Sunday, 29 May 2011

दिल्ली चलें

मू.वी का कथानक बहुत ही सीदा-सादा,मुम्बई से दिल्ली तक की यात्रा का चित्रण है.
-कहानी में मुख्य-पात्र भी केवल दो ही हैं,एक महिला-पात्र जो किसी हाई-प्रोफ़ाइल बिजनेस की सर्वे-सर्वा है,जिनका बिजनेस अमेरिका तक फ़ैला हुआ है.जिस पद पर वे सम्भ्रांत महिला कार्यरत हैं उसी के अनरूप उनका एटीट्यूड है,लाइफ़-स्टाइल है.
उनके पति सेना में कार्य-रत हैं,उनका दिल्ली के पोश इलाके में बंगला है.
वे महिला किसी कार्यवश दिल्ली के लिए फ़्लाइट लेने के लिए,वह भी बिजनेस क्लास में,अपनी हजार व्यस्तता के कारण शायद ऐन समय पर ही एयर्पोर्ट के लिए निकल पाती हैं.
जैसा कि,भारतीय महानगरों का चरित्र है,जगह-जगह जाम,लाल बत्ती का अनावश्यक रूप से ट्रेफ़िक की रफ़्तार को जटिल बनाना,साथ चलते आटो,टेक्सिओं की मारा-मारीअऔर उनमें सफ़रक रने वालों का चम्तकारी रूप से स्वतन्त्र होना,देश की स्वतन्त्रता मेम चार चांद लगाना आदि कितने ही ऐसे ही अज़ीबोगरीब करेक्टर हैं,जिन्हें स्वम ही अनुभव किया जा सकता है.
यह एक अटूट सत्य है,ये अनुभव भारतक ी मिट्टी,हवा,पानी में ही निहित हैं.
स्वाभाविकह ै,उन महिला की फ़्लाइट छूट जाती है,उनका दिल्ली पहुंचना ज़रूरी है,अतःअ पने एट्टीट्यूड के बावजूद के उन्हें किसी इकनोमी फ़्लाइट में यात्रा करनी होती है,साथ उन सहयात्री के साथ जो टिपकल चांदनीचौक वाले हैं,निपट अनोपचारिक,चेहरे से दिल तक चांदनीचौक की च्मक लिये हुए.
यही सहयात्रीइ स कथानक के दूसरे मुख्य पात्र हैं.इनका नाम अनु गुप्ता है.
इस पात्र को जिन अभिनेता ने निभाया है,बखूबी निभाया है.
गुटका के पाउच को मुंह से फ़ाड कर मुंह मे खाली करना,जगह-जगह पीक मारना,कपडों का चुनाव उनके मस्त्मौला स्वभाव का प्रितिबिम्ब है,आत्मविश्यास से ओत-प्रोत बेफ़िक्री का आलम ऐसा कि जंगल में भी शेर समान,सुनसान रास्तों में निडरता के प्रतीक,त्रैन की जंजीर खीचने में बेधडक,बिना टिकट यात्रा करने में पुराने अनुभवी,रिश्वत देने में स्वाभाविक,खाना खाने में दिलदार,चाहे बाल ही न निकल आए,ज़ेब कट गई कोई गम नही(क्योंकि चोर ज़ेब पर भरोसा है)सामान छूट गया,जिन्दगी नही चली गई.
ऐसे करेक्टर शायद फ़िल्मों में ही मिलते हैं,लेकिन यह भी सत्य है फ़िल्मों की कहानिऒं के पात्र भी असली जीवन के हिस्से हैं.
ये दो विरोधी एट्टीटुऊड के पात्र मुम्बई से दिल्ली तक की यात्रा शुरू करते हैं,तकनीकी खराबी के कारंण विमान जयपुर लेंन्ड करता है.
अब, जयपुर से दिल्ली तक की यात्रा उन महिला की अनु गुप्ता के साथ पूरी होती है.
पूरी यात्रा में,अनु गुप्ता अपनी ,जमीन को छूती चारित्रिक ऊंचाइओं को छूते चले गये और महिला सह-यात्रि के अट्टीट्यूड को इस हद तकदधाराशाई करते गये,जहां पहुंच कर वे इन्सानियत की महक को सूंघ पाईं और ओढे हुए एट्टीट्यूड के लबादे को उन सज्जन के दरवाज़े पर जाकर उतार भी आईं.
अपनी निजी ज़िन्दगी की त्रासदिओं के बावज़ूद,वे इनसानियत के सातों रंगों से सरोबार,खुशिओं के इन्द्रधनुष को अपने साथ लिए जीवन यात्रा पर चल रहें हैं.
कोमा में पडी पत्नी के साथ भी जीवंतता के साथ गृहस्थ धर्म निभा रहें हैं.
ऐसा पात्रह में ढूंढते रहना चाहिए---जीने की कला के कुछ गुर तो हाथ लग जांए,अन्यथा जीवन बेबजह बोझ बना रहता है,समझ नहीं आता है,यह बोझ किसका है और कन्धों पर किस लिए टांगे हैं.
                                                                              मन के-मनके

6 comments:

  1. देखने योग्य फिल्म।

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  2. आपने बहुत ही सुन्दर निष्कर्ष निकाला है।

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  3. लब्बो-लबाब पढ़ कर तो फिल्म देखने का मन कर रहा है...

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  4. मुझे तो यह फिल्म इतनी अच्छी लगी कि तीन दिन में दो बार सिनेमा हाल में जाकर देखा और कईयों को दिखवाया...

    हलके फुल्के अंदाज़ में हसाते गुदगुदाते जितनी गहरी बात इस फिल्म में कही गयी है न कि मैं तो इसकी फैन हो गयी...

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  5. मैने देखी यह फिल्म..वाकई आपने सबके मन की बात निष्कर्ष में निकाली. बहुत बढ़िया.

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