Monday 14 March 2016

Kanhaiya—not an individual—An turning point.



Kanhaiya—not an individual—An turning point.
Is the suspected- investigation of the Cancer. Now already has been confirmed into the confirmed medical report.
It is when a disease—sets its roots,spreads its branches---symptoms are there—but we just give solace to ourselves—out of our own weakness of protecting our wasted interest mere for a year—for two years—or at the most ,for a term (of five years )in this political scenario—of ups and downs.
No,it can’t---is it,it—just it is this—no,it is in the genes of mother or may be in father’s genes---a genetic history--??
Social structure,loosning it’s grips on the chains of morality---?
Education system---collapsing—though we are forgetting—what is education—is it—demanding freedom sitting on the top of slogans—without realising—freedom has its price too??
Jobs are not being created—who will--??
We  are, in habit of relishing upon the tabled dinner,for decades---.
We are hard-habitual of throwing stones of accusation on the row –in the opposite row—for decades---.No matter—we are there?
Now—when the ugliest and most disfigured state of the epidemic—the cancer in thousands—is there on the details of the clinical report page—no need of open eyes,open ears—it is in the very air we breathe in and survive on---and the ailment is lying on the operation table—doctors are there with gloved hands ,holding their intelligence and for-sightedness--.
What is the Moral Ethics of Medical Science??
Should it be left—with a mere cut—hoping -will cure itself—or die-- with time?
Should it be—covered with a heaps of gauge—so that it is not visible—not able to break our nerves ---??
Should it be cut out in total—hard handedly—but with care and affection—because we are dealing with the diseased part of the body not the whole of the body.
The body is the valuable unit of the country—that  is our Nation—a pride to be lived—to be honoured.
Jai Bharat—proud of being an Indian.

Sunday 13 March 2016

घर एक रहनुमा की टंगी कमीज भी होता है



                      
घर क्या होता है?

एक घर है—जिसे घर की तरह
हर-रोज बु्हारती रहती हूं,मैं
पर मेरे ही पैरों में लगी धूल
वापस लौट आती है,्फिर-फिर
समझदार बहुत हूं मै,कि
घर तो घर ही होता है
पर घर में क्या होता है
कौन होता है—
समझदारी में भी नासमझी सी हो जाती है
औरो से पूछा—हालांकि सालो की समझदारी है,पास
किसी ने कहा—घर-घर होता है
किसी ने कहा,घर दो कमरों का होता है
किसी ने कहा,घर तीन कमरों का भी होता है
किसी ने कहा, झोपडा भी तो घर होता है
किसी ने यह भी कहा
राजा का महल भी तो राजा का घर होता है
पर किसी ने भी यह नहीं कहा,कि
घर एक रहनुमा की टंगी कमीज भी होता है
जिसका टूटा बटन,बुहारते समय उठा कर
कमीज में दुबारा टांगना भी होता है
बाकी कमीज की महक को
बाहों में समेटे हुए--.
घर क्या होता है---?

Wednesday 9 March 2016

अकेली थी—नितांत नहीं?



अकेली थी—नितांत नहीं?
अंग्रेजी में—इन दो शब्दों को बहुत खूबसूरती से अलग कर के जोडा गया है,
Aloneness and Lonaliness.
आइये चलते हैं—नदी के इन दो किनारों के बीच और बह निकलते हैं-- यादों के दरिया में—शब्दों की पतवार लिये—यही है—अपने अकेलेपन(अलोन्नेस) को वक्त की ठंडी-ठंडी हवा के झोंको में, जीवन के कुछ पलों को छोड कर,जो उनीदे से हो गये हैं—नोकाविहार का आनंद लिया जाय.
बार्बीडोल—को ७०-८० के दशक में सुना करते थे—हालांकि कभी खरीदा नहीं,कारण पहुंच से दूर थी—अमेरिका की दूरी की तरह—और बेटी ने भी कभी जिद नहीं की—वरना कुछ ना कुछ करते जरूर.
हमारी बारबी डोल—बात करीब आधी दशक पुरानी तो है—परंतु आज भी यादों के झरोखों से उसे देख ही लेते हैं.
पुराने सूती कपडों की तलाश (अब निहायत सूती कपडे नहीं मिलते),उन्हें धोना-तहों में रखना,छो्टी-छोटी रंगीन चीजों की तलाश,दुपहरी भर—कि यह बिंदी के रूप में ठीक रहेगी,गहनों में फिट हो जायेगी—वगैरह-वगैरह—इतनी क्रियेटिविटी कि—भानुमति का कुनुबा कहीं ना कहीं फिट हो ही जाता था.
दोपहर होने का इंतजार और उससे भी ज्यादा इंतजार घर के लोगों के सोने का.बार-बार झांक कर देखना कि मैदान साफ है या नहीं.
और सांस में सांस आ जाती थी—जब घर में सन्नाटा पसर जाता था.
वो एक सृजन था—प्रतीत होता था कि हमने इन नन्हें हाथों से वही गढ दिया हो जो कि ईश्वर ने गढा हो.
गढना ही नही—उसे सत्य-शिव-सुंदर की संपूर्णता की चुनरी उढाते थे—तो यकीन मानिये—कृतकार से कम अपने आप को नहीं आंकते थे.
आज—देखिये नये शब्दों के जन्म हो रहे हैं—उनके प्रचार-बहस-टीका-टिप्पणियों के मरुस्थल में जीवन की कृतिका कहां खो गयी—कहां खो गयी वह कूची—जो जन्म से ही हमारे पास होती है—हमारी उंगलियों की पोरों में—कहां गए वो रंग—जो कल्पनाओं के इंद्रधनुष से बिखरते थे—छिटकते थे??
जरा गौर करने की जरूरत है??
पुनःश्चय: हमारी बुआ का एक हुनर याद आता है—एक धातु जो पीतल के बरतनों की कलई के लिये प्रयुक्त होता था—उसे वे मांग लेती थीं,उससे जो बरतनों पर कलई करने आता था—उस धातु को पिघला कर ऐसे ही जमीन पर छिडक देती थीं—और रेन्डमली—विभिन्न आकार में—कुछ ना कुछ बन जाता था—जो हमारी कलपनाओं में गढ जाते थे, निकल कर आते थे—हमारी बारबीडोल के ईयररिंग्स,अंगूठी,नेकलेस,कंगन,झूमर,हसुली,कंगन----.
और फिर शुरू हो जाती थी---बारबी की विवाह की तैयारी.
बात हम ओशो की करें—कहानियां निकाल कर लाएं,शब्दों में उन्हें कहें या सुनाएं—
ओशो ने कहा है—हम सब भी एक कृतकार ही हैं—जो अपनी कला के हुनर को भूल बैठे हैं,अपनी कूची को तोड बैठे हैं—कल्पनाओं के इंद्रधनुषी रंगों में वृकृतियों की कीचड घोल रहे हैं—अपनी सम्भावनाओं के अ्नंत को खुद ही समेट कर कैद हो रहें.
खुशी और समपन्न्ताओं में भेद करना भूल गये हैं.
और भटक ही रहे हैं—खुद को ही नहीं मालूम??
ओशो इंतजार में—हमारे लौटने की प्रतीक्षा में हैं.
हमें वापसी करनी ही होगी.
ओशो—जो कभी जन्में नही,जिनकी कभी म्रुत्यु नहीं हुई—इस ग्रह की एक यात्रा पर, कुछ समय के लिये थे.
आएं—ओशो को देखें—उनको, अपनी कृतियों में—अपनी कल्पनाओं की कूचियों में—जो सुखों के इंद्रधनुषी रंगों से तर हो,सरोबार हो!!!
पढिये जरूर—आनंद आएगा.