भी मेरा है, वह तुम्हारा हो जाय और
तुम सुकून में आ जाओ----कहीं खो ना जाओ----
इस ,मां, की अभिव्यक्ति कुछ अलग जरूर है----लेकिन, अनुभूति
तो केवल एक ही है, जो सिर्फ एक मां की हो सकती है.
मेरा मानना है,मां की अपनी अभिव्यक्ति जो उसकी जन्मदात्री
के रूप में होती है---जो उसके आस्तिव के बीज में विद्धमान है,वह कभी भी उससे टूटना
नहीं चाहती है, क्योंकि वही उसका पूर्णता है.
उस घटना ने, दो स्मृतियां मेरे मानस-पटल पर ऐसे अंकित कर दी
हैं, जैसे कि किसी शिला पर छपे दो पद-चिन्ह----एक,तुम्हारी जेकेट का रायल-ब्लू रंग
और दूसरा ’मम्मी-मम्मी’ की दूर जाती तुम्हारी आवाज------
तुम्हारी मम्मी