Sunday, 23 October 2011

सुख की खोज

जहां देखें,मनुष्य भाग रहा है,दौड रहा है,हांफ रहा है,क्यों?किसके लिये?
वैसे तो,प्रकृति ने,इस संसार में इतने संसाधन दिये हैं,यदि वह,प्रकृति रूप से जिये तो उसकी सभी ज़रूरते पूरी हो सकती हैं,वह सुखी व तृप्त भी हो सकता है,काशः ऐसा हो पाता.
पक्षियों के लिये,आश्रयों की कमी नहीं है,एक पेड पर घोंसला ना सही तो किसी खंडहर की बिखरी दीवारों में ही सही,उन्हें आश्रय मिल ही जाता है.
वे,चहचहाते हुये,नीड का एक-एक तिनका चुनते हैं,मनोयोग से एक-एक तिनके को सहेज कर,घोंसला बना ही लेते हैं,वहां उनकी लगन व उत्साह में कोई कमी नहीं होती है,वे आने वाले अंधड की कोरी कल्पना में,हतौत्साहित नहीं होते हैं,यदि ऐसी अनहोनी घट भी जाय तो गले में,फांसी का फंदा भी नहीं लगाते है.
बस,फिर वही चहचहाट,वही,तिनकों का चुनना,वही फ़ुदकना और,फिर एक नया घोसला तैयार.फिर बारी आती है,अंडे देने की—वही चहचहाहट,वही फुदकन.
और,एक दिन,अंडों से बच्चे निकल—उड जाते हैं,वे,फिर,अकेले,फिर वही जीवन की लय,वही जीवन-संगीत.
कहां गये,वे सुख ढूंढने के लिये,क्योंकि,उन्होंने जीवन को,सुख-दुख की तराज़ू में रख कर तौला ही नहीं या वे,ऐसे मानवीय-प्रपंच जानते ही नहीं.
यदि,हम किसी महानगर में रह रहें हैं,तो हर समय,हर जगह,जीवन की रेलमपेल ही दिखाई देगी.सुबह की ठंडी बयार भी,गाडिय़ों के धुंये से दूषित,झेलनी पडेगी.
यदि,कभी,लोगों की जिंदगियों में झांककर देखें तो,पायेगें,एक मकान वाला दो मकान के लिये भाग रहा है,दूसरा,चार डिजिट वाली पगार से असंतुष्ट,पांच डिजिट वाली पगार की जुगाड में लगा हुआ है.
मकान,महानगरों में,सोने भर की सराय बन गये हैं.घर में यदि,चार प्राणी हैं तो,चारों घर से बाहर ही मिलेगें—लौटने का समय,किसी का भी तय नही है.
खाना एक साथ,शायद ही खा पाते हों,लेकिन छैः कुर्सियों वाली डाइनिंग टैबल हर घर में,हर फ्लैट में होनी ज़रूरी है,ईश्वर जाने वह कभी फुल ओक्युपाइ होती भी है या नहीं क्योंकि,अब,मेहमानों को फुर्सत नहीं है,मेहमानों के यहां जाने के लिये.
साज़ो-सामान,आधुनिक जीवन का सिंबल बन गया है.
और,एक दिन,अंडों से बच्चे निकल—उड जाते हैं,वे,फिर,अकेले,फिर वही जीवन की लय,वही जीवन-संगीत.
कहां गये,वे सुख ढूंढने के लिये,क्योंकि,उन्होंने जीवन को,सुख-दुख की तराज़ू में रख कर तौला ही नहीं या वे,ऐसे मानवीय-प्रपंच जानते ही नहीं.
यदि,हम किसी महानगर में रह रहें हैं,तो हर समय,हर जगह,जीवन की रेलमपेल ही दिखाई देगी.सुबह की ठंडी बयार भी,गाडिय़ों के धुंये से दूषित,झेलनी पडेगी.
यदि,कभी,लोगों की जिंदगियों में झांककर देखें तो,पायेगें,एक मकान वाला दो मकान के लिये भाग रहा है,दूसरा,चार डिजिट वाली पगार से असंतुष्ट,पांच डिजिट वाली पगार की जुगाड में लगा हुआ है.
मकान,महानगरों में,सोने भर की सराय बन गये हैं.घर में यदि,चार प्राणी हैं तो,चारों घर से बाहर ही मिलेगें—लौटने का समय,किसी का भी तय नही है.
खाना एक साथ,शायद ही खा पाते हों,लेकिन छैः कुर्सियों वाली डाइनिंग टैबल हर घर में,हर फ्लैट में होनी ज़रूरी है,ईश्वर जाने वह कभी फुल ओक्युपाइ होती भी है या नहीं क्योंकि,अब,मेहमानों को फुर्सत नहीं है,मेहमानों के यहां जाने के लिये.
साज़ो-सामान,आधुनिक जीवन का सिंबल बन गया है.
और,एक दिन,अंडों से बच्चे निकल—उड जाते हैं,वे,फिर,अकेले,फिर वही जीवन की लय,वही जीवन-संगीत.
कहां गये,वे सुख ढूंढने के लिये,क्योंकि,उन्होंने जीवन को,सुख-दुख की तराज़ू में रख कर तौला ही नहीं या वे,ऐसे मानवीय-प्रपंच जानते ही नहीं.
यदि,हम किसी महानगर में रह रहें हैं,तो हर समय,हर जगह,जीवन की रेलमपेल ही दिखाई देगी.सुबह की ठंडी बयार भी,गाडिय़ों के धुंये से दूषित,झेलनी पडेगी.
यदि,कभी,लोगों की जिंदगियों में झांककर देखें तो,पायेगें,एक मकान वाला दो मकान के लिये भाग रहा है,दूसरा,चार डिजिट वाली पगार से असंतुष्ट,पांच डिजिट वाली पगार की जुगाड में लगा हुआ है.
मकान,महानगरों में,सोने भर की सराय बन गये हैं.घर में यदि,चार प्राणी हैं तो,चारों घर से बाहर ही मिलेगें—लौटने का समय,किसी का भी तय नही है.
खाना एक साथ,शायद ही खा पाते हों,लेकिन छैः कुर्सियों वाली डाइनिंग टैबल हर घर में,हर फ्लैट में होनी ज़रूरी है,ईश्वर जाने वह कभी फुल ओक्युपाइ होती भी है या नहीं क्योंकि,अब,मेहमानों को फुर्सत नहीं है,मेहमानों के यहां जाने के लिये.
साज़ो-सामान,आधुनिक जीवन का सिंबल बन गया है.
फिर भी,इन शहरी-शैली ने वास्तविक सुख को नहीं जाना,हां,सुख के पीछे दौड ज़रूर रहें है.हर इंसान दुःखी है,इस दुःख से छुटकारा पाने के लिये—और-और,सुख चाहिये.
ओशो कहते हैं---------
क्या यह उचित होगा,दुःख भीतर है,उसे मिटाने के लिये हम सुख,और सुख खोजें?
या,यह उचित होगा कि,दुःख भीतर है,तो उस दुःख का कारण खोजें,उस कारण को मिटाएं,मुक्त हो जाएं?
क्या यह वैग्यानिक होगा,बीमारी हो तो,उसके कारण को खोज कर,बीमारी को नष्ट करें?
                             या
काल्पनिक स्वास्थय की खोज में,भटकते रहें?
                                                मन के--मनके

7 comments:

  1. aapki tippani ke madhyam se aapke blog ka pata chala.aana sarthak raha bahut uttam aalekh padhne ko mila.jeevan ke bahut kareeb hai aapki lekhni.bahut achchi abhivyakti.aapki shrankhla se judna mera sobhaagya hoga.

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  2. बेहद ही प्यारे शब्द है।

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  3. औरों की परिभाषाओं में जीने का प्रयास।

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  4. काशः ऐसा हो पाता......

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  5. बहुत प्रभावी प्रस्तुति....वाह!!

    आपको दीप पर्व की सपरिवार सादर शुभकामनाएं

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  6. देखिए दौड कब समाप्‍त होती है ..
    .. आपको दीपावली की शुभकामनाएं !!

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  7. संजीदा लिखा है ... पर ये दौड़ कभी खत्म नहीं होती ... हर कोई ओशो की बात मन में कहाँ उतार पाता है ..
    आपको दीपावली की मंगल कामनाएं ...

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