कितने स्वर्ग, विदा हो गये
मेरे आंगन के साये--- से
वो,फुदकती गुगुलियां
वो,कौवों की पांत मुडेरों पर
वो,काली फौज़,चीटों की
सिर पर थामे,गुड़ की भेली
कितने स्वर्ग, विदा हो गये----
वो,चीटियों की कतार, लम्बी सी
चली जा रहीं,मुंह से मुंह जोडे
वो,तितली रंगो का न्यौता देती सी
वो,भवरों की गुन गुन,घर-आंगन भर देती थी.
कितने स्वर्ग, विदा हो गये----
वो, गेदो की क्यारी,छोटी सी
वो,रात मह्कती,रात-रानी सी
वो, तुलसी का विरबा,कोने मे
ओढे,लाल-चुंदरिया जाडो की
कितने स्वर्ग, विदा हो गये----
वो,लिपा-पुता सा मेरा आंगन
महकाता सा,सांसो--- को
वो,पनारे---नाली के
बरसाती बाढ---- लिए
कितने स्वर्ग, विदा हो गये----
वो,महकते चूल्हे,मेरे आंगन के
कर देते थे----त्रप्त हमें
वो,अम्मा की रई- बिलौनी
घर्र-बर्र करती,मक्खन में
कितने स्वर्ग, विदा हो गये----
वो,चहल--- जीवन की
भोर-सुबह से चहकाती थी,जीवन को
लगता था,सांस चल रही
कड़-कड़ मे,जीवन की
कितने स्वर्ग, विदा हो गये----
वो,कटोरा-भुने दानों का
नन्हे-मुन्ने के हाथों मे
ढीठ-ठिठोली सी करते-करते
ले उड़ जाते थे, कौवो की टोली
कितने स्वर्ग, विदा हो गये----
हरे-हरे-धानी से तोते
लाल-सुर्ख चोंचो में ले
लाल कुतरते अमरुदों को
ले आते थे-आंगन में मेरे
कितने स्वर्ग, विदा हो गये----
वो,झूठे अमरुदों का स्वाद
कितना---मीठा होता था
ऎसे खाते थे जैसे
हम सब हों एक थाली का साथ
कितने स्वर्ग, विदा हो गये----
टीक-दुपहरी--- गर्मी की
कटती थी---नीम तले
जब,झुक-झुक----डाली
देती थीं----लोरी के झोंटे
कितने स्वर्ग, विदा हो गये----
भर-भर,गिलास पीतल के
नींबू,शक्कर-- सीकंजी से
पीते-पीते---दिन कटता था
गर्मी के--- मौसम में
वो, गिलास-कटोरे पीतल के
कहां,खो गये, सपने से बने
कितने स्वर्ग, विदा हो गये---------मेरे आंगन के साये से
मन के - मनके
(उमा)
मेरे आंगन के साये--- से
वो,फुदकती गुगुलियां
वो,कौवों की पांत मुडेरों पर
वो,काली फौज़,चीटों की
सिर पर थामे,गुड़ की भेली
कितने स्वर्ग, विदा हो गये----
वो,चीटियों की कतार, लम्बी सी
चली जा रहीं,मुंह से मुंह जोडे
वो,तितली रंगो का न्यौता देती सी
वो,भवरों की गुन गुन,घर-आंगन भर देती थी.
कितने स्वर्ग, विदा हो गये----
वो, गेदो की क्यारी,छोटी सी
वो,रात मह्कती,रात-रानी सी
वो, तुलसी का विरबा,कोने मे
ओढे,लाल-चुंदरिया जाडो की
कितने स्वर्ग, विदा हो गये----
वो,लिपा-पुता सा मेरा आंगन
महकाता सा,सांसो--- को
वो,पनारे---नाली के
बरसाती बाढ---- लिए
कितने स्वर्ग, विदा हो गये----
वो,महकते चूल्हे,मेरे आंगन के
कर देते थे----त्रप्त हमें
वो,अम्मा की रई- बिलौनी
घर्र-बर्र करती,मक्खन में
कितने स्वर्ग, विदा हो गये----
वो,चहल--- जीवन की
भोर-सुबह से चहकाती थी,जीवन को
लगता था,सांस चल रही
कड़-कड़ मे,जीवन की
कितने स्वर्ग, विदा हो गये----
वो,कटोरा-भुने दानों का
नन्हे-मुन्ने के हाथों मे
ढीठ-ठिठोली सी करते-करते
ले उड़ जाते थे, कौवो की टोली
कितने स्वर्ग, विदा हो गये----
हरे-हरे-धानी से तोते
लाल-सुर्ख चोंचो में ले
लाल कुतरते अमरुदों को
ले आते थे-आंगन में मेरे
कितने स्वर्ग, विदा हो गये----
वो,झूठे अमरुदों का स्वाद
कितना---मीठा होता था
ऎसे खाते थे जैसे
हम सब हों एक थाली का साथ
कितने स्वर्ग, विदा हो गये----
टीक-दुपहरी--- गर्मी की
कटती थी---नीम तले
जब,झुक-झुक----डाली
देती थीं----लोरी के झोंटे
कितने स्वर्ग, विदा हो गये----
भर-भर,गिलास पीतल के
नींबू,शक्कर-- सीकंजी से
पीते-पीते---दिन कटता था
गर्मी के--- मौसम में
वो, गिलास-कटोरे पीतल के
कहां,खो गये, सपने से बने
कितने स्वर्ग, विदा हो गये---------मेरे आंगन के साये से
मन के - मनके
(उमा)
सही कहा वक्त अपने साथ बहुत कुछ बहा ले जाता है जो लौटकर फिर कभी नही आता…………बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteन जाने कितना कुछ घट जाता है जीवन में, सुन्दर कविता।
ReplyDeleteभूली बिसरी सी यादें ...न जाने क्या क्या लुप्त हो जाता है ..
ReplyDeleteकहाँ खो गये अतीत के वे सुनहरे पल.
ReplyDeleteसमय का पहिया बहुत कुछ रौंद कर चला जाता है ...
ReplyDeleteसहज भावाव्यक्ति!!
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