Sunday 27 December 2015

ओशो—जीवन हर-पल एक उत्सव है.


यह जिंदगी—वक्त की रेत पर खींची गयी लकीर है.

यह जिंदगी—एक झोंका है हवा का,बुलबुला पानी का—

इसके गुजरने से पहले—इसमें झलकता इंद्रधनुष देखना ना भूलें

हर-पल एक उत्सव है—मनाना ना भूलिये—

यह सोचकर कि अब है—तब हो ना हो?

यह जान कर कि जो हमारे साथ हैं वे कब निकल जांय अनंत की यात्रा पर.

यह जान कर कि जो हमारे साथ हैं कहीं वे ही ना पीछे छूट जांय और हम निकल जांय अनंत की यात्रा पर.

जाने कहां चले जाते हैं दुनिया से—जाने वाले??

हर रोज ऐसी खबरें हमें आगाह करती हैं और हम जागते-जागते रह जाते है.

इन खबरों में छुपे जीवन के अर्थों को अखबार में मोड कर ना छोडिये,

बे-शक एक नजर डालने के बाद अखबार रद्दी ही हो जाता है,लेकिन हर कतरनों में रवायतें हैं जिंदगी की.

हर एक शब्द में छुपे हैं,कुछ बोल किसी गीत के—उन्हें जोड कर देखिये—गुनगुना ना भूलिये.

हर कोई बहुत कुछ पाता है---और बहुत कुछ खोता भी है.

खोना जरूरी है—अन्यथा जो है—वह बे-कीमती हो जाता है—और जो है उसे संभालना का सलीका भी आ जाता है.

जो है—संभाल कर रखिये,सबसे बडी दौलत है—अपनों की शक्ल में,रिश्तों की महक में.

उन्हें सहेजना भी होता है—और सराहना भी.

जो हैं—कोशिश करिये कहीं छूट ना जायं—नये बनाने में भी गुरेज़ ना करिये,जरूरी नहीं उनकी उम्र लंबी हो—जितनी भी हो क्या कम है.दे दीजियी जो भी दे सकें,ले लीजिये जो भी ले सकें,क्यों कि यह जिंदगी बुलबुला है,पानी का,पानी पर खींची हुई लकीर—हिसाब किसको देना है—किससे लेना है??

एक खबर—६०-७० के दशक की चित्रकारा साधना जी नहीं रहीं.

और जहन से उतरने लगीं वे—अपनी खूबसूरती में,खास अंदाज में,और एक बहुत ही खास अंदाज जो उनकी केश-सज्जा का था—जिसे उस समय युवा बच्चियों ने अपनाया—एक खूबसूरत चलन जो करीब दो दशक तक चला होगा—और यादगार चलचित्रों का खूबसूरत सिलसिला—मेरे मेहबूब तुझे मेरी मुहब्बत की कसम—सालों गुनगुनाया गया—

मै भी गुनगुनाया करती थी—उनकी परछाई में खुद को खडा कर के.

और—यही सिलसिला है-हर-एक जिंदगी का.

खूबसूरती से जीना और खूबसूरती से चले जाना.

हम सब पात्र हैं—किसी ना किसी चलचित्र के--.

ओशो—जीवन उत्सव है.

२०१५  अलविदा कह रहा है—मुस्कुरा कर उसे अलविदा कहिये,धन्यवाद देना ना भूलिये—बहुत कुछ खूबसूरत दे कर जा रहा है—और स्वागत की तैयारियां भी करनी है—२०१६ की—करिये—कुछ मीठा खाकर—कुछ मीठा खिला कर.

ओशो—जीवन हर-पल एक उत्सव है.

Saturday 5 December 2015

आइये हमारे प्यारे राम



                 आइये हमारे प्यारे राम
आज ६ दिसंबर है---बर्सी उस म्रुत्य प्राहः मुद्दे की जो आज से २३ वर्ष पूर्वे पैदा किया गया था.
तब से आज तक हम देख रहे है कि इस तारीख से पहले साधारण जन-मानस के मन में एक सोए हुए भूत को जगा कर उसे फिर से भूत बनाया जाता है--,शायद कितने आने वाले बरसों तक यह भूत-क्रिया-प्रिक्रिया बरकरार रहेगी—राम ही जाने?
बिचारे राम हमारे प्यारे से राम—कितने बिचारे हो गये हैं—कोई उनसे पूछे तो सही?
अब प्रश्न उठ सकता है—कहां पूछे किससे पूछे—सो घट-घट में बसने वाले राम हमारे प्यारे राम—कभी अपने घट में झाके तो सही—उनसे पूछें तो सही कि क्या आप मंदिर में बिराजना चाहते हैं कि हमारे घट-घट में ही विश्राम करेंगे?
मगर हम नहीं पूछना चाहते.मालूम है—राम का उत्तर क्या होगा.
ये वादे,ये दावे—ये मंचों पर चढ ऊंची आवाजों के दायरे, दावानल हुए जा रहे हैं—ये आग जंगल की आग बन आम मानस-जन का सूकून, जो कुछ बाकी रह गया है उसे भी लील रही है—वैसे भी कितने मुद्दे हैं जो जीने नहीं दे रहे हैं—जो भूखे की रोटी है,प्यासे का जल है,बेसहारों की छतें है—नंगी होती इज्जतें हैं—बच्चों की सूनी आंखें हैं—ममता के चिथडे आंचल हैं—झीर-झीर होती मर्यादाएं हैं—और नित-नित द्रोपदी की लुटती-खुलती साडी है—आज के बेलागाम दुर्योधन के हाथों में.
कितनी बार क्रुष्ण इस धरा पर अवतार बन कर पधारें—वे भी बिचारे अब सोचने लगे होंगे कि सब व्यर्थ है—यहां दुर्योधन की पौध ही उगती है—कितने कुकुरमुत्तों को उखाडोगे.
बस, अब तो—एक ही किरण हैं—कि बिचारे राम को पुकारें, जो हमने हमारे घट-घट में बसा रखें हैं उनको जगायें कि अब तो आंखे खोलें ये कृपा निधान—धनुष को कांधे पर टिकाएं कि कृपा करें उनसे जाकर हमारी गुहार लगाइये—इन बिचारे—बिचारों को क्षमा कर दीजिये—इन्हें अपनी रोटी की जुगाड करने दीजिये,इन्हें अपने बच्चों को पालने दीजिये—इनके पडोस को आबाद रहने दीजिये---अब इन्हें और एक हिंदुस्तान और एक पाकिस्तान हजम नहीं हो पायेगा क्योंकि इनका हाजमा कमजोर हो गया है—मिलावटो के चूर्ण से—और मंहगाई के जुलाब से.
ये बिचारे खुश हैं अपने घट-घट के राम से और मैं भी खुश हूं इनके घट-घट में पडी छोटी सी सय्या पर सिर टिकाए हुए.
आइये हमारे प्यारे राम जी.