Tuesday 24 November 2015

अपने घर भी रोटी है—बे-शक रूखी-सूखी है


अपने घर भी रोटी है—बे-शक रूखी-सूखी है

करीब तीन-चार माह के सुदूर देश आस्त्रेलिया के सिडनी शहर में प्रवास के बाद वापस लौटी हूं.

बहुत खूबसूरत पल गुजारे ,अनुगृहित हूं उस के प्रति जिसने मु्झे यह अवसर दिया कि मैं स्वस्थ रूप में , अपने छोटे बेटे-बहू व दो अनमोल पोतों के साथ यह वक्त बिता पाई.

शब्दों को समेटना पड रहा है—उनको सही भावों में बिठाना पड  रहा है—फिर भी बा-मुश्किल व्यक्त कर पा रही हूं—दिन-रात तो वही थे,जो मेरे वतन में है—क्योंकि सूरज वही है,चांद भी वही है,आकाश में वही व उतने ही तारों की छांव हैं—परंतु वो महक नहीं हैं जो मेरे नन्हों की थी जब वे मेरे पास होते थे—वो चहकती आवाजें नहीं हैं—जिसमें एक स्वर में हजार स्वर-लहरियां थीं—अम्माजी,अम्माजी की---वाकई नहीं हैं.

और इसके अलावा बहुत से खूबसूरत नजारे,प्रकृति की छटाएं,फूलों के रंग,उनमें प्रकृति की अजीबो-गरीब कलाकारियां—कि पूछना पडता था कि भाई तुम हो कौन?/कहां हो??

वो धवल पक्षियों का झुंड, मेरे बाहर निकलते ही—आ जाते थे—बहुत ही अनुशासित रूप में कतार-बद्ध बैठ जाते थे—छोटी-छोटी आंखों में आग्रह लिये—कुछ देने का.

और वह आग्रह मुझे रोक नहीं पाता था कि मैं कुछ उन्हें ना दूं—और अपनी पीले रंग की चोंच से उन टुकडों को इतनी सावधानी से पकडते थे कि कहीं मेरी उंगली में चोट ना लग जाय.

अद्भुत!!!

उन पक्षियों के झुंड में तीन-चार प्रकार के पक्षी आया करते थे—लेकिन सभी अपनी-अपनी प्राथमिकता के अनुसार अपना-अपना हिस्सा उठा कर अपनी-अपनी डाल पर बैठ जाते थे.

वाह!!!

व्यवस्थित सडकें,सडकों पर अनुशाशित वाहनों की कतारें—बिना हार्न बजाए-हां बहुत ही कम अपवाद होते थे,जब कभी कोई होर्न सुनने को ्मिल जाय—तो गर्दन मुड ही जाती थी.यहां की तरह नहीं—कि होर्न सुनाई ना दे तो गाडी भी रुक सी जाती है.

एक बार मेरे साथ ऐसा ही हुआ—चलते-चलते मेरी गाडी का होर्न बजना बंद हो गया और मेरी  गाडी भी रुक गयी—विश्वास मानिये.मेरे साथ बैठे सज्जन को शीशे से बाहर मुंह निकाल कर त्रेफिक को संचालित करना पडा.

खैर,बात चली थी अपने घर भी रोटी है से,सो उस बात पर आना भी जरूरी है अन्यथा जाना था कहां, कहां आ गये वाली बात ना हो जाय?

जैसे ही हवाईजहाज इंद्रागांधी ऐयरपोर्ट पर उतरा—सही अर्थों में जैसे ही उसके पैरों ने रनवे को स्पर्श किया और एक झटके के साथ रनवे पर अपनी गति को नियंत्रित करने लगा—मेरे हृदय की धडकने भी नियम्त्रित होने लगीं—एक लम्बी सांस के साथा-साथ आंखे मुंद गयीं—लगा मां की गोद मिल गयी हो कि अपने घर के दरवाजे की कडी हाथ आ गयी हो,कि जिस मिट्टी की महक को याद करते-करते वक्त गुजारा हो—वह महक अचानक हवा के झोंकों में बह कर नासापुंटों में भर गयी हो—कि जो कुछ भी भविष्य को जानबूझ कर भूले हुए थे अचानक एक-एक कर पन्नों की तरह फडफडाने लगे हों—मैं बयां नहीं कर पा रही हूं कि क्या-क्या ना गुजरा मेरे आस्तित्व में—बस एक शब्द में कहना चाहूंगी—अपने घर भी रोटी हैं बे-शक रूखी-सूखी हैं.

सो,आज-कल हमारे समाचारपत्र,टेलिविजन पर चेनलों के माध्यम से तिल के पहाड जो बन रहे हैं—सब अपनी-अपनी रोटी सेंक रहे हैं—और औरों के नकली घी से चुपड रहें है—कोई पुरुष्कार लौटा रहे हैं—कोई गायों को घसीट रहे हैं—कोई मंदिरों के मुद्दों की घंटियां बजा रहे हैं,कोई पद गृहण समारोहों मे जा रहे हैं—गले मिल रहे हैं—ना मिलने की कसमें खा रहे है—और शेष कहीं और जाने की सोच रहे हैं???

प्रश्न बहुत हैं—बातें भी बहुत हैं—लेकिन मुद्दे की बात जो है वह यह है कि—आखिर हम मांग क्या रहे हैं और क्यों और किसके लिये,यह भर जान लें?

कहीं भी जाइयेगा आपकी मिट्टी अपको बुलाएगी ही,जहां हम जन्म लेते हैं,जिस आव—हवा में हम सांस लेते हैं—उसके बगैर हमारा दम घुटेगा ही—यह जेनेटिक सत्य है—जब-जब इसे नकारा जायेगा, हम बिखर ही जाएंगे.

सुविधा और सुख में फर्क होता है.जब-जब हम इस फर्क को भूलने लगते हैं हम अपने-आप से भी भटकने लगते हैं.

यह भटकाव—विमोह है,इसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं.

बाहर से अंदर की ओर यात्रा चलनी चाहिये,यही मानवीय है,यही सत्य-शिव-सुंदर है.

अपने घर भी रोटी है—लेकिन रूखी-सूखी है.

क्या हर्ज है???

क्या मैं झूठ बोलयां???

Wednesday 11 November 2015

बदरंग हो रहे हैं हम-क्या हम जीवन को जीते हैं???


बदरंग हो रहे हैं हम-क्या हम जीवन को जीते हैं???

बहुत ही बे-तुका प्रश्न हो सकता है—लेकिन थोडा ठहर कर देखिये उस आइने में जिसे हम जीवन कहते हैं?

पर ऐसा होता नहीं हैं—उस आइने पर अपने अहम,अपने थोथेपन की धूल पोंछते जाते हैं—कि और-और पा लें फिर इसको साफ करेंगे और फिर अपने खूबसूरत चेहरे को निहारेगें—जो हम निरंतर बदसूरत किये जा रहे हैं.

भागे जा रहे हैं—भागे जा रहे हैं—सांसे फूल रही हैं मुट्ठियां जकडे हुए हैं—पता नहीं उनकी सधों में से खूबसूरत पल नीचे गिर कर धूल हो रहे हैं.

आज की पीढी का यह बे-नकाब चेहरा है—जिसे वे हर-पल छुपाने के भ्रम में घिरे हुए हैं जो बाहर बाजारों में बिखरा पडा है—और लोग उन पर से गुजर जाते हैं.

घर भरे हुए हैं—अटे पडे हैं—कबाड होने के इम्तजार में—वार्डरोबों से हजारों के गोटे-कसीदे पैरों के तले पडे हैं—खाना पेटों से ऊपर बह रहा है—गंदी नालियों में—गाडियां जरूरते नहीं है—दूसरों के अहमं को तोडने की हथोडियां हैं—चाहे वे हमारे ही सिर और वजूद को चटका रहीं हों.

नींद के लिये—खोपडियों के बालों को नोंचे जा रहे है---

और इसके आगे---जिन्होंने उनके सपनों को हकीकत करने के लिये खुद को गिरवीं रख दिया—सिर्फ़ एक चाह के लिये कि—जब उनके कंधे झुक जायेंगे तो हमें बैसाखियों का सहारा नहीं लेना होगा—इनका हाथ हमें थाम ही लेगा—

ऐसा ना-काम भरोसा जो कभी ना-काम होता ही नहीं—पीढियां ना-काम हो गयीं और होती जा रही हैं—जिंदगी का सबसे भयानक भ्रम—

समाज के-उस तबके की हकीकत है—जहां के कुत्ते उनकी कारों की अगली सीटों पर बैठते हैं और—पिछली सीटों पर--??

एक बहुत कडुआ सच—जिसे जिंदगी का बहुत बडा हिस्सा पी रहा है—निरीह होकर—क्योंकि यह ऐसा जहर है—जो गले में ही अटक कर रह जाता है—हालांकि शिव कम से कम शिव तो बन गये—और ये निरीहता के कफन को खुद ही बुन रहे हैं अपने जीते जी.

आखिर हमेम इस जिंदगी से चाहिये क्या??

एक बार कहीं एकांत में जाकर—जोर-जोर से चीखना चाहिये—खुद से प्रश्न करने चाहिये—उम्मीद है—हमारे ही अंतर्मन से इस विषाक्त प्रन का उत्तर मिलना चाहिये—जो हमें इस विष की विषाक्तता से शिवोअहम कर सके--.

कृपया—कुछ पल छीनिये—इस मायाजाल के मकड जाल से---

समय हमारे पास बहुत है—केवल कुछ पल—और संभावना है—आशा भी है ---विष-पान के बाद भी हम शिव तो ना सही—कम से कम एक तृप्त इंसान हो जांय और इस जीवन की सार्थकता को अहोभाव से स्वीकार कर पाएं—और अनुगृहित हो सकें—जो हमें मिला है,बगैर कुछ चुकाए—कि जिसकी कोई कीमत नहीं—और बार-बार मिलेगा भी नहीं.

साभार—मन के-मनके.