सिर को अपने कंधों पर,टिकाये रहिये,
नज़रों को, दूर छितिज तलक,लगाये रहिये,
हाथों की कसी मुट्ठियां,ढीली होने न पायें,
दगमगाने न पायें पेरों के----------कदम,
ज़िन्दगी के पडाव बाकी हैं ,काफ़ी,
कोई ज़ाम,हाथॊं से छलकने न पाये,
हर ज़ाम मे साकी(जीवन)की,
थोडी सी,मधुशाला है बाकी,
जीवन की सूखी रेत को,
आशायों की ओस से,नम करना है बाकी
सपनों के कुछ बीज जोहैं शेष अभी,
उनको भी तो,अंकुरित करना है ,बाकी,
इस बाग के माली हैं, हम,
पतझड के झोकों से, उसे बचाना है बाकी,
कोयल की कू-कू को अभी,जी भर जी न पाये,
उसे भी तो अभी,जीना है बाकी-------------,
भंवरों की गुन-गुन को अभी जी भर पी न पाये,
उसे भी तो अभी पीना है बाकी,
तितलियों के पंखो की रंगीनियत को भी,
उंगलियों की पोरों से छूना है बाकी---
माथे पर आईं, वक्त की---लकीरों को,
पढ कर------------जीना है, बाकी,
साल-दर-साल, बढती झुर्रियों में,
ज़िन्दगी की इबारत को अभी,पढना है,बाकी,
अब तलक जीते रहे,बहानों को, जीने के लिये,
मकसदों के रात-दिन-----------जीना है बाकी,
अक्सर, राह चलते कहते हैं लोग,
हाथों के ज़ाम हो गये हैं खाली,
रीती ज़िन्दगी की मधु की बूंदो को झटक,
रीत क्यों नही देते, हाथों से इनको,
अब तक जो भी पी,
पी वो औरों की मधुशाला की मधु,
मेरी मधुशाला तो यूं ही रही,
मेरे हाथों के ज़ामॊ में,खाली-खाली,
अब तलक उसको होठों तक लाया ही नहीं,
सुरूर उसका---------पलकों तक छाया ही नहीं,
हर नुक्कड पर खुले हैं,दरवाज़े,मधुशालाओं के,
दरवाजों के अंदर अभी---झांका ही नहीं,
जब-तलक,सांसो का तार,जग्मग है,पास मेरे,
तब-तलक,मेरी साकी का,ज़ाम बाकी है,भरा-भरा,
मन के-मनके
नज़रों को, दूर छितिज तलक,लगाये रहिये,
हाथों की कसी मुट्ठियां,ढीली होने न पायें,
दगमगाने न पायें पेरों के----------कदम,
ज़िन्दगी के पडाव बाकी हैं ,काफ़ी,
कोई ज़ाम,हाथॊं से छलकने न पाये,
हर ज़ाम मे साकी(जीवन)की,
थोडी सी,मधुशाला है बाकी,
जीवन की सूखी रेत को,
आशायों की ओस से,नम करना है बाकी
सपनों के कुछ बीज जोहैं शेष अभी,
उनको भी तो,अंकुरित करना है ,बाकी,
इस बाग के माली हैं, हम,
पतझड के झोकों से, उसे बचाना है बाकी,
कोयल की कू-कू को अभी,जी भर जी न पाये,
उसे भी तो अभी,जीना है बाकी-------------,
भंवरों की गुन-गुन को अभी जी भर पी न पाये,
उसे भी तो अभी पीना है बाकी,
तितलियों के पंखो की रंगीनियत को भी,
उंगलियों की पोरों से छूना है बाकी---
माथे पर आईं, वक्त की---लकीरों को,
पढ कर------------जीना है, बाकी,
साल-दर-साल, बढती झुर्रियों में,
ज़िन्दगी की इबारत को अभी,पढना है,बाकी,
अब तलक जीते रहे,बहानों को, जीने के लिये,
मकसदों के रात-दिन-----------जीना है बाकी,
अक्सर, राह चलते कहते हैं लोग,
हाथों के ज़ाम हो गये हैं खाली,
रीती ज़िन्दगी की मधु की बूंदो को झटक,
रीत क्यों नही देते, हाथों से इनको,
अब तक जो भी पी,
पी वो औरों की मधुशाला की मधु,
मेरी मधुशाला तो यूं ही रही,
मेरे हाथों के ज़ामॊ में,खाली-खाली,
अब तलक उसको होठों तक लाया ही नहीं,
सुरूर उसका---------पलकों तक छाया ही नहीं,
हर नुक्कड पर खुले हैं,दरवाज़े,मधुशालाओं के,
दरवाजों के अंदर अभी---झांका ही नहीं,
जब-तलक,सांसो का तार,जग्मग है,पास मेरे,
तब-तलक,मेरी साकी का,ज़ाम बाकी है,भरा-भरा,
मन के-मनके
सुन्दर अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteजब तक जीवन है, आशायें हैं।
ReplyDeleteयह शीर्षकविहीन रचना बहुत सशक्त रही!
ReplyDeleteकाफी कुछ कह डाला बिना शीर्षक के...
ReplyDeleteउम्दा और सशक्त अभिव्यक्ति!!
ReplyDeleteसपनों के कुछ बीज जोहैं शेष अभी,
ReplyDeleteउनको भी तो,अंकुरित करना है ,बाकी,
इस बाग के माली हैं, हम,
पतझड के झोकों से, उसे बचाना है बाकी....
जीवन चलता रहना चाहिए ... कर्म होते रहना चाहिए ... जब भी आयेज देखो बहुत कुछ करना बाकी रहता हा जीवन में .... आशा वादी रचना के लिए बधाई ....