मैं , यह तो न कह पाउंगी
कि
तिर्ष्कार मुझे दुखाते नहीं हैं
मैं , यह भी न मान पाउंगी
कि
अपनों के दिये दर्द मुझे रुलाते नहीं हैं
क्योंकि
अपनी आदमियत को , कैसे खोऊं , और कहां
कि
इसके बिना ,जी भी तो न पाउंगी मैं
मैं यह भी न कह पाउंगी
कि
उंगलियों की पोरों पर चुभे काटें
मुझे सालते----------- नहीं हैं
क्योंकि ,
जब चुभते हैं , तो
दो बूंद झ्लकती ही हैं
अपनों की बदली - बदली सी आंखों में
कब तक झांक कर देख पाउं , खुद को
क्योंकि
अपने को ही , अब वहां पाती नहीं हूं मैं
कब तलक
अपनों के स्पर्शों में खोजूम
अपने वज़ूद की गर्मी को
अब तो
वो भी ठंडी सी
हो ही , गई हैं
मैं , यह तो न कह पाऊंगी , कि
मन के - मनके
कि
तिर्ष्कार मुझे दुखाते नहीं हैं
मैं , यह भी न मान पाउंगी
कि
अपनों के दिये दर्द मुझे रुलाते नहीं हैं
क्योंकि
अपनी आदमियत को , कैसे खोऊं , और कहां
कि
इसके बिना ,जी भी तो न पाउंगी मैं
मैं यह भी न कह पाउंगी
कि
उंगलियों की पोरों पर चुभे काटें
मुझे सालते----------- नहीं हैं
क्योंकि ,
जब चुभते हैं , तो
दो बूंद झ्लकती ही हैं
अपनों की बदली - बदली सी आंखों में
कब तक झांक कर देख पाउं , खुद को
क्योंकि
अपने को ही , अब वहां पाती नहीं हूं मैं
कब तलक
अपनों के स्पर्शों में खोजूम
अपने वज़ूद की गर्मी को
अब तो
वो भी ठंडी सी
हो ही , गई हैं
मैं , यह तो न कह पाऊंगी , कि
मन के - मनके
अपनों के स्पर्शों में खोजूम
ReplyDeleteअपने वज़ूद की गर्मी को
अब तो
वो भी ठंडी सी
हो ही , गई हैं
मैं , यह तो न कह पाऊंगी , कि
मन की कश्मकश को बखूबी विस्तार दिया है
कैसे संभव है यह न कह देना.....भावपूर्ण..
ReplyDeleteमैं , यह तो न कह पाउंगी
ReplyDeleteकि
तिर्ष्कार मुझे दुखाते नहीं हैं
bahut hi achhi rachna
आंतरिक कशमकश का अत्यन्त भावपूर्ण चित्रण.
ReplyDeleteबहुत अच्छे भाव
ReplyDelete.
ReplyDeleteतिरस्कार से मन तो दुखता है , लेकिन इस बात से की तरस्कार करने वाला अभी तक बड़ा नहीं हुआ है , बड़ा हो जाएगा तो प्रेम करना सीख जाएगा ।
.
मन के अंतर्द्वद को बड़ी संवेदनशीलता के साथ अभिव्यक्ति दी है ! बहुत ही सार्थक प्रस्तुति ! बधाई स्वीकार करें !
ReplyDeleteआदरणीय डा० उर्मिला सिंह जी
ReplyDeleteनमस्कार !
बहुत खूब .जाने क्या क्या कह डाला इन चंद पंक्तियों में
कमाल की लेखनी है आपकी लेखनी को नमन बधाई