महाभारत का घटित होना-भारत के मानवीय इतिहास का वह पृषठ है,जिसके माध्यम से’गीता, का प्रर्दुभाव हुआ,कर्मवाद आस्तित्व में आया,मानवीय धर्मिक-अध्यात्मिक प्रवन्चना को नया आयाम मिला,जीवन जीने की नई विधा ने जन्म लिया.
कृष्न का इन सब घटना-चक्र का सूत्रधार बनना--भी निमित-मात्र था,स्वम-स्वीकारीय्र.
स्थूल-सूछ्म,अध्यात्मिक्ता को,कृष्न ने अपने आलोकिक आयाम से,इस तरह,मानवीय जीवन के छितिज़ पर फ़ैला दिया जैसे कि काले बादलों के बीच ग्यान का इन्द्रधनुष फ़ैल गया हो-पूर्व से पश्चिम तक.
ओशो ने इस अवधारणा को,कि,मानव जीवन में जो भी घटित होता है-क्या उसके लिये मानव निमित-मात्र है--निम्न प्रष्नों के माध्यम से समझाने का प्रयत्न किया है.
पहला प्रष्न--मानव-जीवन में घटित घटनायों के लिये वह निमित मात्र है?
दूसरा प्रष्न--कि जब मनुष्य-जीवन पूर्व-निर्धारित योजना के अधीन चल रहा है तो इस स्थित में मनुष्य को उन घटनाओ का निमित-मात्र मान लेना चाहिये?
तीसरा प्रष्न--जो घट रहा है,वह सब पूर्व नियोजित है तो मनुष्य के लियेश्रेश्ठ विकल्प क्या हो सकता है?
ओशो ने कहा है----इसे,ऐसे समझने की कोशिश करेगें तो बडी सरलता से कुछ सत्य दिखाई पडेगें.
यदि किसी को निमित बनाया जाये त्रो उसका व्यक्तित्व नष्ट हो जाता है. यदि कोई व्यक्ति स्वम निमित बन जाये,तो उसका व्यक्तित्व,खिल उठता है,पूर्ण हो जाता है.
इसी सन्द्भ्र में,ओशो ने,निमित बनाने और निमित बनने में--के अन्तर को--कृष्न के द्वारा अर्जुन को,युध्य के लिये तैयार करना यह कह कर नहीं कि-तुझे युध्य करना ही होगा-वरन यह कह कर कि ’तू जीवन की धारा को समझ, इस जगत की धारा में व्यर्थ उलझ मत, इसमें बह.तब तू पूरा ही खिल जाएगा.
ओशो कहतें हैं--समपर्ण से बडी घोषणा,इस जगत मेम अपनी मालकियत की और दूसरी नहीं.
में तभी समर्पित कर सकता हूं,जब मेम अपना मालिक स्वम हूं, तो इस प्रकार--अर्जुन यन्त्रवत नहीं हो जाता,वरन वह आत्म्सात हो जाता है.
ओशो--सहस्त्र नमनः
मन के-मनके
कृष्न का इन सब घटना-चक्र का सूत्रधार बनना--भी निमित-मात्र था,स्वम-स्वीकारीय्र.
स्थूल-सूछ्म,अध्यात्मिक्ता को,कृष्न ने अपने आलोकिक आयाम से,इस तरह,मानवीय जीवन के छितिज़ पर फ़ैला दिया जैसे कि काले बादलों के बीच ग्यान का इन्द्रधनुष फ़ैल गया हो-पूर्व से पश्चिम तक.
ओशो ने इस अवधारणा को,कि,मानव जीवन में जो भी घटित होता है-क्या उसके लिये मानव निमित-मात्र है--निम्न प्रष्नों के माध्यम से समझाने का प्रयत्न किया है.
पहला प्रष्न--मानव-जीवन में घटित घटनायों के लिये वह निमित मात्र है?
दूसरा प्रष्न--कि जब मनुष्य-जीवन पूर्व-निर्धारित योजना के अधीन चल रहा है तो इस स्थित में मनुष्य को उन घटनाओ का निमित-मात्र मान लेना चाहिये?
तीसरा प्रष्न--जो घट रहा है,वह सब पूर्व नियोजित है तो मनुष्य के लियेश्रेश्ठ विकल्प क्या हो सकता है?
ओशो ने कहा है----इसे,ऐसे समझने की कोशिश करेगें तो बडी सरलता से कुछ सत्य दिखाई पडेगें.
यदि किसी को निमित बनाया जाये त्रो उसका व्यक्तित्व नष्ट हो जाता है. यदि कोई व्यक्ति स्वम निमित बन जाये,तो उसका व्यक्तित्व,खिल उठता है,पूर्ण हो जाता है.
इसी सन्द्भ्र में,ओशो ने,निमित बनाने और निमित बनने में--के अन्तर को--कृष्न के द्वारा अर्जुन को,युध्य के लिये तैयार करना यह कह कर नहीं कि-तुझे युध्य करना ही होगा-वरन यह कह कर कि ’तू जीवन की धारा को समझ, इस जगत की धारा में व्यर्थ उलझ मत, इसमें बह.तब तू पूरा ही खिल जाएगा.
ओशो कहतें हैं--समपर्ण से बडी घोषणा,इस जगत मेम अपनी मालकियत की और दूसरी नहीं.
में तभी समर्पित कर सकता हूं,जब मेम अपना मालिक स्वम हूं, तो इस प्रकार--अर्जुन यन्त्रवत नहीं हो जाता,वरन वह आत्म्सात हो जाता है.
ओशो--सहस्त्र नमनः
मन के-मनके
बढ़िया सवाल उठाए हैं आपने!
ReplyDeleteअर्जुन सर्वजन हिताय के माध्यम बने।
ReplyDeleteकृष्ण ने अर्जुन को श्रेष्ठ विकल्प चुनने को कहा...यदि निमित्त की बात होती तो जो जैसे चल रहा है उसी तरह चलता रहता...जड़त्व का सिद्धांत है...अपना विवेक ही सही राह दिखाता है...ओशो अपनी बात को बहुत ही सशक्त तरीके से रखते थे...
ReplyDelete