जो महक , सालों पीते ( जीते ) रहें हैं, हम
जिन गर्म चादरों से मुंह ढ्क कर सोते रहें हम
मौसम की पहली बारिश की ठंडी बूंदों से
तपते दिनों को मिलती थी , जब ठंड्कें
सूखी रेत से भी उठ्ती थीं , जब सोंधी महक
उनीदी , दुपहरियों को सींच देती थी ,
उमसी - ठंडी हवा के झोंके --कभी
उस महकको , जो मिट्टी के चुल्हों से
उठ्ती थीं-- कहीं रात - दिन
मौसम की बयारॊं की तरह
अपनी धुंधली यादों के े
दरकते शीश महलों के
किसी सूने से कोने में ही सही
पुराने गुलदानों में सूखे फूलों की तरह
रखेर हने देना उन्हें
तब तुम्हारी यादों मेंह ी सही
वही पुराने गुलादानों में सजे
सूखे फूल ही सही
फिर से महका जायेंगे ,तु्म्हें---
जिन गर्म चादरों से मुंह ढ्क कर सोते रहें हम
मौसम की पहली बारिश की ठंडी बूंदों से
तपते दिनों को मिलती थी , जब ठंड्कें
सूखी रेत से भी उठ्ती थीं , जब सोंधी महक
उनीदी , दुपहरियों को सींच देती थी ,
उमसी - ठंडी हवा के झोंके --कभी
उस महकको , जो मिट्टी के चुल्हों से
उठ्ती थीं-- कहीं रात - दिन
मौसम की बयारॊं की तरह
अपनी धुंधली यादों के े
दरकते शीश महलों के
किसी सूने से कोने में ही सही
पुराने गुलदानों में सूखे फूलों की तरह
रखेर हने देना उन्हें
तब तुम्हारी यादों मेंह ी सही
वही पुराने गुलादानों में सजे
सूखे फूल ही सही
फिर से महका जायेंगे ,तु्म्हें---
बहुत बढ़िया अभिव्यक्ति!
ReplyDeleteसुन्दर पंक्तियाँ।
ReplyDeleteतब तुम्हारी यादों मेंह ी सही
ReplyDeleteवही पुराने गुलादानों में सजे
सूखे फूल ही सही
फिर से महका जायेंगे ,तु्म्हें---
जीवन को पूरी तरह से अभिव्यक्त के दिया आपने ...आपका आभार
कुछ तो है इस कविता में, जो मन को छू गयी।
ReplyDeletesukhe phoolon ki mahak kabhi kam nahin hoti...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर!!!
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