Saturday, 26 March 2011

मैं , यह तो न कह पाउंगी------

मैं , यह तो न कह पाउंगी
                    कि
तिर्ष्कार मुझे दुखाते नहीं हैं
मैं , यह भी न मान पाउंगी
                   कि
अपनों के दिये दर्द मुझे रुलाते नहीं हैं
                  क्योंकि
अपनी आदमियत को , कैसे खोऊं , और कहां
                    कि
इसके बिना ,जी भी तो न पाउंगी मैं
मैं यह भी न कह पाउंगी
                    कि
उंगलियों की पोरों पर चुभे काटें
मुझे सालते----------- नहीं हैं
                    क्योंकि ,
जब चुभते हैं , तो
दो बूंद झ्लकती ही हैं
अपनों की बदली - बदली सी आंखों में
कब तक झांक कर देख पाउं , खुद को
                     क्योंकि
अपने को ही , अब वहां पाती नहीं हूं मैं
                     कब तलक
अपनों के स्पर्शों में खोजूम
अपने वज़ूद की गर्मी को
                 अब तो
वो भी ठंडी सी
हो ही , गई हैं
                              मैं , यह तो न कह पाऊंगी , कि
               
                                                                                 मन के  - मनके
              

8 comments:

  1. अपनों के स्पर्शों में खोजूम
    अपने वज़ूद की गर्मी को
    अब तो
    वो भी ठंडी सी
    हो ही , गई हैं
    मैं , यह तो न कह पाऊंगी , कि

    मन की कश्मकश को बखूबी विस्तार दिया है

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  2. कैसे संभव है यह न कह देना.....भावपूर्ण..

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  3. मैं , यह तो न कह पाउंगी
    कि
    तिर्ष्कार मुझे दुखाते नहीं हैं
    bahut hi achhi rachna

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  4. आंतरिक कशमकश का अत्यन्त भावपूर्ण चित्रण.

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  5. .

    तिरस्कार से मन तो दुखता है , लेकिन इस बात से की तरस्कार करने वाला अभी तक बड़ा नहीं हुआ है , बड़ा हो जाएगा तो प्रेम करना सीख जाएगा ।

    .

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  6. मन के अंतर्द्वद को बड़ी संवेदनशीलता के साथ अभिव्यक्ति दी है ! बहुत ही सार्थक प्रस्तुति ! बधाई स्वीकार करें !

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  7. आदरणीय डा० उर्मिला सिंह जी
    नमस्कार !
    बहुत खूब .जाने क्या क्या कह डाला इन चंद पंक्तियों में
    कमाल की लेखनी है आपकी लेखनी को नमन बधाई

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