Wednesday 22 January 2014

कुछ कहनी-अनकहनी सी कहनी



१.’आप बुलाएंगे’-----तो जरूर आएंगे
इस ’बुलाने’---के इंतजार में---
’आना’ भी भूल जाता है---आने को
कि---बुलाया भी जाता है----
              बगैर बुलाए भी---
             कभी-कभी—
                          २.’जिंदगी’ की फितरत में
                           हर ’मिलने’ का इशारा है---
                           कुछ---’अधूरे मिलने’ की ओर
                                       और---जो लकीरें----
                                       छोड आएं हैं,पीछे---अधूरी
                                       उन्हें---पूरी करने की ओर—
        ३.अब,क्या नाम दें—उसे
         क्या करें,बात उसकी—
         हम खुद से ही वाकिफ़ न थे
         उसे,उसकी क्या—पहचान दें 
   
कल की पोस्ट—’कुछ कहनी---’ कुछ तकनीकी कारणों से पोस्ट नहीं हो सकी,क्षमा करें.दुबारा डाल रही हूं,कृपया कुछ कहें.                              

Wednesday 15 January 2014

आश्चर्य------



आज,मानवीय जीवन का सबसे बडा आश्चर्य-----कि प्रत्येक
अपनी खुशियों की पोटली,अपने ही सिर पर ढोये,खुशियों
की खोज में,यात्रा कर रहा है-----खाली हाथ!!!
नहीं,क्षमा करें---खाली हाथों में,प्रश्नों की,छोटी-छोटी पर्चियां हैं,
जो सिर पर रखी पोटली से भी अधिक भारी हैं.
१.खुशियां कहां गायब हो गईं? क्या वाकई हम जानते हैं,खुशियां क्या हैं?
२.खुशियां कैसे पाएं और कहां? क्या वाकई हम जानते हैं,खुशी पाने की वस्तु नहीं है,वह यहीं है?
३.खुशियां पहले थीं और अब नहीं हैं? क्या हम जानते हैं,खुशियां पहले कभी नहीं थीं,ना ही कल होगीं---वे अभी और इसी पलभर ही हैं?
४.हमारी खुशियों के लिये क्या कोई और जिम्मेवार है? क्या हम जानते हैं हमारी खुशियों के लिये हम स्वम ही जिम्मेवार हैं?
५.क्या हमने/आपने अपने आप से कभी पूछा है---
अ.मैं कौन हूं?
ब.मैं यहां क्यों हूं?
स.मैं क्या चाहता/चाहती हूं?
या कि,उपरोक्त सभी प्रश्न हमारे/आपके लिये अर्थपूर्ण/अर्थहीन हैं.
आप इस बातचीत में भागीदार बनकर अपना कुछ समय नष्ट करना चाहेंगे?
या कि,खाली हाथों की छोटी-छोटी पर्चियों को,फाड कर,खुशी-खुशी घर जाना चाहेंगे?
निःसंदेह,परिवार के साथ,गर्म चाय का आनंद लेगें.
आपका सहर्ष स्वागत है.
                            पिछले कुछ दिनों से,ओशो को पढ रहीं हूं.एक कहानी कहना चाहूंगी या यूं कहूं लिखना चाहूंगी,वैसे तो कहानी सुनाई ही जाती है,परंतु यहां परिस्थितियां सुनाने की नहीं बन पड रही है सो लिख रही हूं.
हो सकता है,आप में से कुछ ने यह कहानी पढी व सुनी भी हो.परंतु कहानियां जितनी बार पढी व सुनी जाएं,उन में नये-नये आयाम खुलते जाते हैं. मुझे याद हैं बचपन के वो दिन जब हम रोज ही सुनी-सुनाई कहानियों को सुना करते थे,हर रोज नई-नई लगती थीं.
एक सीधा-सादा-सरल-सहज,आदमी किसी यात्रा पर निकला,वह भी रेल यात्रा,शायद उसकी पहली रेल यत्रा रही होगी.
अपने सामान की पोटली उसने अपने सिर पर रखी हुई थी और बडे इत्मीनान से रेल के डिब्बे के फर्श पर बैठ गया.आंखों में कौतहूल व कृतग्यता का भाव लिये.सोचता होगा कि कितना भाग्यशाली है जो उसे जीवन में इस यात्रा का आनंद मिला.
बिचारा या यूं कहें दुनियादरी से बेखबर---उसका बोझ अभी भी उसके सिर पर था.
खैर,यह कह्नी तो उस भोलेभाले इंसान की है जो बोझ को लिये भी कृतग्य है,
भगवान के प्रति,परंतु आज स्थिति विपरीत है.
हम जानते हुए भी अपने बोझ को सिर पर लिये चलते रहते हैं,ताउम्र और कोसते हैं,खुद को,दूसरों को और भगवान को भी नहीं छोडते.
यह बात और है---रोज मंदिरों में प्रसाद चढा कर कुछ और मांगना भी नहीं भूलते.
आज शब्दकोषों में से वे शब्द बाहर आ गये हैं जिनके अर्थों को कभी हम १०-२०-५० पन्नों को पलटने बाद ही ढूंढ पाते थे,और काम चलाने के बाद भूल भी जाते थे.
डिप्रेशन-सप्रेशन-कम्प्रेशन----ये शब्द आज गांव-गांव पंहुच गये हैं.
सच ही है आज,दुनिया पास-पास आ गयी है,और खुशियां दूर-दूर भाग रहीं हैं.
                                        मन के-मनके