Wednesday, 16 March 2011

गलीचा

जब छोटी थी
तब,मां ने सिखाया था
गलीचे के धागों को पिरोना
हजारों गाठों को हजार गाठों से जोड़ना
             एक बार भूल हो गई
             गलीचे की हजार गांठों में
            एक गांठ कहीं छूट गई
            और गलीचे पर उभरे
            मोर-पंखों की पांते
            बिखर गई थीं.....
तब,सोचा कि
उधेड़ कर फिर से
हजार  गांठों से
हजार गाठें जोड़ दूं
             पर फिर वो जुनून न था
             जो पहले जीवन में भरा था
            अब वह रीत गया था
            और गांठों के मोर-पंख
            कही बिखर गये थे......
तब,मां ने कहा था
अब तुम रिश्तों के गालीचे पर
रिश्तों के मोर-पंख बिनोगी
ध्यान रखना कि एक भी गांठ रिश्ते की
कही छूट न जाय
मोर-पंख टूट कर बिखर जाएगें
तब रिश्तों का गलीचा
दरवाजे पर बिछा
एक पैर-दान की तरह बिछ जायगा


                            उमा (मन के-मनके)

5 comments:

  1. रिश्तों का गलीचा ....गहन अभिव्यक्ति

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  2. रिश्तों के गलीचों में कोई गाँठ न लगे।

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  3. ओह... कितना ,कितना सही कहा...

    सरल तरीके से कितनी गहरी बात कह दी आपने...पर आज के समय में कितने लोग इस तरह सोचते हैं ??

    लेकिन जो ऐसा सोच लुप्त हो रहा है तो परिणाम भी हठीली पर पसरा ही हुआ है...सुख साधनों की भीड़ में घिरा आदमी भी अकेला अशांत बस इसी सोच के न होने के वजह से तो है...

    मन मुग्ध कर गयी आपकी रचना...

    बहुत बहुत आभार इस सुन्दर रचना के लिए..

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  4. बहुत ही भावपूर्ण एवं गहन अभिव्यक्ति!!

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