, एक गाना,जिसकी धुन,जिसके बोल,बोल के एक-एक शब्द दिल पर टंके,सुर्ख गुलाब की खुशुबू की नांई,मन के कण-कण को महकाते रहे हैं.
वह गाना---
याद ना जाये,बीते दिनों की—
दिन जो पखेरू होते,पिंजडे में,मैं रख लेता
पालता उनको जतन से,मोती के दाने देता
सीने से रहता लगाये----------
जिंदगी,अह्सासों की लहरों पर,बहते तिनकों जैसी है---कभी लहरों से लिपटी सी,कभी लहरों पर सोई सी,कभी लहरों में खोई सी.
हमारे जीवन में,यादों का बहुत महत्व है,वे हमें अपनी सुगंध के साथ,कटीली राहों पर भी चलने का साहस देती हैं.
वे हमें,हमारे दुर्भावों को याद दिला कर,प्रयश्चित करने का भी मौका देती हैं.
वे,कभी-कभी,जीवन की ऐसी धरोहर भी बन जातीं हैं,जो पीढी दर पीढी,परिवार की धरोहर की मंजूषा बन,एक हाथ से दूसरे हाथ तक,हस्तांतरित होती रहती हैं,जिन्हें,हर आने वाली पीढी याद कर,अपने अतीत को जान पाती है,गौरांवित हो पाती है, और, अपने उदगम की गंगोत्री तक जाने का रास्ता भी उन्हें मिल जाता है,जहां से उनके परिवार-रूपी गंगाजली-धारा बह रही है.
हालांकि,जरूरी नहीं कि यादें,सुहानी ही हों,जरूरी नहीं,यादें गौरांवित ही करें,जरूरी नहीं,यादें आने वाली पीढियों की धरोहर ही हों,जिन्हें सहेज कर रखना,समाज में सम्मानीय ही हो.
हां,यह सत्य है,मनुष्य यादों के अह्सासों की छाया में,हर पल जीता है.
बुधिष्ठ,महापुरुषों का कहना है—अतीत में जीना नासमझी है.
परंतु,क्या कभी हम,बीते कल की सीढी पर पैर रखे बिना,आज की सीढी पर खडे हो पाएंगे---संभव नही.
वह पिछली सीढी का स्पर्श,हमारे तलुवों के,बहते लहू की गर्मी में,पहुंच ही जाते हैं और वह गर्माहट,लहू की बहती धारा का हिस्सा बन ही जाती है.
अब,जीवन-रूपी बगिया में,फूलों के साथ,काटें भी उग आते हैं—तो फूलों के साथ काटों को भी स्वीकार कर लेना चाहिये.
हां,कभी कोई कांटा चुभ भी जाय तो पोरों पर झलकी बूंदों में अपने अक्श को देखने की कोशिश ज़रूर होनी चाहिये और,उन कर्मों के केक्टस को समूल नष्ट करने की कोशिश रहनी चाहिये,ताकि,आने वाली पीढी,उन जहरीले कांटो के दंश से मुक्त हो जाय.
दिन जो पखेरू होते,पिंजडे में रख लेता-----मोती के दाने देता,सीने से रहता लगाये-----
मन के--मनके
अतीत से सीख ले वर्तमान में जीना होगा।
ReplyDeleteअतीत शिक्षा है... सम्हल कर चलने कर वसीला....
ReplyDeleteबढ़िया लेख...
सादर..