भोर-सुबह,बन-बनी,बयार
तू
कलियों के,खोले है द्वार-द्वार
होले से
दो पन्खडियों के पट उढ्काये से
ड्योढी पर
आगुंतक-अनजाना साबन,खडा है,तू
चुपके से
नीम तले---खडी हूं,मैं
छुप कर
तुझे,देखती रहती हूं, मैं
कान लगा
सुनती,विभोर सी,आहट तेरे कदमों की
तभी
नीम-निबोरी सा टपका
मेरी
फ़ैली झोली में तू
आंख मूंद
(नीम-निबोरी) मिश्री सी,मन आतुर है,मुंह में रखने को
कभी
तितली बन,उड आया तू
बैठ
मेरी खुली हथेली---पर
शब्द मेरे
बे-अर्थ ,कर ---गया
अविष्कार
अद्बभुत बन- रंगों का,तू
बागों में
गुन-गुन सी,बन भंवरों की
हरदम
ना जाने, कहां-कहां मडराता,तू
कभी
बन, ओस-भोर की
भिगो गया
मेरे, तलुवों को तू
तो
आसमान में
विहगों की बन उडान
बिन -डोर,पतंग सा
ओझल
हो गया है, तू
तो
स्निग्ध-सुवासित सा, हो
कभी
घुल गया बयारों में,तू
तो,कभी
मन मेम दबे,प्रेम-गीत सा
बिखर गया
होंठो पर,मेरे---तू
बांट जोहती,प्रियतम की
बन गया
विरह-गीत प्रेमी का,तू
तो
कभी,बिखर गया,पीला सा तू
फैले
सरसों के---मीलों, खेतों में,तू
चकित कर गया
समझ नहीं आता-मन को
इतना
रंग-पीला, लाया कहां से,तू
आग उगलता
अमलतास---में, तू
तो
गुल्मोहर के ठंडे शोले सा
राहों पर
बिछ गया,दरी सा,स्वागत में,मेरे तू
जैसे
ड्योढीपर,आया हो निज-कोई
जहां भी मेम
जाती हूं,दबे पांव,संग मेरे हो लेता है, तू
कब से
मित्र बना है, तू मेरा
याद
मुझे भी ना आता है,तू
फिर भी
हर-पल, गुम सा हो जाता,तू
कहां-कहां
ढूंढू मैं, तुझको-----
बस
अपने को,अपने में ही ढूंढू
आत्मसात
कर तुझको,स्वम में ही पा जाऊं मैं
मन के-मनके
तू
कलियों के,खोले है द्वार-द्वार
होले से
दो पन्खडियों के पट उढ्काये से
ड्योढी पर
आगुंतक-अनजाना साबन,खडा है,तू
चुपके से
नीम तले---खडी हूं,मैं
छुप कर
तुझे,देखती रहती हूं, मैं
कान लगा
सुनती,विभोर सी,आहट तेरे कदमों की
तभी
नीम-निबोरी सा टपका
मेरी
फ़ैली झोली में तू
आंख मूंद
(नीम-निबोरी) मिश्री सी,मन आतुर है,मुंह में रखने को
कभी
तितली बन,उड आया तू
बैठ
मेरी खुली हथेली---पर
शब्द मेरे
बे-अर्थ ,कर ---गया
अविष्कार
अद्बभुत बन- रंगों का,तू
बागों में
गुन-गुन सी,बन भंवरों की
हरदम
ना जाने, कहां-कहां मडराता,तू
कभी
बन, ओस-भोर की
भिगो गया
मेरे, तलुवों को तू
तो
आसमान में
विहगों की बन उडान
बिन -डोर,पतंग सा
ओझल
हो गया है, तू
तो
स्निग्ध-सुवासित सा, हो
कभी
घुल गया बयारों में,तू
तो,कभी
मन मेम दबे,प्रेम-गीत सा
बिखर गया
होंठो पर,मेरे---तू
बांट जोहती,प्रियतम की
बन गया
विरह-गीत प्रेमी का,तू
तो
कभी,बिखर गया,पीला सा तू
फैले
सरसों के---मीलों, खेतों में,तू
चकित कर गया
समझ नहीं आता-मन को
इतना
रंग-पीला, लाया कहां से,तू
आग उगलता
अमलतास---में, तू
तो
गुल्मोहर के ठंडे शोले सा
राहों पर
बिछ गया,दरी सा,स्वागत में,मेरे तू
जैसे
ड्योढीपर,आया हो निज-कोई
जहां भी मेम
जाती हूं,दबे पांव,संग मेरे हो लेता है, तू
कब से
मित्र बना है, तू मेरा
याद
मुझे भी ना आता है,तू
फिर भी
हर-पल, गुम सा हो जाता,तू
कहां-कहां
ढूंढू मैं, तुझको-----
बस
अपने को,अपने में ही ढूंढू
आत्मसात
कर तुझको,स्वम में ही पा जाऊं मैं
मन के-मनके
Beautiful as always.
ReplyDeleteIt is pleasure reading your poems.
आत्मसात करने से सब कुछ मिल जाता है...सुन्दर रचना...
ReplyDeleteपहली बार पढ़ा.अच्छा लगा.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर प्रवाह, भावों का।
ReplyDeleteतितली बन,उड आया तू
ReplyDeleteबैठ
मेरी खुली हथेली---पर
शब्द मेरे
बे-अर्थ ,कर ---गया
अविष्कार
...बहुत बढ़िया ढंग से मनोभावों को पिरोया है आपने...
बहुत अच्छा लगा आपका ब्लॉग ..हार्दिक शुभकामनायें
बहुत सुन्दर रचना ! मन के भावों को बहुत करीने से शब्द बद्ध किया है आपने और एक मनमोहक शब्द चित्र उकेरा है रचना में ! बधाई
ReplyDeleteबेहतरीन अभिव्यक्ति...
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