Saturday 26 April 2014

An humble letter to my brother---




My elder brother whom, I always consider my soul-support and always seek his words,whenever I had been in need.Always my regards and affection for him,till I am alive.
The letter starts with two lines---
1.They are the sons and daughters of Life’s longing for itself.
2.Time has come for you----be a sanyasin-----.
आदरणीय भाईसाहब,
आपका एस.एम.एस मिला,पढा,कोशिश करती रही.इस एस.एम.एस में क्या संदेश है.कई बार पढा---.
आशा करती हूं आप मुझे कुछ सीमा तक, समझते ही होगें.
आपको मैने ना केवल भाई के रूप में, वरन प्रेंणनास्रोत के रूप में भी देखा है और जब तक जीवित हूं, मेरी संवेदनाएं इसी रूप में ही बनी रहेंगी क्योंकि उनकी जडें मेरी पुरानी से पुरानी स्मृतियों में जीवित हैं.
हम वर्तमान में तो जीते ही हैं,परंतु अतीत  की पृष्ठभूमि पर रह कर. आने वाली उथल-पुथल जो जीवन का हिस्सा है,उनसे उबरने के लिये कुछ मनोबल मिलता रह्ता है उन अतीत की जमीन से,और यही मानवीय पृवर्ती है.
मैं एक बहुत ही साधारण इंसान हूं जो एक पुत्री-बहन-पत्नी और दादी-नानी के रिश्तों को जी चुकी हूं,उनमें से कुछ अभी जी भी रही हूं.
सन्यासिन हो कर भी कहीं और नहीं जाया जा सकता है, क्योंकि हवा तो वही है और सांस भी वही.
बहुत-बहुत पुरानी स्मृतियां ,आज भी मेरे मानस पटल पर ताजी हैं----जब मेरा ही आस्तित्व मुझसे पूछने लगा था---अखिर मैं किसकी जवाबदेही हूं?
और,१० वर्ष की उम्र तक आते-आते,प्रताणनाओं और तिरस्कारों के झंझावतों के बीच अपने-आप को नितांत पाकर मैं निकल पडी थी, रेल की पटरियों पर.
जहां,बचपन की मासूमियत होनी चाहिये थी,वहां असहनीय उपेक्षाएं व बेगाने तिरस्कार थे’ जो मेरे आस्तित्व को हर क्षण चटका रहे थे.
बचपन एक अहसास है, जो अपनत्व की छांव तले ही पल्लवित हो सकता है अन्यथा वह वक्त से पहले जबरन पकाया हुआ फल रह जाता है, जिसमें जीवन का स्वाद व महक नहीं होती.
उन क्षणों में बाबूजी याद आते रहे.सोचती रहती थी और अपने –आप से पूछती रहती थी----क्या वे मुझे कभी याद करते हैं?क्या कभी उनके हाथों का स्पर्श मुझे मिलेगा?
जैसा कि खलील ज़िब्राल कहते हैं---मां-बाप बच्चॊ से केवल माध्यम के तहत जुडे होते हैं या कि इस कथन के कई कथन हो सकते हैं.
परंतु मैं ऐसा महसूस करती हूं कि यह जुडना भी हमारा प्रारब्ध है और जहां जुडाव हो बेशक माध्यम ही बन कर,वहां अनुभूतियां के तार भी जुड ही जाते हैं, अन्यथा ये रिश्तों के इंद्रधनुष कैसे बने?
क्षमा चाहती हूं---किसी महान कथन को अपनी सोच से देखने के लिये.साथ ही अनुग्रहित हूं, यदि ये महान कथ्य उवाचित ना होते तो हम हमेशा विभ्रमित रहते और मुक्त ना हो पाते, अप्रसांगिक बंधनों से.क्योंकि, यहां आस्तित्व में सब कुछ प्रसांगिक है---लेकिन एक सीमा पर आकर सब कुछ अप्रसांगिक हो ही जाता है और वहीं से सत्य की यात्रा भी शुरू हो जाती है.
मुझे याद है वह घर---जहां मेरा जन्म हुआ था.कितनी बार आंखें मूंद कर.कोशिश की है कि उस परिछाईं को देख सकूं---कही आते-जाते,सीढियों पर चढते-उतरते,चूल्हे पर रोटियां सेंकते ,मुझे गोद में लेते हुए---मैं उस छाया को भी नहीं छू पाई,आज तक.
शायद याद हो आपको—मैं आपकी टांगों से लिपटी,रो रही थी कह रही थी,मुझे यहां से ले चलो---आप बार-बार खुद को मुझसे छुटा रहे थे,यह कहते हुए---कहां लेकर जाऊं?
उस दिन दस साल की बच्ची अचानक परिपक्व हो गई थी,और पहली बार साक्षात्कार हुआ अपने प्रारब्ध से.
प्रारब्ध---जहां आपको अपनी नांव स्वम खेनी होती है,आगे-आगे---पीछे लौटना सम्भव नहीं होता है,हालांकि हम साये होते हैं लेकिन आप नितांत होते हैं.
और उस दिन मन में पहली बार स्वीकार-भाव आ गया,प्रश्न तिरोहित हो गये.
मेरी भूख मेरी थी,मेरा तिरस्कार मेरा था---मेरे वजूद का चटकना मेरा था.
किसी कोने में छुपकर आंसुओं को पोंछना आ गया था.
और प्रारब्ध की नाव लिये,अपने कर्मों की पतवार से खेने लगी---शिकायतें गैर-जरूरी हो गईं---उम्मीदें अपरिभाषित हो गईं----और अपनों की तलाश ठहर गई.
एक घटना,जीवन के उस पडाव पर जहां मैं जिम्मेवार नहीं थी.मेरे वजूद की कुछ अनुभूतियां थीं---उभर रहीं थीं,खुशबू बन कर,मुझे अपने में समेट रहीं थीं.एक नई अनुभूति---एक सुकून---नित्य पराओं के झंझावतों में,कुछ अपना केवल कुछ अपना पाने की एक ललक.
सम्भवतः एक शाश्वत अनुभूति जो नकारता है, वह छलावा करता है या खुद को छलने के लिये खुद को ही भूल जाता है.
मैं साहस कर पा रही हूं,कह पा रही हूं---उन अनुभूतियों के सच को.
सत्य देर-अबेर देख लेना चाहिये और अपने मानवीय होने को स्वीकार लेना चाहिये ही.
कम-से कम अपने प्रति ईमानदार होना,आस्तित्व के दायित्व से मुक्त होना है.
अक्सर ही हमारी मान्यताएं,समाजिक परिवेश,संस्कार एंव स्वम-पोषित मर्यादाएं---हमें सत्य का साक्षात्कार नहीं करने देतीं और हम ओढी हुई जिंदगी में लिपटे,घुटी सांसों में कैद,जीवन पर्यंत जीने का बहाना ढूंढते रहते हैं.
जीवन एक ऐसा सत्य जिसे संपूर्णता से स्वीकारा जाना चाहिये,टुकडों में नहीं.
मैं---कहानी नहीं कह रही हूं,सत्य को देखने का साहस कर पा रही हूं.
आभारी हूं,उन क्षणों के लिये जब मैं एक किरण को छूकर गुजर गई---इस आस्तित्व की अनुकम्पा मुझे छू गई,किस रूप में?
भाईसाहब,आपने खलील ज़िब्राल की कुछ पंक्तियां उद्धरित की हैं---सहमत हूं स्वीकार करती हूं और आभारी भी हूं कि आपने मुझे एक भ्रमजाल से निकालने में मुझे मदद दी---अन्यथा मैं कहीं गुम हो जाती!!!
परंतु---जीवन के क्या दो ही छोर है---एक दूसरों के लिये जीना(वांछनीय है,संबन्धों की माला को पिरोये रखने के लिये और अपनी सार्थकता को दूसरों की सार्थकता से जोडे रखने के लिये)
दूसरा छोर स्वम को तिरोहित कर देना---’सन्यास’ के रास्ते---अपरिचित-अग्येय पथों को रोंदना----सूखी रेत में जीवन के बीज को गाढना,,,जहां कभी जल-धार फूटनी ही नहीं है.
सन्यस्त होना किसी पथ पर चले जाना मात्र ही नहीं है,उसको जान लेना भी जरूरी है और यदि जान ही पाए तो मंजिल ही पथ बन जाता है.अब जाना कहां है,क्या पाना है---पाने योग्य कहीं भी पाया जा सकता है---जो नहीं पाया जा सकता, उसे कहीं भी नहीं पाया जा सकता.
मेरा मानना है---जब तक स्वम तृप्त-तिष्ट-सम नहीं है---सन्यस्त का भाव ही दंभपूर्ण है.
ओशो---जीवन एक ऐसी धारा है जो बह रही है---निरंतर---उस बहाव में,कचरा भी बह रहा है,फूलों की टोकरियां भी हैं,दोनों में बहाए श्रद्धा की दीपमालाएं भी----सहज-सरल-सुंदर यात्रा---प्रेम-अपनत्व-स्पर्श,शब्दों की पुष्पाजंली---मुस्कुराहटों के इंद्रधनुष---तो आंसुओं से सिक्त संवेदनाएं भी---सभी अर्पित हो जाते हैं---जीवन के शिवालय की ड्ढ्योडी पर.
पहुंचना तो वहीं है---क्यों ना---अंजुलि में भर कर ’तृप्ति’ को---उस विराट के आगे झुक जाएं और कह पाएं---तुम मुझे स्वीकार हो---मुझे स्वम में समाहित करो-----
मैं,सन्यस्त इसी भाव से होना चाहती हूं.
मुझे,जीवन का हर रंग चाहिये,हर खुशबू की सुबास---हर वह रोंमांच जो स्पर्श दे सके-----और---
जो गया –उसके लिये मेरी आंखों में आंसू ना हों---जो है,उसके लिये कुछ आंसू दे सकूं----
जो,बांहे फैलाए---पुकारता हो---उस ओर----चल पडूं---
 पुनःश्चय---                                        इति,



Tuesday 22 April 2014

एक घर---और,उसमें गुम हुई एक परछाई----




हमारी यादों की दुनिया,मन-मस्तिष्क में,सदैव गुलजार रहती है.
मेरे ख्याल से,हम अपनी जिंदगी का बहुत बडा भाग,अपनी यादों की दुनिया में जीते हैं.कुछ छोटा सा हिस्सा वर्तमान में और कुछ भविष्य की चिंता में गुजर जाता है.
ये यादें हमें हमेशा,एक तिलिस्म से घेरे रहती हैं,जैसे बीती रात का नशा एक खुमारी,जो हमें वर्तमान के झंझावतों से झूझने के लिये, एक छाया,एक सुकून और भविष्य के  लिये कुछ सपनों की दुनिया देती हैं---हमेशा गुलजार होती रहती है.
कभी-कभी मां की गोद की गर्माहट का सुख दे जाती है तो कभी पिता जैसा आश्वासन और कभी चूल्हे पर सिकी रोटियो की खुशबू जैसी--- तृप्ति.
यही कारण है---यादें हमें,हमेशा लुभाती है.
मेरी यादों के बगीचे में---एक घर,उसके कुछ कोने,करीब ६०-६५ वर्ष बाद भी,मेरे मानस-पटल पर,आज भी उतने ही स्पष्ट हैं जैसे कि कल की घटना हो.
वे मेरी तरह बूढे नही हो रहे हैं.
मेरा मानना है, कुछ यादें कभी बूढी नही होती हैं.जब वे पहली बार अंकित होती हैं तो उसी समय,उन्हें अमरत्व मिल जाता है, जैसे कोई योगी-- योगसाधना के बल पर चिर-यौवन को पा ले.
एक घर,उसके सामने वाली सडक, जो नुकीले पत्थरों से पटी थी,जिस पर नंगे पैर चलने से जो दर्द उस समय महसूस किया,वैसी ही टीस आज भी,तलुओं में महसूस कर पाती हूं.
दर्द भी कभी मीठे होते हैं!!!
उस समय सफेद कंकडों वाली सडकें ही हुआ करती थीं,डाबर वाली सडकों का आस्तित्व बाद में आया.
घर की ऊंची सी ड्योढी, जिसे लांघने के लिये, हम बच्चों को एक ऊंची कूद लगानी होती थी.
मोटे-मोटे दो दरवाजे,दरवाजों पर ठुकी मोटी-मोटी पीतल की फूलदार कीलें,उनमें टके कुंदें जिन्हें पक्ड कर हम बच्चे लटक जाया करते थे-----और---उनकों को पकडे-पकडे,दरवाजे भिड भी जाते थे,मधुर चीत्कार के साथ.आज की तरह दरवाजे बे-आवाज नहीं हुआ करते थे.
दरवाजे के पार दुबारी(एक दालान जो घर के मुख्य भाग को अलग करता था,या यूं भी समझ सकते हैं,जनाने भाग को अलग करता था) घर का वह हिस्सा जहां अक्सर घर की बुजुर्ग महिलाएं,बच्चों को संभालती,बैठी रहती थीं और समाजिकता को सींचती रहतीं थीं.
नाती-पोतों से घिरी,आस-पास छोटे बच्चों से घिरी,जो हमेशा उछल-कूद करते रहते थे या रोना-बिफरना---बेवजह,एक निरम्तर जारी रहने वाली दिनचर्या.
दुबारी के बीचो बीच,दरवाजे से आंगन पार करते-करते सामने कोठरीनुमा कमरा,
आंगन के बांये कोने में छप्पर की छांव तले चौका(रसोई) रसोई के सहारे खडा जीना---अंदर सब कुछ लिपा-पुता.
इसके आगे यादों की यात्रा अचानक टूट जाती है----
घर के मुख्य द्वार पर बुआ के लडके के साथ,भारी-भरकम दरवाजे पर एक पैर रख कर झूला झूलना----और एक दिन झूला झूलते हुए मेरे बायें पैर का अंगूठा दरवाजे की चूर में आ गया----और कुचल गया.वह पीडा मेरे साथ आज भी जीवित है और बैडौल अंगूठा भी.
घर के ठीक सामने सीमेंट वाला बडा सा घर,जिसका मुख्य द्वार हमेशा बंद रहता था.
बाहर ऊंची जमात वाला कुआ,कुए के सहारे बडा सा----नीम का पेड,जिसकी शाखाएं कुए के ऊपर हमेशा झूमती रहती थीं.
चारों ओर नीम की पत्तियों की चादर सी बिछी रहती थी,पीली रसभरी निबोरियों के साथ.
उन निबोरियों  की कडुवेपन के साथ मिठास भी,आज तक बरकरार है.
जीवन का अटूट सत्य-----कुछा कडुआ,कुछ मीठा---हो जाए!!!
जीवन के इतने बडे अंतराल के बाद,कितने ही मकानों में रहना व बसना हुआ---लेकिन वह मकान,मकान के सामने सीमेंट वाला बडा सा घर,घर के बाहर ऊंची जगत वाला कुआ,कुए पर झूमती नीम की डालियां और पीली पात्तियों के कालीन पर बिछी कडुवी-मीठी निबोरियां---- उस फर्श पर नंगे पैर चलने हुई तलुवों पर जलन--- और निबोरियों की सिसक ,आज भी यादों के झरोंखों से झांकती हैं---
क्योंकि,कुछ यादें बूढी नहीं होती हैं----
जब भी मैं उस घर की परछाई को अपनी यादों की स्लेट पर लिख कर दुहराती हूं---तो---एक छाया का अहसास कभी भी नहीं हुआ-----मां का—
ऐसा क्यों!!!
कुछ तो अधूरा ही रहता है----शायद पूरा होने के लिये.
                                        मन के-मनके

Tuesday 15 April 2014

कल---एक घर देखा





कल---एक घर देखा
                   पत्थरों की दीवारों में
                   शीशों की खिडकियां
                   खिडकियों के पीछे
                   लोहे की जालियां
                   इन जालियों में
                   जंग खाती,अनुभूतियां, देखीं
कल---एक घर देखा
                 नौकरों की चहलकदमी में
                अपनों की आहटें---           
                गुम होती देखीं
                गर,गुजरती भी---तो
                गर्माहटें तलुवों की
                गुम होती देखीं—
कल----एक घर देखा
                 यहां,इंतजार बुढापों का
                 बीमारियों के लबादे
                 ओढे-ओढे---
                 कंधों की मजबूरियां देखीं
                 बीमारियों से गुजरते
                 इंतजार,अपनो से—
                 छुटकारों का देखा
कल---एक घर देखा
                नामों से तख्तियां,
                 भरती देखीं---
                 वारिसों की पंक्तियों में
                 वंशावलियां देखीं
                 रीते इतिहासों की
                 अंधड सी,रवानियां देखीं
कल---एक घर देखा
               घर में आने से पहले
               जाने का इंतजार देखा
               आने वालों बोझों तले
               अपनों का तिरिस्कार देखा
कल---एक घर देखा
               एक जा रहा था
               धीरे-धीरे----और
               दिल थामें-----
               दूसरा देख रहा था
               इंतजार करते देखा
               अपनी बारी का—
कल---एक घर देखा
                 ऊंची दीवारों के---
                 उस ओर----
                 इतिहासों को----
                 मिटते देखा—
                 नामों की तख्तियों पर
                 नामों को-----
                 मिटते देखा—
कल---एक घर देखा
                 जो नाम बाकी थे अभी
                 सुनामी जैसी---बेताबी देखी
                 उनकी रवानगी में---
                 मजबूरियां देखीं
                              एक---घर ऐसा देखा