पथरीली- पगडंडी पर, पीडाओं को ढोकर
चल--आसुओं से भीगी घास की चादर पर
क्लान्त-भ्रान्त,मन की रेतीली घाटी में
चुके भविश्य की फसल उगानी है
नव- प्रभात का सोने सा सूरज लिये
सुदूर- पूर्व से----- तुम आ जाओ
कन्ट्क राहों की दग्ध - शिलाओं पर
चन्दन सी शीतल चादर फैला जाओ
अश्रु-पूर्न पलकों से सपनों को
दूर छितिज़ तक जाना होगा
लेकर गीत अनंत, चट्कते अधरों पर
गीत मुक्ति- बोध के, गाना होगा
मुक्ति- बोध तक जाना है
मन के - मनके
चल--आसुओं से भीगी घास की चादर पर
क्लान्त-भ्रान्त,मन की रेतीली घाटी में
चुके भविश्य की फसल उगानी है
नव- प्रभात का सोने सा सूरज लिये
सुदूर- पूर्व से----- तुम आ जाओ
कन्ट्क राहों की दग्ध - शिलाओं पर
चन्दन सी शीतल चादर फैला जाओ
अश्रु-पूर्न पलकों से सपनों को
दूर छितिज़ तक जाना होगा
लेकर गीत अनंत, चट्कते अधरों पर
गीत मुक्ति- बोध के, गाना होगा
मुक्ति- बोध तक जाना है
मन के - मनके
बहुत गहरे भाव...वाह!!!
ReplyDeleteअश्रु-पूर्न पलकों से सपनों को
ReplyDeleteदूर छितिज़ तक जाना होगा
उत्तम रचना ।
बहुत सुन्दर कविता।
ReplyDeleteभावपूर्ण सुन्दर रचना
ReplyDeleteचर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी प्रस्तुति मंगलवार 22 -03 - 2011
ReplyDeleteको ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..
http://charchamanch.blogspot.com/
गहरे भावो से सजी अति उत्तम रचना।
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