जब गर्मी से चटकी छत पर,
एक हाथ के तकिये पर लेटी,
तुम संग-चांदनी(अपनी महक) के,
धीरे से,छत पर उतर आए---थे,
मेरी मुंदी-मुंदी आंखों मे,
जगते सपनों के साथ बैठ,
धीरे से उंगली फ़ेरी थी,तुमने,
मेरी खुली लटों की टहनी पर,
तुम, गुप-चुप से,मुसकाये भी थे,
मेरे होंठो पर रख,उंगली अपनी,
धीरे से, मेरे फ़ैले आंचल पर,
यूं,लेट गये थे--मनुहारों से,
एक हाथ रख,सीने पर मेरे अपना,
मिचकी-मिचकी,आंखो से,देख रहे थे,तुम मुझको,
कहीं सपनों की डोर, टूट गई ना हो,
धडकन बन मेरी,मन को मेरे,थामे थे,तुम,
मैं भी बन्द किये आंखो को,
देख रही थी,तुम को पल-पल,
प्यार भरी झिडकी से चिहूक,
कभी झटक देती थी, मैं तुमको,
तो, कभी बहानों में बह,
भर बांहो में,समेट तुम्हें लेती थी,तुझको,
जिस आंचल पर,सिमटे थे तुम,
में भी सिमिट गई थी, उस आंचल में,
रार-रीतती,बात-बीतती जाती थी,
तुम भी,धीरे से,उठ उठ गये, दबे पांव थे,
मैं भी, आंख मूंद,सोई-जागी सी,
तेरे जाते पैरों तक,सिमट गई थी,मैं,
जैसे,हर रात गई, हर भोर हुई,
प्रिय के जाने की बेला आनी ही है,
फ़िर एक प्रतिक्छा की पाती में,
तेरे आने का सन्देश,भर लाई आंखो में पुनः,
एक चांद का आना--याद है,याद मुझे,
मन के--मनके
एक हाथ के तकिये पर लेटी,
तुम संग-चांदनी(अपनी महक) के,
धीरे से,छत पर उतर आए---थे,
मेरी मुंदी-मुंदी आंखों मे,
जगते सपनों के साथ बैठ,
धीरे से उंगली फ़ेरी थी,तुमने,
मेरी खुली लटों की टहनी पर,
तुम, गुप-चुप से,मुसकाये भी थे,
मेरे होंठो पर रख,उंगली अपनी,
धीरे से, मेरे फ़ैले आंचल पर,
यूं,लेट गये थे--मनुहारों से,
एक हाथ रख,सीने पर मेरे अपना,
मिचकी-मिचकी,आंखो से,देख रहे थे,तुम मुझको,
कहीं सपनों की डोर, टूट गई ना हो,
धडकन बन मेरी,मन को मेरे,थामे थे,तुम,
मैं भी बन्द किये आंखो को,
देख रही थी,तुम को पल-पल,
प्यार भरी झिडकी से चिहूक,
कभी झटक देती थी, मैं तुमको,
तो, कभी बहानों में बह,
भर बांहो में,समेट तुम्हें लेती थी,तुझको,
जिस आंचल पर,सिमटे थे तुम,
में भी सिमिट गई थी, उस आंचल में,
रार-रीतती,बात-बीतती जाती थी,
तुम भी,धीरे से,उठ उठ गये, दबे पांव थे,
मैं भी, आंख मूंद,सोई-जागी सी,
तेरे जाते पैरों तक,सिमट गई थी,मैं,
जैसे,हर रात गई, हर भोर हुई,
प्रिय के जाने की बेला आनी ही है,
फ़िर एक प्रतिक्छा की पाती में,
तेरे आने का सन्देश,भर लाई आंखो में पुनः,
एक चांद का आना--याद है,याद मुझे,
मन के--मनके
वाह .......अति उत्तम
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना!
ReplyDeleteश्रृंगार छन्द,
ReplyDeleteनिस्तेज द्वन्द।
वाह ... बहुत ही खूबसूरत शब्दों का संगम इस रचना में ।
ReplyDeleteहमको अपनी आशिकी का वो जमाना याद है...चाँद कभी छम्म से भी आया करता था...
ReplyDeleteखूबसूरत अल्फाजों का समन्वय।
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