Friday 24 April 2015

जीवन और सार



मैने सुना है—स्वर्ग के एक रेस्त्रां में एक छोटी सी घटना घट गई.
उस रेस्त्रां में तीन अदभुत लोग एक टेबल के चारों ओर बैठे हुए थे—गोतम बुद्ध,कनफुशियस और लाओत्से.
वे तीनों एक स्वर्ग के रेस्त्रां में गपशप कर रहे थे.फिर एक अप्सरा जीवन का रस लेकर आई और कहा—जीवन का रस पीएगें?
बुद्ध ने आंखे बंद कर लीं और कहा—जीवन व्यर्थ है,असार है,कोई रस नहीं.
कनफुशियस ने आंखे आधी बंद कर लीं,आधी खुली रख लीं.
वह गोल्डेन मीन को मानता था—हमेशा मध्य-मार्ग.
उसने अधखुली आंखो से देखा और कहा—थोडी चखूंगा,अगर आगे भी पीने योग्य हुआ तो सोचूंगा.
लाओत्से ने पूरी की पूरी सुराही हाथ में ले ली और जीवन के रस को बिना कुछ कहे पूरा पी गया.
लाओत्से कहने लगा—नाच उठा हूं मैं.अदभुत था जीवन का रस.
और अगर जीवन-रस अदभुत नहीं है तो और क्या अदभुत हो सकता है?
जिनके लिये जीवन ही व्यर्थ है तो सार्थकता कहां मिलेगी?
क्योंकि जीवन ही है एक सारभूत,जीवन ही है एक सार,जीवन ही है एक सत्य.
उसमें ही छुपा है सारा सौंदर्य,सारा आनंद,सारा संगीत.
साभार—युवक कौन? संभोग से समाधि की ओर, ओशो.







Tuesday 21 April 2015

यह जीवन बार-बार महाभारत का क्षेत्र सा,


यह जीवन बार-बार महाभारत का क्षेत्र सा,

यह प्रश्न-- शास्वत-निरंतर ढो रहा,मानव निरंतर

निरीह-सर्वहारा-अर्जुन—हथेलियों पर थामे—प्रारब्ध को

और—कृष्ण वांचते कर्म को—थामे हाथ में, जीवन-मंथन की निर्बंध धार को

चौराहों पर भटकते अर्जुन,घाटों पर घिसटते अर्जुन

वीथियों की धूल में, सने-लिपटे अर्जुन

भूख को-- कोख में निचोडते अर्जुन

जार-जार होते अर्जुन-- भटकते बचपनों में

बूढी आंखो में-- सूखते पानी से अर्जुन

चिथडों में-- हया को ढापते अर्जुन

धिक्कार-दुद्कार-बेहयाई में कांपते अर्जुन

और—सीढियों पर धकियाते अर्जु्नों को अर्जुन

यह महाभारत शास्वत-चिर-निरंतर

मानवीय रक्त की शिराओं में दोडता-निरंतर

लहू को लहू से बुझाता प्रारब्ध की आंच को--अर्जुन

और---कैशव-कृष्ण-माखनचोर

हाथ में थामें कर्म-चक्र और विश्वास-शंख

ढांढस बधांते—ललकारते-पुचकारते-संभालते

कर्म के रथ को हांके लिये जाते—युगों-युगों तक

मानव-जीवन की विडंबना यही सत्य है, कि

बीज-रूप में--- प्रत्येक—यहां-हर-एक अर्जुन ही है---

और---बार-बार कृष्ण को जन्म लेना ही होता है—

हर-दिन एक महाभारत को जीतने के लिये,

अर्जुन को जिलाने के लिये,

प्रारब्ध को पूर्ण करने के लिये.
 
पुनःश्चय:
’मैं और जीवन’—एक काव्य-रचना श्री प्रवीणजी द्वारा रचित पढ रही थी---
अनायास ही कुछ पंक्तियां उतर आईं---टिप्पणीं के रूप में नहीं वरन उनकी लिखित पंक्तियों की धार अनवरत आगे बह चली.
साभार-धन्यवाद.
                          


Wednesday 8 April 2015

मैंने तुम्हें--- अब,पत्र लिखना छोड दिया है.



             
बहुत भाव थे,मन में

मन में बडी चाह थी
                कि,
कुछ अपनी सी लिख
पाती में,जीवन की
            मैं,
भेजूं तुम तक
बातें—दिल की
जो कह ना सकी
अब-तक,तुम से
            क्यॊकि,
उन दिनों,मैं भी
घर के कोंनो से
धूल,झाड रही थी
रसोई में---
खडी-खडी—
तुम्हारे पसंद के
सेक रही थी पराठे
आलू के---
         जब तुम,
थके-क्लांत घर लोटो
गरम-सोंधी सी दाल से
सोंधी सी रोटियां
तुम्हें सोंधा सा कर दें
              तुम्हारे जाने के बाद
मेंज पर बिखरे पन्नों को
समेटती रहती थी—
ता-दोपहर—
थके-हारे-से लोटो
भर सको---
फिर एक नया रंग
अपने कल के
सपनों में—
                    शाम को,
चाय की प्यालियां लिये
तुम्हारे सिराहने खडी
झ्ंझकोरती रही हूं
कहीं तुम्हारी नींद ना टूट जाय
                   देर रात,
जब तुम--
सोने चले गये
अपनी-अपनी चादरों में
लिपटे हुए---
                   तुम्हें,
दरवाजे की ओट से
देखती रही हूं,कि
कल फिर तुम्हारा
एक और नया दिन हो
                मेरी छांव तले,
और,दबे पांव लिये
कल के इम्तहांन को
तुम्हारी किताबों में
खोजती रही हूं—
देर रात-तलक
                यूं ही,
कितने बरस
इन रात-दिन के
चक्रव्यूह में--
फिर से जीवित हो उठा
               अभिमन्यु,
जहां जाना तो है
निकलना ना-मुमकिन
                और,
एक-एक कर के,वो
बिस्तरे, सिमटते गये
पढने की मेजें बिक गयीं
कबाडों में,ढीली होकर
                 फिंक गये,
चाय के प्याले,चटक कर
कूडेदानों में
दो रह गये---
और,अब तो एक ही रह गया है.
                     अब,
देर रात तलक
नींद तो नहीं आती
आदत पुरानी हो गयी है,
पुरानी आदत जाती नहीं
                   लेकिन,
पास के कमरे से
तुम्हारे सो जाने के बाद की
सांसे---
जो,कहीं दूर हजारों मील
चली गयी हैं—
जिन्हें अब मैं सुन भी नहीं पाती हूं
( सुनना तो चाहती हूं?)
यही सब सोच कर
कुछ पत्र लिखे थे,तुम्हें
पिछले कुछ दिनों
               कि,
कुछ बातें---
बातें वो—दिल की
जो उन दिनों
कह ना पाई
अब कह दूं
                 और,
तुम पढ लो उन्हें
जान लो उनको
वो राज की बातें
वो बे-बात की बातें
             कि,
कुछ सपने तुम्हारे
अधूरे रह गये
कोशिश तो की थी
पर,ना हो सकी
                लेकिन,
कुछ तो सपने,तुम्हारे
महका रहे होगें
आंगन को,तुम्हारे
तुम्हें,स्निग्ध करते तो होंगे
                 जो मैंने,
अपने आंगन के गमलों से
उखाड कर—
तुम्हारे गमलों में
रोप दिये थे—जब तुम जा रहे थे
                       अब भी,
वो शब्द बिखरे पडे हैं
मेरी किताब के खुले पन्नों पर
कि,जब तुम अपने घर पहुंचो
रोप लेना इन्हें,अपने गमलों में
                       क्या वे,
खुशबुएं फैला रहे हैं???
प्रत्युतर देना—
अगर हो सके---
नहीं तो कोई बात नहीं
                    तुम्हारी मां

क्षमा करियेगा—७ अप्रेल की पोस्ट के बाद आज ८ अप्रेल को एक और पोस्ट डाल रही हूं---केवल पढ लीजियेगा इसे.
भाव थे—आंसुओ में उतर कर,कब शब्दों में आ गये,पता ही ना चला—और उंगलियां पोस्ट लिखने लगीं.
शाश्वत-भाव---शाश्वत धारा का रूप ले निर्वद्ध हो बहने लगे तो---उसे स्वीकार कर लेना होता है---और मैंने किया.








Tuesday 7 April 2015

जब तू आए---



जब तू आए
मेरे आंगन में
जीवन का अंतिम
मधुमास हो---
दुल्हन सी काया हो
सकुचाई सी बांहे हों
पलकों पर मेरे--तेरे होठों की
स्निग्ध-प्रेम की आभा हो
जीवन के उढके दरवाजे पर
भोर का सूरज---
नारंगी हो
बासंती झोंको से
लहराता मेरा आंचल हो
कुछ फूल रह गये जो
अधखिले---उन पर भी
कल की आशाओं के
भंवरों की आवा-जाही हो
कलियों के कलशों पर
कलई चढाएं---
तितलियां
अपने सतरंगो की
                             जब तू आए
                             मेरे आंगन में
पतझड के पातों पर,पाती
प्रेम पगे---पनुहारों में
पहुंचेगे पग-पग-पर(तेरे)
पढ लेना उनको भी
पलकों से छूकर
उनको भी---
                           जब तू आए
                           मेरे आंगन में
जितना प्रेम किया,तूने
मुझसे---
सो गुना कर-- ले आऊंगी
हर-एक चुंबन के
तेरे
हजार छाप
दे जाऊंगी
                             बस,
                              जब तू आए
                              मेरे आंगन में
                              जीवन का अंतिम
                              मधुमास हो.