लेकिन कृष्ण ‘मल्टी डायमेंशनल’ हैं.ऐसा आदमी जमीन पर खोजना
कठिन है,जो कृष्ण में प्रेम करने योग्य तत्व न पा ले.----कृष्ण एक आरकेस्ट्रा
हैं.जिन्होंने भी प्रेम किया उन्होंने कृष्ण में चुनाव किया है’. (ओशो)
कृष्ण ने मानवीय अवधारणा को टोटेलिटी में उतारा
है,इंद्रधनुष की छटा के साथ---और वही मुक्त है जो सभी आयामों में गुजरता हुआ,स्वम
से भी गुजर जाय.
कृष्ण का बाल रूप---माटी से सनी काया,पैरों की रुन-झुन से
गुंजायमान मातृत्व,मुख-मंडल पर दैवीय-दीप्ति,आंखों में आस्तित्व की सम्पूर्ण
निश्चलता,अधरों पर क्रंदन भी और स्मित भी,जैसे धूप-छांव.
और मथुरा की वीथियों में अपने ग्वाल-बाल संग,बचपन की
क्रीडाओं को बिखेरते जाना जैसे फूलों की पांखुरी.चोरी के माखन को मुंह पर
लिपटाना,चोरी और सीनाजोरी.
मानवीय इतिहास की महभारती वीथियों में बिखरा पडा है
सांवला-सलोना अबीर,उडाते जाइए,अपने को रंगते जाइये.
युवावस्था की नादान-नादानियां को सहजता-सरलता से जी लेना अब
कहीं और मिलेंगी.अल्हड गोपियों के साथ अल्हद छेड-छाड और कहीं लंपटपन भी नहीं,केवल
वही गले लगा सकता है,वही हाथ पकड सकता है,जो हृदय तलक अछूता हो---वहां प्रेम ही
फूटेगा,ऐसी धारा जमुना में गंगा बहने लगे,सारे पाप विसर्जित हो जांय,आलिंगन भी
मान्य हो जाय,चीर-हरण भी अबोध क्रीडा बन जाय---और---इन क्रीडाओं में निकल कर,उस
राह पर चले जाना,जहां वह सब कुछ त्याग दिया जाय जिसे त्यागना असम्भव हो.
भारत का महाभारत रचना,अर्जुन को कर्म के पथ पर लौटा कर
लाना---अपनों को अपनों से ही मरवाना,लौकिक-पारलौकिक,स्वर्ग-नरक,जीवन-मृत्यु इतना
सूक्ष्म कर दिखलाना कि,पानी की धार सी सभी परिकल्पनाएं कहीं से भी अपनी राह बना
लें और संसार-पर्मात्मा-स्वर्ग-नर्क-जीवन-मृत्यु के महासागर में विलीन हो---शून्य
हो जांय---यही कर्म-योग का ग्यान-योग है----और सब कुछ है और कुछ भी
नहीं---शून्य-शून्य-शून्य---
मथुरा की वीथियां वीरान हो गईं,गोपियां विरहन,मां यशोदा का
आंचल,आंसुओं से सिक्त,जहां अब भीगनों को कुछ भी शेष नहीं,बाल सखा
विभ्रमित-विक्षिप्त,पैरों के कदम जड हो गये,हाथों की बांहें सिमट गईं,आंखों का
पानी पाषाड हो गया----और वो गये सो चले गये बगैर पीछे मुडे.
जीवन का सत्य,हर क्षण बदल रहा है,जो इस पल है वह अगले ही पल
ना होगा.
केवल स्वीकार भाव से ही सत्य के दानावल को लांघा जा सकता
है---और पार होना ही होगा,अन्यथा भस्म होना होगा.
द्वारिका के महल,राज-पाट,सोलह हजार रानिओं के पतित्व का
निर्भाय---क्या आसान था,राधा के ना होने पर.
वंश-वृद्धि के
साथ वंश नाश की पराकाष्ठा को स्वमसात करना,और जब पाया कि इस परिदृश्य में उनकी
भूमिका निरर्थक-सरहीन हो गई है,तो शांत-मौन त्यागी की भांति,सरकंडों की वीरानियों
में भटक गये---अंतिम पराकाष्ठा के निर्वाह के लिये.
और उनके पदम पैर के अंघूठे पर बहेलिये का विषाक्त तीर
लगना,नियति का अंतिम संदेश----कृष्ण---शांत-भाव में लीन,होंठों पर चिर-परिचित
स्मिता,और पलक उठा कर बंद कर ली---हां स्वीकार है.जाते-जाते म्रुत्युदाता को अपराधबोध
से मुक्त कर,उसकी पीडाओं को क्षमा के शीतल जल से सिक्त करते हुए.
क्योंकि सब कुछ पूर्वनियोजित है यहां---केवल स्वीकार-भाव ही
शेष है,शाश्वत है—यही होना ही चाहिये.
मन के-मनके