Friday 5 August 2011

कबिरा-दो पाटन के बीच साबुत ना बचा कोय

मौसम में ठंडक थी,मन बैचेन सा था. सोचा कुछ देर पार्क में घूम आऊं.
कभी-कभी लगता है,चलते-चलते सब कुछ ठहर सा गया है,इसे मन कहूं या मन की चाल.
पर्क में,बच्चों के कोलाहल से वातावरण हलका-हलका सा लगा. दूसरी ओर जिंदगी के हर पडाव ठहरे हुए से दस-पांच के झुंड में बैठे लोग अपने को हलका करने की कोशिश में लगे हुए थे.
तभी,एक महिला पैरो में रबड की चप्पलें फटकारती सी आकर मेरे पास बैठ गईं. अचानक हम दौनों की नजरें मिली और बेवजह भटक भी गईं.दुबारा फिर नज़रें मिली और दौनों ने एकसाथ एक-दूसरे पर प्रश्न जड दिया,’ आज,मौसम कुछ ठंडा है, बिना किसी को देखे.
अब मेरी बारी थी बात का सिलसिला आगे ले जाने की सो पूछ लिया,’ कितने बच्चेम हैं,कितने बडे हैं,किस क्लास में पढ रहें हैं?,
कुछ देर बाद महिला को देखा तो उत्तर देते-देते अपने-आप को स्वाभाविक दिखाने की भरपूर कोशिश में लगी हुईं थीं.
इस बार मैने भी कोशिश की उन्हें ध्यान से देखने की.साधारण चेहरे-मोहरे वाली महिला,जो कुछ कहने से पहले बार-बार अपने-आप को सभांलने की कोशिश करती थीं और इस कोशिश में उनके
होंठ कांपने लगते थे.
जब भी वे कुछ कहतीं,आंखों में निहीरता का भाव उभर-उभर आता था.
कहने लगीं,दो बेटे हैं,बडे ने दसवीं कर ली हैं,छोटा पांचवीं में है,दिमाग से कुछ कमजोर है.
सोच रही थी,अब उठा जाय,कुछ काम हैं जो छोडे नहीं जा सकते, चाहे मन थक जाए या कुछ रुकना भी चाहे.
तभी,उक्त महिला के होंठ फडफडाए,बोलीं, ’ मेरे पति के ऊपर भी किसी ने कुछ करवा दिया है,मुझसे बात नहीं करते हैं,
औपचारिकतावश, पूछ लिया,’ शराब तो नहीम पीते?,
’नहीं,कभी-कभी मार-पीट तो कर ही देते हैं, मैं तो चुप ही रहती हूं,तमाशा दिखाने से क्या होगा.,
सोचा,सारी दुनियादारी महिला के हिस्से में आ गई है.
घर लौटते समय,मैं सोच रही थी,क्या मजबूरी है साथ रहने की,एक छत के नीचे साल-दर गुजारने की,विडम्बना,ना अपनाते बनता है ना छोडते बनता है.
खुद ही कारावास के लोहे के दरवाजे खोले और बैठ गए बंद करके.
किसे दरकार है कि दरवाजा खुले और आसमान देखें.
वे,अचानक उठीं,साडी को ठीक करके,रबड की चप्पलें फटकारती हुईं चल दीं
कितना भारी वज़ूद था------हाय रे,कबिरा,दो पाटों के बीच में,साबुत बचा न कोय.
                                                            

4 comments:

  1. बहुत सही विवेचना प्रस्तुत की है आपने!

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  2. विचारणीय तथ्य जीवन के।

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  3. उर्मिला जी ....नारी मन की व्यथा को कितने सरल शब्दों में ढाल दिया

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  4. -हाय रे,कबिरा

    नारी का जीवन!!..

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