बिन बोल बिकहे
स्पर्श ना
स्निग्ध-स्नेह की छटा निराली
· मन को इन्द्रधनुष सा छू जाती थी
जब,कच्चे धागे की गांठ अनूठी
भय्या के आशीषी हाथों पर बंध जाती थी
एक रुप्पैय्या,धर हाथों पर
भय्या,लाखों का वादा करते थे
हाथों से ले,रख माथे पर
जीजी भी लाखों की हो जाती थीं
आंखों में झलके आंसू
स्नेह-अटूट की कथा कह गए
बांध जिन्हे ना पाया शब्दों का
आंसू बन लेखनी,निस्वार्थ-स्नेह-अटूट का
ग्रंथ,लिख गए
बिखरे थे----स्वर्ग
चारों-------तरफ
अब,सावन तो आते हैं
पर,बिन सनूने-झूले के
घर-घर,दूध सिवैयां बन जाती हैं
पर,बिन घेवर-पूए-बूरे के
कच्चे-धागों की,पक्की गांठ
खोल गई राखी,सोने-चांदी की
अब,राखी के भी मोल हो गए
भय्या भी,अधिक व्वस्त हो गए
जीजी भी,चतुर-सुजान हो गईं
राखी की कीमत की पहचान हो गई
आशीषों के अकाल पड गए
स्निग्ध-स्नेह-अटूट,स्वप्न हो गए
अम्मा की आंखों में,मजबूरी के आंसू हैं
आंखें झुक गईं बाबा की,हाथो की मुठ्ठी खाली है
जेबों में गड्डी नोटों की,खुशियां खरीद नहीं पाती हैं
बाजारों में दुकान-दबदबी,फीकी सी खीर हो गई
जीवन की उठा-पटक में,रोटी ही जुट पाती है
मन,भारी-भारी सा रहता है
याद बहुत,त्योहारों की आती है
तब,त्योहारों की उम्र बडी थी
दस दिन पहले,दस दिन पीछे वाले होते थे
एक विदा ना हो पाता था
दूजे की तैयारी होने लगती थी
बिखरे थे-----स्वर्ग
चारों----------तरफ
त्योहारों का उत्साह विकास की भेंट चढ़ गया है।
ReplyDeleteकच्चे-धागों की,पक्की गांठ
ReplyDeleteखोल गई राखी,सोने-चांदी की
-पंक्तियाँ आज का सच बयां कर रही हैं...