Monday, 16 July 2012

फ़लसफ़ा-ए-ज़िंदगी


१.होश-ए-ज़िंदगी,यूं सरक गई---

ढूंढते हुए-फ़कत,इस पल के वज़ूद को

और वो भी,मुठ्ठी से सरक गया

 यूं, बे आवाज-----

२.किताबे-ज़िंदगी------

वर्क-दर-वर्क, रोज़ पढती हूं

अगली सुबह,पहला वर्क ही,

पलटती हूं------

३.ये,बेपनाह खोज---बेनपे रास्ते

चलती हूं, रोज़,अल-सुबह---

शाम गुज़रती है----और

मैं,वहीं पर खडी हूं---

४.कशमशे-कश-ज़िंदगी,उभर आई है

यह भी ज़िंदगी है—लहज़ा है,जीने का

ज़िंदगी—फ़र्श नहीं,संगमर्मर का—

तभी तो,संभल-संभल जाते हैं

                   वरना---




4 comments:

  1. जीवन का यथार्थ ....
    बस कट जायेगी यू ही जिंदगी???

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  2. जिंदगी के सभी फलसफे खुरदरी जमीन पे चल के सीखे ... और कलम से उतारे हुवे हैं ... अंत में जैसे भी हो कट ही जाती है जिंदगी ...

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  3. बहुत सही इस जीवन का याथर्थ..सटीक

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  4. हर बार संभल जाते हैं, धरती बाँधती है।

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