Thursday 19 May 2011

किस्सा पोने पांच और सवा पांच रुपये का-------


बात कई दशक पहले की है,जब गर्मियों की छुट्टियां पूरे दो महीने की हुआ करती थीं.
तब पूरे दो महीने के लिए गांव जाना होता था.गांव की हवा,धूल भरी आंधियां,गोबर से लिपे-पुते घर,भिनभिनाती हुईं मक्खियां,हर घर से उठती अलग-अलग महक,कितनी यादें हैं,जिन्हें समेटना
ना-मुमकिन है.
उस समय, गांवो में माहौल इतना गुथा हुआ होता था कि घरों की सीमाएं समाप्त हो जातीं थीं.
दो घरों की दीवारें भी विलीन हो जाती थीं.दोपहर में घर की बुज़ुर्ग महिलाएं नाती-पोतों के साथ घर के बाहर बैठ कर दुपहरी गुज़ारा करतीं थी.
उस समय गलियों में फेरी वाले भी घूमा करते थे,कुछ न कुछ बेचने के लिये.
समय काटने का यह तरीका अच्छा होता था.चाहे कुछ खरीदा जाय या ना जाय हर फ़ेरी वाले को बुला कर बैठाया जरूर जाता था.
ऐसा ही एक संस्मरण मुझे याद आ रहा है.जब-जब भी यह याद आता है,अनायास ही होंठों पर मुस्कान फ़ैल जाती है.
एक कपडे बेचने वाला वहां से गुजर रहा था,सो परम्परा के मुताबिक,बुजुर्ग महिलायों ने उसे बिठा लिया और कपडों के थानों को खुलवा कर देखने लगीं. मोल-भाव शुरू हो गया.एक कपडे को करीदने के लिये बात आगे बढने लगी.कपडे बेचने वाला पोने पांच मे देने को राजी था,लेकिन एक बुजुर्ग महिला उसे सवा पांच में लेने को ही राजी थीं.
बहस चलती रही और कपडे वाला अपनी बात पर अडा रहा,बुजुर्ग महिला अपनी बात पर.
आखिर में,वहां से एक समझदार सज्जन वहां से गुज़रे,उन्होने माज़रा जानने की कोशिश की ,बात
उनकी समझ में तुरन्त आ गई.
उन्होंने,उन बुजुर्ग महिला को समझाया,’अम्मा,क्यों बावली हो रही है,यह तो तेरे से कम पैसे मांग रहा है,तू ज़्यादा देने पर उतारू हो रही है.,
देखिए, उस भोले-पन की हद और उस ईमानदारी की सीमा.
इस,बानगी क क्या कहना? अब कोई मिलती है,ऐसी मिसाल?
यही निश्चलता थी जो उस समय के जीवन को जीने योग्य बनाती थी.
आज का जीवन केक्टस की भांति विक्रतियों के हज़ारों काटें लिये हुए है.

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