Thursday 28 August 2014

कुछ तो हो गया है---



                 कुछ तो हो गया है---
                          मेरे चूल्हों को इंतजार रहता है
                              तुम्हारे आने के संदेशों का---
            बे-शक,अक्सर वे ठंडे पडे रहते हैं
            कभी-कभी ही दा्लें उफनती हैं,और
                           चार रोटियां सिंक जातीं हैं,और
                           फ़र्ज अदायगी कर लेती हूं---
          कुछ कुर्सियां,एक कुर्सी को छोड कर
          मुझसे पूछती पूछती हैं---
                        कोई और नहीं आ रहा—?
                        मैं,मुस्कुरा कर पूछती हूं-क्या तुम्हें पता नहीं
         और,वे भी चुपचाप सरक जातीं हैं
         मेज के नीचे----
                      आज भी,मेरी रोटियां भर-पूर फूलती हैं
                      आलू के पराठे,लबालब,सुधिंयाते हैं
       आज भी,दालों के छौंकों की खुशबू
       पडोस तक चली जाती तो है
                      आज भी तुम्हारी फरमाइशों के इतवार
                      हर माह,चार बार गुजर जाते हैं(कभी-कभी पांच बार)
     पता नहीं,क्या हुआ उन खुशबुओं का
     उन महकती हुई खीरों का---
                      चटपटाते,दही-बडों का
                      असली घी में,भुनी सूजियों का
       क्यों,तुम्हारी यादों की रसोइयों से
       बिना बताए चले गये हैं, वो
                     मुझसे भी कुछ नहीं कहा,और
                     तुमसे भी नहीं---!!!
      वरना,ऐसा नहीं था,वे यादें,तुम्हें
      यहां तक लाती जरूर,और
                     मेरे चूल्हे की आंच,फिर से सुलग जाती
                     गोल रोटियां फूल जातीं,गुब्बारों की तरह
      दालों की छोंकों से------
      गीली हो जातीं ,आंखें तुम्हारी
                        कुछ तो---हो गया है---?

संदर्भ में—हमें अपनों से जोडने के लिये,जहां स्पर्श,शब्द,आंखो की भाषा जरूरी है,वहां,कुछ खुशबुएं भी अहम होती हैं.बच्चे के लिये मां के शरीर की गंध,एक ऐसा अहसास है,कि जीवन-पर्यंत स्मृतियों में जीवंत रहता है.कोशिश करिये,
अनुभूति अवश्य होगी,लगता है हम जैसे भूल गये हों ,परंतु ऐसा नहीं होता,हां कुछ आग्रह-पूर्वाग्रह की वजह से हम स्वीकार न कर पाएं,यह और बात है.
मुझे आज भी एक महक महका जाती है—हमारी मां की असमायिक मृत्यु के बाद हमारे मामा-मामी हमारे साथ रहते थे.
मामी के हाथ की छिलके वाली मूंग की दाल में लोंग का छौंक आज भी मुझे याद है,और यह खुशबू मुझे उनसे जोडे रखती है,जब-जब छिलके वाली मूंग की दाल बनाती हूं.मामी का चेहरा-आवाज,साफ नजर आने लगती है.
ये अनुभूतियां सभी के पास होती हैं,ऐसा मेरा मानना है,और जीवन की आपा-धापी में वे कहीं दब जातीं हैं.जीवन की यह आपा-धापी कभी कम ना थी,शक्लें बदल गईं है,परंतु,दुर्भाग्यवश,हम वह हुनर भी भूल गये हैं,जिनसे हम इन बेशकीमती अनुभूतियों को,बडी सहजता से सींचते रहते थे,और कभी अकेले नहीं होते थे.आज परिस्थियां उलट गयीं हैं”आज’ हाबी हो गया है,’कल’ का इंतजार है,
लेकिन वह ’कल’ जो इन ’आज’-’कल’ का आधार था कहीं गुम हो गया है.
वो मामियां,वो फूफियां,वो चाचियां,ताइयां और अम्माजी आज भी हमारे आस-पास हैं---अपनी बनी दालों की छोंको में.
  
 पुनःश्चय--क्षमा करें यदि इस पोस्ट की पुनरावर्ती हो गयी हो---मन ने चाहा सो?

               
                    
                        
             

Sunday 24 August 2014

जीने की कला—एक कलाकारी



कुछ दिन हुए एक मैंने एक पत्र तुम्हें लिखा था.
वह केवल एक पत्र ही नहीं था---कागज के टुकडे पर उकेरी कुछ पंकितियां मात्र ही नहीं थीं---एक अक्श,एक पगडंडी जिसके माध्यम से गुजर कर मैंने स्वम को देखा,समझा व पहचाना है.
पीछे मुडकर अपने प्रारब्ध की परतों को पन्ने-दर-पन्ने---खुलते देख रही हूं—घटनाओं के अक्श में.
जो बीज हम बोते हैं—अपने कर्मों के माध्यम से,अपने आस्ति्त्व की माटी पर—
वे हमारी भावनाओं में,सम्वेदनाओं में,निश्चयों में ,निर्णयों में---हमार अपराध-बोधों में,स्वीकार-भावों में ,नकारों में---इन सभी में वे अंकुरित होते हैं.
ये जो चारों ओर ’माया’ का जाल फैला हुआ है—सब कुछ ब्रम्हांड से बह्ती धारा की छाया-मात्र है—वह छाया एनर्जी के रूप में विभिन्न छाया में दिख रही है.
एक अभामंडल---इंद्रधनुष सा चारों तरफ बिखरा पडा है---छिटका हुआ है—पेडों में,पक्षियों के कलरव में---सांसों की लय में जीवन की एक धारा सी बह रही है---उसमें सब कुछ निहित है---अनंत की जटाओं से फूट रही है---कल-कल करती जीवन की गंगोत्री---जीवन को जीवंत करती हर पल,हर क्षण.
जीवन क्या है?
इस विस्तारहीन आस्तित्व की लीला का एक बिंदु-मात्र.
हर कण में निहित जीवन विस्फोटित हो रहा है—प्रति-क्षण.
आस्तित्व का यह रूप गुणनफल है—सूक्ष्म-स्थूल का योग-मिलन है.
समस्त ब्रम्हांड ऊर्जा का निरवरत प्रभाव—जैसे हमारे घरों में बिजली का प्रभाव—एक बटन दबाया और बल्व जल गया---प्रकाश फैल गया---बटन दबाया बल्व भुज गया---अंधकार हो गया.ऊर्जा का आना-जाना,आवा-गमन.ऊर्जा वहीं थी वहीं है.
जीवन भी निरंतर है. कोई कहीं जाता-आता नहीं है—केवल आवा-गमन है—
जाना-आना है—रूपाम्तरण है.
रिवर्स है---जहां से आई वहीं चली गयी.
ठीक इसी तरह जीवन-धारा बह रही विभिन्न रूपों में प्रभावित हो रही है.
कोई जन्म नहीं है—कोई मृत्यु नहीं है-हर कण धरती पर गिर कर धरती से ही फूट पडता है—हां हमारे कर्म—सभी—वैचारिक-शारीरिक—स्थूल-सूक्ष्म बीज रूप में विकसित हो पुनः-पुनः जन्म लेते रह्ते हैं.
सूक्ष्मतम बीज भी उस वृहद का ही अंश-मात्र हैं.उसी की रचना का एक हिस्सा एक रंग---लीला का एक खेल—खेल का एक पात्र.खेल माया का---उस विराट के केनवास पर अंकित एक इंद्रधनुष---बदलों में ओझल या दृश्य---है वहीं.
यह हमारे देखने पर निर्भर है हमारी गृहणता पर आधारित है---हम खेल को कितना समझ पाए---समझने की सीमा व क्षमता भी उसी का खेल व लीला है. वह हमें कितना दिखाता है-- समझने योग्य बनाता है.
आश्चर्य—
उस लीलाधारी के सम्मुख नतमस्तक होना ही हमारा विकल्प है---और खेल में शामिल होने का भी.
निःसंदेह—कार्य-कारण की नियमावली लागू है---सो सब कुछ यहां व्यवस्थित है हालांकि—विविधता से भरपूर---इतने बिखराव में एक रूपता संगम देखते ही बनता है---अचम्भित करता है—विस्मृत करता है---और हमें नतमस्तक करता है—उसके सम्मुख.
जीवन---एक सीधी खिची हुई रेखा नहीं है—कि एक स्टेशन से यात्रा शुरू की   और एक स्टेशन पर उतर गये.
यह यात्रा एक वर्तुल है—कर्मों के बीज बोते रहते है फल पाते रहते हैं---फिर उन्हीं फलों से बीज अंकुरित होते रहते हैं.
इस अनंत यात्रा में हमारा जुडाव सूक्ष्म-स्थूल दौनों से ही होता रहता है—स्थान,मनुष्य,पेड-पौधे  यादें,अनुभूतियां,सम्वेदनाएं,चेतन-अचेतन---
यही कारण है कि किसी खास व्यक्ति से हम विशेष जुडाव महसूस करते हैं.
कुछ जगहों पर हम पुनः-पुनः जाना चाहते हैं यहां तक कि कुछ खुशबुएं हमें खीचतीं हैं कहीं से,किसी से हम छिटकना भी चाहते हैं.
यह सब क्या है?
मैंने इनके उत्तर अपने प्रारब्ध रूपी बीजों में पाए हैं.
हो सकता है---आस्तित्व घटित घटनाओं को के देखने के नजरिये अपने-अपने भी हों.
यह जो देखने की कला है यही---जीने की कला भी हो सकती है.
दुख-सुख की परिकल्पना सापेक्षित है परिस्थिति-जन्य है—व्यक्तिगत भी है.
आंसू वही हैं उनकी केमिस्ट्री वही है  परंतु कभी पीडा उनका आधार हो जाती है कभी खुशी?
होठों पर मुस्कान की भी भाषा भिन्न-भिन्न हो जाती है मासूम-सहज-विषैली?
सूरज वहीं है---कभी सूर्योदय तो कभी सूर्यास्त.
परवाजों की उडान---कभी क्षितिज के पार  कभी घोंसले की ओर.
पूरा आस्ति्त्व---
Rainbow of All opposits.
क्यों हजारों सालों में  बुद्ध जन्म लेते हैं?
क्यॊं हजारों अंगुलीमालों में एक बुद्ध अवतरित होते है?
मनुष्य योनि—एक उच्च स्तरीय व्यवस्था है—स्वभावतः वैचारिक स्तर पर भी---हमारे पिछले कर्मों के हिसाब-किताब का लेखा-जोखा और आस्तित्व के द्वारा दी गयी उच्च जिम्मेदारी भी—ताकि  अपने-आप को और चमका सकें और पैना कर सकें---बंधनों से मुक्त हो सकें—उस वर्तुल से बाहर आ सकें---उस में समाहित हो सकें.
मेरी निजी मीमांसा है.
’वह’ हमें क्षमता दे रहा है---उसका प्रयोग-दुर्प्रयोग के लिये हम स्वतंत्र हैं
यही जीने की कला है—एक स्तर से ऊपर उठते रहना---कर्मों से,विचारों से,अनुभूतियों से,संवेदनाओं से—सूक्षम-स्थूल—दौनो ही माध्यम से.
यद्ध्यपि---यह भी माया ही है.
My Children---
एक कहावत सुनी होगी या कहीं पढी होगी---
एक लाइन को बिना मिटाए छोटी कैसे किया जाय?
उसके नीचे उससे बडी लाइन खींच कर.
जीवन में भी यही कथ्य लागू होता है.
जीवन जीने की कला भी यही है.
The Art of Living.
                   तुम्हारी मम्मी

Tuesday 19 August 2014

If My Soul





                                                If My Soul—
If the---Gem
In my closed palm
Going to get brighter
I would drop it—In The Dust.
If  the---Flower
In my tight fingers
Going to get more fragrance
I would put it back---On The Branch.
If the---Fortune
In my safest closet
Going to get heavier
I would throw it---Into The Drain.
If the---Drop Of My Heart
In my warmth lap
Going to be happier
I would leave him---In The Wilderness.
If  my—Soul
In my closed chest
Going to be free
I would like—To Die.  
   Hundreth Times
 Not Only Once.