ये,राहों के सिलसिले हैं,दोस्त
सराहों में ठहरे, राहगीरों की तरह
कुछ देर का साथ था,
एक राह,कटती है ,उस तरफ
इस राह पर,हम हो लिये-----
चार रोज़ा प्यार की मज़ार पर
पिघलते हैं आंसू,तमाम उम्र के
पीछे छूटी राहों के गुबार में
परछाई भी तुम्हारी,अब, नज़र आती नही----
हथेलियों में,अब तलक
दौडती हैं,तुम्हारे लहू की,गर्माहटें
बंद है,मुट्ठी मेरी, अब तलक
छुडा कर हाथ,तुम ही,चले गये-----
हथेलियों में,अब तलक दौडती हैं,तुम्हारे लहू की,गर्माहटें
ReplyDeleteभावों की गहन अभिव्यक्ति..
behtarin prastuti
ReplyDeleteगहन अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteहथेलियों में,अब तलक
ReplyDeleteदौडती हैं,तुम्हारे लहू की,गर्माहटें
बंद है,मुट्ठी मेरी, अब तलक
छुडा कर हाथ,तुम ही,चले गये----
अत्यंत संवेदनशील रचना. बधाई हो उर्मिला जी.
चार रोज़ा प्यार की मज़ार पर
ReplyDeleteपिघलते हैं आंसू, तमाम उम्र के
पीछे छूटी राहों के गुबार में
परछाई भी तुम्हारी, अब, नज़र आती नही...
गहनता से गुंथी सुन्दर प्रस्तुति...
सादर...
गहन भाव उकेरे हैं आपने.बहुत सुन्दर.
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