Wednesday 30 November 2011

पीले फूलों वाला घर-----

मैं, पीले फूलों वाला घर हूं,
                 पूरब के कोने में,
                 तुलसी का विरबा है
                 विरबे में,दीये का साया है
                 साये में,जीवन की गाथा है
मैं,पीले फूलों वाला घर हूं,
                  घर की दीवारें पीली हैं
                  दीवारों पर लाल कंगूरे हैं
                  लाल कंगूरों से लिपटी
                  अंगूरों की बेले हैं---
मैं,पीले फूलों वाला घर हूं,
                  सांसों के अहसास भरे
                  घर में कुछ कमरे हैं
                  एक कमरा खाली है
                  खाली कमरे में अहसासी साया है,
मैं पीले फूलों वाला घर हूं,
                  दीवारों से सिमटे---
                  जाली के दरवाजे हैं
                  दरवाजों पर सिमटी आंखों में
                  कल की आशा है------
मैं,पीले फूलों वाला घर हू,                                 


                                       

Wednesday 23 November 2011

चाणक्य की शिखा

घन-घोर,घटाएं,घुमड-घुमड
घनानंद सी,दमित किये,उजियारे को
         क्षितिज़-देश पर छाई है----
         सूर्य-रथ के अश्वों को ,अंध किये
कहीं रोंदते, हाथी पथरीले
भविष्य,मूक-जनमानस के
कहीं,उलझ रहीं,सांसें अटकी सी
दिशा ढूढती,साइकिल के चाकों में
कहीं,दिशा-भ्रमित,ढोते अपनों के पुण्यों को
                मूक-अंध-अश्व सा,किया जनमानस को—
                कहीं,रथ पुनः हुए,अवतरित-----
                भविष्य-दृष्टि-विहीन,उनके चाकों के
राजनीति के चोरों ने,सेंध लगाई
घर-घर के,कोने-कोने में-----
हर-दिन, झूटे-मंच, सजे हैं
नित-नए,झूठे वादों से---
समाचारों में भी,वही छपे नाट्य
वही,संवाद- वाद – विवादों के
नित-नये-मंच पर हो आसीत
नित-रोज, जुटाते, भीड खरीदी सी
ताली भी बजवाते हैं-----
नज़रों के छुपे इशारों से
हर-रोज, आंकडे रटते है
   रट्टू – तोतों के पाठों से
   बंटता ग्यान,रोज-रोज,सूखी रोटी सा
   कितना खाएं उनको,चिपके पेट,भूखों से
कीचड,रोज उछल रही,औरों पर
जिस कीचड में,खुद सने हुये
योग-गुरू जो थे, अब-तक
स्वम, योग-गणित में,उलझे-उलझे से
एक बार,देश बंटा था—
   गैरों के निष्ठुर हाथों से
   अब, प्रितिदिन, बंट रहा,प्रांत-प्रांत
   अपनों के निष्ठुर हाथों से---
बदले में,एक कुर्सी की, अतृप्त-प्यास
वह भी , केवल,पांच – वर्षों की---
इतना,स्वंम-स्वार्थ –लोभ,तुलता है
कल-आज-कल ,देश के सपनों से
      अब,कब ,एक चाण्कय खोलेगा
      बंधी – शिखा की गांठों को
      खोजेगा , कब,धूल-भरी-बीथियों में
      चंद्रगुप्त के बिखरे बचपन को—
अब, कब होगा ,भंग-दंभ
घनानंद की टेढी , भृकुटि का
अब,कब, बांधेगा ,पुनः शिखा(चाण्क्य कोई )
खोली थी,जो कभी, दिशा-भ्रमित-दंभ की,ढ्योढी पर.
                                           मन के - मनके                                        
              

Thursday 17 November 2011

Rebuilding A House---

ज़िन्दगी की इमारत-मरम्मत की मुहताज़ है
कभी-कभी इसके नक्शे भी बदलने होते हैं
इसकी बुनियाद को खंडहर ना होने दिया जाय
और,खुद को,इन खंडहर की टूटी ईंट ना बनने दिया जाय---
यही जीवन-सत्य है.
कल मेरा,एक ऐसी खबर से सामना हुआ,जो आम-खबर थी.हर दिन,ऐसी खबरें,हमारे आगे-पीछे
अपनी गर्दिशों की धूल उडाती रहतीं हैं,जिन्हें हम कपडों पर पडी धूल की तरह झाड कर आगे निकल जाते हैं.
   रोज़ सुबह,समाचार-पत्रों का एक बडा हिस्सा ऐसी ही खबरों के रंगों से रंगे जा रहें हैं.
मेरे पडोस में एक परिवार रह रहा था.उस परिवार में ,पति-पत्नि,उनका एक बेटा व एक बेटी,
साथ में उन सज्जन की मां भी साथ रहती थीं.
जब कभी,मेरा उनसे आमना-सामना हुआ,हमेशा ही उनकी पत्नि ने मुझे विश किया,और साथ ही
घर आने का छोटा सा आग्रह भी.
  अक्सर,वे अपनी पत्नि के साथ,बालकनी की रेलिंग से लटके से खडे रहते थे,सिगरेट के लंबे-लंबे
कशः लेते हुए.
   एक दिन,करीब सुबह दस बजे,उन सज्जन ने बाथ के रोशनदान से रस्सी का फ़ंदा लगा कर
आत्महत्या कर ली.
  यह एक अप्रत्याशित खबर थी,जिस पर कोई भी,सहज विश्वास नहीं कर सकता था,क्योंकि कुछ देर पहले ही,कई लोगों ने उन्हें चिरपरिचित अवस्था में, बालकनी में खडे देखा था.
 अविश्वास की स्थिति में,मैं पढे हुए समाचार-पत्र के पन्नों को दुबारा पलटने लगी.
उस समाचार-पत्र में,मुझे ऐसी कोई खबर नहीं मिली जिसे दुबारा पढा जाय.अतः पास पडी,
पालो कोल्हो की पुस्तक ’ लाइक द फ़्लोइन्ग रिवर ’ उठा ली और उसके पन्ने पलटने लगी.
अचानक,एक शीर्षक पर नज़र पड गई—री बिलडिन्ग ए हाउस.
यह एक-डेढ पेज का लेख था,जो संस्मरण के रूप में था.
  जिसमें एक ऐसे आदमी की कहानी है.जो परिस्थितिवश कर्ज़ में डूब जाता है,और जीवन के लिए देखे सपनों को वह पूरा नहीं कर सकेगा.इन हालातों में उसने आत्महत्या करने की सोची.
  ऐसी मनःस्थिति से घिरा,एक दोपहर ,वह कहीं किसी रास्ते से गुज़र रहा था,तभी उसकी नज़र
एक मकान पर पडी,जो खंढहर हो चुका था.उस खंढहर हुए मकान को देख कर,वह आदमी सोचने
लगा कि---मेरी हालत भी इस मकान जैसी है.
  उसी क्षण एक विचार उसके मन में कोंधा—क्यों ना इस मकान की मरम्मत कर दी जाय.
उसने उस मकान के मालिक का पता लगाया व उसके सामने अपना प्रस्ताव रखा. उस मकान के मालिक ने उसके प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया और उस मकान को पुनःजीवन देने के लिये आवश्यक व्यवस्था कर दी,हालांकि,मकान-मालिक समझ नहीं पा रहा था कि इस जर्जर मकान की
मरम्मत करके इस आदमी को क्या हासिल होगा.
   जैसे-जैसे,उस मकान की मरम्मत होती गई,वैसे-वैसे वह आदमी को लगने लगा,कि उसका जीवन भी इस जर्जर मकान की तरह सुधरने लगा है.
कहने का आशय है, उस मकान की मरमत्त करके, उसे जीवन की सच्चाई समझ आने लगी.
जीवन की इमारत भी,हमेशा मरमत्त मांगती है.
   समय-समय पर,इसकी टूट-फूट को ठीक करते रहना चाहिए और मन से तैयार रहना चाहिए
कि ज़रूरत पडने पर,इसके नक्शे को भी बदलना पडे तो कोई हिचक ना हो.
  क्योंकि,इमारत का महत्व तो है लेकिन उसमें रहने वाले अधिक महत्व्पूर्ण हैं.यदि रहने वालों का आस्तित्व नहीं है,तो इमारत तो खंडित होगी ही. रहने वाले जहां भी डेरा डाल लेते हैं,इमारत वहीं खडी
हो जाती है
   परंतु,आत्महत्या जैसा कदम उठा कर,उन्होंने जीवन के,अन्य गंभीर मसलों की भी हत्या कर दी.
उन्होंने,अपने व्यापार,नफ़ा-नुकसानोम को इतनी अहमियत दे दी,कि अपनी पत्नि,बच्चों व विधवा मां
के आज को भूल गये,आने वाले भविष्य की आहट ना सुन सके.
   वे आंसू,जो उनके ना होने पर बहेंगे,उनकी कीमत कैसे आंकी जाएगी,बच्चों की सूनी आंखे
जो अपने पिता की मौजूदगी को ढूंढेगी ,उनका खलीपन वे नाप नहीं सके.
  यह तो इस त्रासदी का भावात्मक पक्ष है.एक दूसरा पक्ष भी है,जो हम ऐसी परिस्थियों का सामना
करते हुए भूल जाते हैं---वह यह,रास्ते बहुत हैं,जिन्हें ढूंढा व पाया जा सकता है,लेकिन हम केवल रास्तों की पगडंडी पर घिसटते ही रहते हैं.
  होता यह है,अक्सर ही,संभावनाओं के दरवाजों को हम खोल नही पाते हैं,जो उढके होते हैं ,उनको हम और बंद कर देते है.
  अतः,जीवन जीते ही रहना चाहिए,उसे छूते ही रहना चाहिए,उसकी चाल को समझते रहना चाहिए
कुछ भी तो स्थिर नहीं है,सब कुछ बदल रहा है,संभावनाएं-असंभावनाएं बन रहीं है.असंभावनाएम,संभावनाएं
ओशो कहते हैं---
आस्तित्व संभावनाओं से भरा पडा है,हर-पल आस्तित्व हमारी रक्षा कर रहा है..
                                                मन के--मनके

Friday 11 November 2011

एक अहसास-पछतापे का,पश्चाताप के आंसू,पलकों पर,सहेजने का

जीवन की पूरी परिभाषा करें और सरल-सहज शब्दों में करें,तो संबन्धों की डोरी में,अहसासों के मोतियों की लडी है,जब चमकती है,अपनी चमक की आभा चारों ओर बिखेर देती है,जब भी हम उन मोतियों को,समय-समय पर साफ करते हैं,उन्हें अपनी स्मृतियों के आंचल के कोमल स्पर्श से छूते रहे हैं.
इस अहसास से,मानव जीवन ही सिंचित नहीं होता,पशुओं में भी इस अहसास को महसूस किया जाता रहा है,बेशकः उनकी पशुता,कितनी ही पाशविक क्यों ना हो.
इन अहसासों की छांव तले,वे भी मानवता के गुणों से भर जाते हैं,तब मनुष्य-पशु के बीच की खाई की गहराई कम हो जाती है.लगने लगता है,ईश्वर ने,इन अहसासों को,सबको समानता के आधार पर बांटा है,भेद हमारी आंखों में रह जाता है,ईश्वर की निगाहें भेद रहित हैं.
      जीवन में,कभी-कभी कुछ घटनाओं के घटित होने के कारण समझ में नहीं आते हैं,हांलाकि,कुछ समय बाद लगता है,यदि ऐसा ना होता तो ये ना होता या ऐसा नहीं होना चाहिये था.
      अपने कुछ संबन्धों की विवेचना जब भी करती हूं,तो लगता है कि यदि ऐसा हो जाता या मैं ऐसा कर पाती तो इन घटनाओं की परिणिति कुछ और ही होती,परंतु बात लौट कर वहीं पर आ जाती है—नियति ने लिखा ही यही था तो ऐसा क्योंकर न     होता?
खैर,प्रश्न-दर-प्रश्न,हमें कहीं नहीं पहुंचाते,या तो ,हम      दार्शनिक प्रश्नों पर उलझे रहेंगे या फिर
दोषारोपण के चक्रव्यूह में घिर कर,अपराधबोधों के बाणों से धाराशायी हो जाएंगे.
      जीवन का स्वभाव,पानी के स्वभाव जैसा जान पडता है—पानी को जिस पात्र में रखें,वह उस
पात्र की शक्ल में परिवर्तित हो जाता है,जीवन को,जितना ही हम उलझाते जांए,वह उलझता जाता है और उलझी हुई ऊन के गोले को सीधा लपेटना शुरू कर दें ,तो ,एक गोले की तरह हमारी मुठ्ठी में आ जाता है.
      बात अह्सासों से शुरू की थी,एक अहसास-पश्चाताप का,उन अहसासों के लिये,जिनको हम वक्त रहते महसूस ना कर पाये और हमारे पास केवल पश्चाताप है,जिसे हृदय के पास थोडी सी जगह
देनी चाहिये,अपनी भूल को,अपने दंभ की तपिश पर,ठंडे पानी की छीटें देने के लिये,ताकि,यह तपिश
हमें भस्म ना कर दे और हम कहने का साहस कर पाएं कि हमें पछतावा है,हमने पश्चाताप के कुछ
आंसू,पलकों पर रख लिये हैं,जिनकी गर्माहट आगाह करती है कि जीवन की राह पर पडे अहसासों के फूलों को दंभ के पैरों से रोंदते हुए ना निकल जाना,कोशिश करना कि उन फूलों को उठा कर
अपनी मुठ्ठी में बंद करने की,ताकि कभी जब हम अकेले रह जाएं तो उन फूलों की महक साथ चल
सके.

Sunday 6 November 2011

धर्म,समाज और आस्था

आज,लगता है,विग्यान व धर्म की प्रितिस्पर्धा में,समाज की चूरें ढीली हो रहीं हैं और मनुष्य की आस्था,दुराग्रहों व पूर्वाग्रहों का खंडहर बनती जा रही है.
विग्यान,जितना अधिक अपने आयामों को खोज रहा है,उतना ही धर्म,सत्य से दूर हो रहा है
धर्म क्या है,क्या होना चाहिये? आस्थाओं ने इन अवधारणाओं को विभिन्न रूप से परिभाषित किया है.
विश्वास या आस्था—सार्वभौम सत्य नही हैं,जो कालातीत हो,जो सृष्टि के रूप का प्रितिबिंब हो,प्रकृति की सार्वभौमिकता का अटूट हिस्सा हो.
विश्वास व आस्था—हर युग में परिवर्तित होती रही है,मनुष्य की मानसिकता के अनुरूप,वे बदलती रहीं हैं.
मनुष्य की मानसिकता—उसकी समाजिक-भोगौलिक परिवेष का अक्श है.
जो विश्वास,दुनिया के एक हिस्से में माननीय है,वही दूसरे हिस्से में माननीय नही हो सकता,क्योंकि,विश्वास व आस्था,मानवीय आंकलन का गणित है.
आज,इस नितांत वैग्यानिक युग में भी—धर्म,अपने ढोंगों को,अधिक से अधिक पौषित कर रहा है,और मनुष्य विग्यान की चादर ओढे,गहरी नींद में सो रहा है.
यह,कैसी विडंबना है?
दो दिन पूर्व,मथुरा नगरी,जो श्री कृष्ण की जन्म-स्थली है,के भ्रमण का मौका मिला.
इस भ्रमण का मुख्य उदवेश्य,कुछ पुराने,कुछ नए मंदिरों में भगवान श्री कृष्ण के दर्शन मात्र था.
इस दौरान,मथुरा-वृदावन,नगरियों का भी घूमना हो ही गया.
पुराने नगर हैं,वह भी आस्था के,फिर भी आस्था व विश्वास के नाम पर,छीना-झपटी,लूट-खसोट व निम्न स्तर की दुकानदारी,सडकों पर,मंदिरों में,सब जगह.
ऐसे स्थानों पर एक अलग स्तर की ऊर्जा होनी चाहिये,वह महसूस नही हो रही थी,लग रहा था,मंदिरों की चौखटों पर भी,दुकानदारी चल रही थी.
एक-एक मंदिर में,दस-दस दान पेटियां.अब,सुबह से शाम तलक,यदि १०० यात्री भी आता है,तो १० पेटियों में से,एक या दो पेटियों में तो कुछ ना कुछ डाल कर जायेगा.
पेटियां भी,ऐसे स्थानों पर रखी जाती हैं,जहां एक नज़र उन पर,मंदिर में विराजमान भगवान की अवश्य पडती रहे.
यही नज़र,हर भक्त को शंकालु बना देती है—यदि कोई बच कर निकलना भी चाहे तो झूठी आस्था का एक हाथ ज़ेब तक पहुंच ही जाता है.
वृंदावन से थोडी सी दूरी पर,कई मंदिरों की नीवें रखी जा रहीं हैं.कुछ तो तैयार हो कर दुकानदारी में लग भी चुके हैं वैश्नों देवी जम्मू के पहाडों से उठ कर,अर्ध रेगिस्तान में विराजमान हो गईं हैं—गुफाओं का आडंबर.
इन मूर्तियों व धार्मिक प्रितिष्ठानों पर करोडों खर्च किये जा रहे हैं,पत्थरों के पहाड काट-काट कर,उपजाऊ जमीन पर आटे जा रहें हैं.
पता नही,इतना इन्वेस्ट्मेन्ट किस तरह किया जा रहा है?काला सफ़ेद हो रहा है या सफ़ेद काला.
किसानों को बेघर किया जा रहा है,केवल कुछ लाखों पर.पीढी दर पीढी वे मज़दूर बन रहें हैं.
आर्थिक-प्रपंच---आस्था के नाम पर.
बंगाल में,वहां के समाज में,आज भी,विधवाओं की बडी दुर्दशा है.उनके अपने ही,उन्हें यहां बने जर्जर विधवा-आश्रमों में,निराश्रित छोड जाते हैं,उनके जीते जी,वे उन्हें देखने भी नहीं आते हैं.
हमारी धार्मिक-समाजिक आस्था व विश्वास का,एक कलुषित रूप यह भी देखने को मिला.
इन धार्मिक नगरियों में,विधवाएं,हाथों को फैलाए,गिडगिडाते हुए,एक-एक रुपए के लिए,हम जैसे धार्मिक लोगों के पीछे,ऐसे दौडती हैं,जैसे कि एक कुत्ता,रोटी के एक टुकडे के लिए.
वाह री आस्था,क्या विश्वास?हमारे धर्म का कुरूप चेहरा?
एक ओर तो करोडों खर्च करके,सच्चे भगवानों को भी,झूठा व लालची बना कर बिठया जाता है-
दूसरी ओर,सच्चे भगवानों को दुद्कारा जाता है.
झूठी आस्थाओं के,पथरीले मंदिरों के बनाने वालों को—क्या कभी खयाल भी आया हैकि,पहले वे,तपती सडकोम पर, नंगे पैर,हाथ फैलाए,भगवानों को,उनके उचित स्थानोम पर स्थापित कर दें.
ओशो कहते हैं------
धर्म—मनुष्य की अधिकतम आनंद,मंगल और आनंद और सुख देने की कला है.
मनुष्य---कैसे,अधिकतम रूप से मंगल को उपलब्ध हो,इसका विग्यान ही धर्म है.
                                              मन के-मनके