Sunday, 8 May 2011

जीवन, चुनाव-भाव नहीं है---स्वीकार-भाव है---

ओशो कहतें हैं-चुनने की ज़रूरत नहीं,बनो तो,’ज़ोरबा द बुद्धा बनो,.
जीवन में दोनों ही रंग होने चाहिये,अध्यात्मिकता का और भौतिक्वादिता का भी.
भौतिक्वाद तो हमारे शरीर का आधार है,उसे हम कैसे त्याग सकते हैं.
शरीर ही तो वह द्वार है,जहां के प्रवेश द्वार से हम अध्यात्म-भवन तक पहुंचते हैं.
सीधी सी बात-----
                                   भूखे पेट न होये गोपाला,
                                   ले लो,अपनी कंठी-माला,
शरीर के आयाम से भी उठना आवश्यक है,मनुष्यता को पाने के लिये,अन्यथा हम निम्न योनि की ओर उन्मुख होने  लंगेगे-परिणामतः इस योनि तक आने के लिये,जो हमने निम्न योनियों की पीडाओं की यात्राएं की हैं,वे सब व्यर्थ हो जायेंगी.
अतः,अध्यात्मिकता का मार्ग हमें परमान्द तक ले जाता है, अंतः मुक्ति-मार्ग से मोक्छ तक.
सब पीडाओं व यन्त्रणाओं से मुक्ति ही,परमात्मा से मिलन है.
अतः, ओशो- शरीर-आत्मा, दोनों आयामों को ऐक मार्ग मान कर,मुक्ति की यात्रा पर चलने के लिये आवाहन करते हैं.
                                          ओशो कहते हैं---ईश्वर के हर उपहारों को दोमों हाथों से थामों,माथे से लगाओ, और मुक्तहो  जाओ.

3 comments:

  1. बुद्ध भी संतुलन की ही बात करते थे...अति सदैव बुरी ही होती है...आध्यामिकता और व्यावहारिकता दोनों का संतुलन जरुरी है...आपके माध्यम से ओशो को जानने का मौका मिला...धन्यवाद

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  2. आभार इस अमृत वाणी के लिए...

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